Monday, 29 February 2016

श्रीदुर्गासप्तशती के आदिचरित्र का माहात्म्य


ऋषियों ने पूछा - सूतजी महाराज ! अब आप हमलोगों को यह बतलाने की कृपा करें कि किस स्तोत्र के पाठ करने से वेदों के पाठ करने का फल प्राप्त होता है और पाप विनष्ट होते हैं ।
सूतजी बोले - ऋषियों ! इस विषय में आप एक कथा सुनें । राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम था कामिनी । एक बार वह ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने के लिए अन्यत्र गया हुआ था । इधर उसकी स्त्री कामिनी जो अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाली थी, पति के न रहने पर निन्दित कर्म में प्रवृत्त हो गयी । फलत: उसे एक निन्द्य पुत्र उत्पन्न हुआ, जो व्याधकर्मानाम से प्रसिद्ध हुआ । वह भी अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाला था, धूर्त था तथा वेद पाठ से रहित था । उस ब्राह्मण ने अपनी स्त्री एवं पुत्र के निन्दित कर्म और पापमय आचरण को देखकर उन दोनों को घर से निकाल दिया तथा स्वयं धर्म में तत्पर रहते हुए विंध्याचल पर्वतपर प्रतिदिन चण्डीपाठ करने लगा । जगदंबा के अनुग्रह से अंत में वह जीवान्मुक्त हो गया ।
इधर वे दोनों माता पुत्र पूर्वपरिचित निषाद के पास चले गये और वहीं निवास करने लगे । वहां भी वे दोनों अपने निन्दित आचरण को छोड़ न सके और इन्हीं बुरे कर्मों से धन संग्रह करने लगे । व्याधकर्मा चौर्य कर्म में प्रवृत्त हो गया । ऐसे ही भ्रमण करते हुए दैवयोग से एक दिन वह व्याधकर्मा देवी के मंदिर में पहुंचा । वहां एक श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे थे । दुर्गापाठ के आदिचरित्र (प्रथम चरित्र) के किंचित् पाठमात्र के श्रवण से उसकी दुष्टबुद्धि धर्ममय हो गयी । फलत: धर्मबुद्धिसंपन्न उस व्याधकर्मा ने उस श्रेष्ठ सारा धन उन्हें दे दिया । गुरु की आज्ञा से उसने देवी के मंत्र का जप किया । बीजमंत्र के प्रभाव से उसके शरीर से पापसमूह कृमि के रूप में निकल गये । तीन वर्ष तक इस प्रकार जप करते हुए वह निष्पाप श्रेष्ठ द्विज हो गया । इसी प्रकार मंत्र जप और आदिचरित्र का पाठ करते हुए उसे बारह वर्ष व्यतीत हो गये । तदनन्तर वह द्विज काशी में चला आया । मुनि एवं देवों से पूजित महादेवी अन्नपूर्णा का उसने रोचनादि उपचारों के द्वारा पूजन किया और उनकी इस प्रकार स्तुति -
नित्यानंदकरी पराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलपापपावनकरी काशीपुराधीश्वरी ।
नानलोककरी महाभयहारी विश्वंभरी सुंदरी
विद्यां देहि कृपावलंबनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।
इस स्तुति का एक सौ आठ बार जपकर ध्यान में नेत्रों को बंदकर वह वहीं सो गया । स्वप्न में उसके सम्मुख अन्नपूर्णा शिवा उपस्थित हुईं और उसे ऋग्वेद का ज्ञान प्रदान कर अन्तर्हिन हो गयीं । बाद में वह बुद्धिमान ब्राह्मण श्रेष्ठ विद्या प्राप्तकर राजा विक्रमादित्य के यज्ञ का आचार्य हुआ । यज्ञ के बाद योग धारणकर हिमालय चला गया ।
हे विप्रो ! मैंने आपलोगों को देवी के पुण्यमय आदिचरित्र के माहात्म्य को बतलाया, जिसके प्रभाव से उस व्याधकर्मा ने ब्राह्मीभाव प्राप्तकर परमोत्तम सिद्धि को प्राप्त कर लिया था

रक्षक प्रभु


इन्द्र से वरदान में प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी । इन्द्र का कहा हुआ था कि इस शक्ति को तू प्राणसंकट में पड़कर एक बार जिस पर भी छोड़ेगा, उसी की मृत्यु हो जाएंगी, परंतु एक बार से अधिक इसका प्रयोग नहीं हो सकेगा । कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिए रख छोड़ी थी । उससे रोज दुर्योधनादि कहते कि तुम उस शक्ति का प्रयोग कर अर्जुन को मार क्यों नहीं देते । वह कहता कि आज अर्जुन के सामने आते ही उसे जरूर मारूंगा, पर रण में अर्जुन के सामने आने पर कर्ण इस बात को भूल जाता और उसका प्रयोग न करता । कारण यहीं था कि अर्जुन के रथ में सारथि के रूप में भगवान निरंतर रहते । अर्जुन का रथ सामने आते ही कर्ण को पहले भगवान के दर्शन होते । भगवान उसे मोहित कर लेते, जिससे वह शक्ति छोड़ना भूल जाता । वे हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिए सचेष्ट थे । उन्होंने स्वयं ही सात्यकि से कहा था -
‘हे सात्यकि ! मैंने ही कर्ण को मोहित कर रखा था, जिससे वह श्वेत घोड़ों वाले अर्जुन को इंद्र की दी हुई शक्ति से नहीं मार सका था । मैं अपने माता पिता की, तुमलोगों की, भाईयों की और अपने प्राणों की रक्षा करना भी उतना आवश्यक नहीं समझता हूं । हे सात्यकि ! तीनों लोकों के राज्य की अपेक्षा भी कोई वस्तु अधिक दुर्लभ हो तो मैं उसे अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता ।’ धन्य है !
इसलिए भगवान ने भीमपुत्र घटोत्कच को रात के समय युद्धार्थ भेजा । घटोत्कच ने अपनी राक्षसी माया से कौरव - सेना का संहार करते करते कर्म के नाकों दम कर दिया । दुर्योधन आदि सभी घबरा गये । सभी ने खिन्न मन से कर्ण को पुकारकर कहा कि ‘इस आधी रात के समय यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा, फिर भीम अर्जुन हमारा क्या करेंगे । अतएव तुम इंद्र की शक्ति का प्रयोग कर उसे पहले मारो, जिससे हम सबके प्राण बचें ।’
आखिर कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी । शक्ति लगते ही घटोत्कच मर गया । वीर पुत्र घटोत्कच की मृत्यु देखकर सभी पाण्डवों की आंखों में आंसू भर आये । परंतु श्रीकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे हर्ष से प्रमत्त से होकर बार बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे । अर्जुन ने कहा - भगवन ! यह क्या रहस्य है ? हम सबका तो धीरज छूटा जा रहा है और आप हंस रहे हैं ? तब श्रीकृष्ण ने सारा भेद बतलाकर कहा कि ‘मित्र ! इंद्र ने तेरे हित के लिए कर्ण से कवच कुण्डल ले लिए थे, बदले में उसे एक शक्ति दी थी, वह शक्ति कर्ण ने तेरे मारने के लिए रख छोड़ी थी । उस शक्ति के कर्ण के पास रहते मैं सदा तुझे मरा ही समझता था । मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूं कि आज भी, शक्ति न रहने पर भी कर्ण को तेरे सिवा दूसरा कोई नहीं मार सकता । वह ब्राह्मणों का भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रताचारी और शत्रुओं पर भी दया करनेवाला है । मैंने घटोत्कच को इसी उद्देश्य से भेजा था । हे अर्जुन ! तेरे हित के लिए ही मैं यह सब किया करता हूं । चेदिराज शिशुपाल, भील एकलव्यस जरासंध आदि को विविध कौशलों से मैंने इसलिए मारा या मरवाया था, जिससे वे महाभारत समर में कौरवों का पक्ष न ले सकें । वे आज जीवित होते तो तेरी विजय बहुत ही कठिन होती । फिर यह घटोत्कच तो ब्राह्मणों का द्वेषी, यज्ञद्वेषी, धर्म का लोप करनेवाला और पापी था । इसे तो मैं ही मार डालता, परंतु तुमलोगों को बुरा लगेगा, इसी आशंका से मैंने नहीं मारा ।’ आज मैंने ही इसका नाश करवाया है -
‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, मैं उसका वध कर डालता हूं । धर्म की स्थापना करने के लिये ही मैंने यह अटल प्रतिज्ञा की है । मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूं कि जहां ब्रह्मभाव, सत्य, इंद्रियदमन, शौच, धर्म (बुरे कर्मों में), लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमा हैं, वहां मैं नित्य निवास करता हूं ।’
अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंदर ये गुण हैं, इसलिए मैं तुम्हारे साथ हूं और इसलिए मैंने कौरवों का पक्ष त्याग रखा है, नहीं तो मेरे लिए सभी एक से हैं । फिर तुम घटोत्कच के लिए शोक क्यों करते हो ? अपना भाई भी हो तो क्या हुआ, जो पापी है वह सर्वथा त्याज्य है । इस प्रकार मित्र अर्जुन के प्राण और धर्म की भगवान ने रक्षा की ।

चक्रपाणि


इस अपार पयोधि की अनन्त उत्ताल तरंगों में अनिलानल में, नक्षत्रपूर्ण नीलाकाश में, मधुर ज्योत्स्नामय सुधाकर में, उद्दीप्त प्रखर ज्योतिमान सूर्य में चक्रपाणि का दर्शन हो रहा है । अनन्त सौंदर्य के अधिष्ठातृ देव भगवान कमललोचन शांतरूपेण विराजमान हैं । भू:, भुव:, स्व: आदि सप्तलोक महाप्रभु की एक अंगुली पर भ्रमित चक्रपर घुम रहे हैं । मृत्युलोकवासी अपनी भाषा में उसका पूर्ण वर्णन करने में असमर्थ हैं । चक्रधर प्रभु की इच्छामात्र से सृष्टि - चक्र, धर्म - चक्र, कर्म - चक्र तथा संहार - चक्र घूम रहा है । इस प्रकार भगवान की इच्छामात्र से ही सब कुछ हो रहा है । उनकी रुद्र दृष्टि से समुद्र खौलने लगते हैं, पृथ्वी कांप उठती है । नहीं, नहीं, सप्तलोक उत्तम हो उठते हैं और अनन्ताकाश में प्रलयाग्नि की ज्वालामय विद्युल्लहरें दौड़ जाती हैं । तब भगवान को सुदर्शन - चक्र धारण करने की क्या आवश्यकता ? भगवान तो धर्मोद्धारक हैं और अहिंसा है धर्म का स्वरूप, पुन: यह हिंसा का साधनचक्र प्रभु के हाथ में कैसा ? जब कि आज संसार के बड़े बड़े मस्तिष्कों ने विश्व में शांति स्थापना करने के लिए ‘नि:शस्त्रीकरण’ सिद्धां निकाला है, तब भगवान के हाथ का चक्र भी अलग क्यों न रखवा दिया जाएं और उसकी जगह एक फाउणटेन पेन क्यों न दे दिया जाएं ? परंतु इस विचार के लोग ऐसा कहते हुए प्राकृतिक गुणों को भूल जाते हैं । जब कि प्रकृति सत् - रज - तमत्रय - गुणात्मयी है तब केवल सात्त्विक शासन की कल्पना करना अव्यावहारिक और वैयक्तिक है । हां, कोई व्यक्ति या कुछ व्यक्ति सात्त्विक शासन में रह सकते हैं, परंतु एक साम्राज्य के लिए यह मृगमरीचिकावत् है ।
हमें सात्त्विक शासन के दिव्य उदाहरण भारतवर्ष के पूर्वकाल में मिलते हैं । सत्यद्रष्टा तपोनिष्ठ ब्राह्मण समाज उसी सात्त्विक शासन में रहता था । उसका जीवन सांसारिक प्रलोभनों से दूर, कोलाहल से शून्य पवित्र प्रकृति की विहारस्थली पर निर्मित पर्ण कुटीरों में व्यतीत होता था । उन तपोवनों के निकट राजागण आखेट नहीं खेलते थे । वे नि:शस्त्र होकर उन सत्त्वपूजक तेजस्वी ब्राह्मणों की पर्णशालाओं पर उनके दर्शनार्थ जाते थे । वहां मृगछौने और सिंहशावक एक साथ खेलते थे । सिंह और गौ पास पास विचरते थे । यह था भारतीय नि:शस्त्रीकरण का राज्य । इस राज्य की मूल भित्ति थी आध्यात्मिक ज्योति की जाग्रति, अद्वैततत्त्व की अनुभूति और प्रेम रूप महाप्रभु की दिव्योपासना । परंतु भारतीय इतिहास में कहीं भी पता नहीं लगता कि उन तपोनिष्ठ ब्राह्मणों ने नि:शस्त्र होकर शासन करने के लिए कहा हो । हां, बुद्धकाल से केवल दार्शनिक विचारों पर अटक जाने से बारत के क्षात्र धर्म - क्षात्र शक्ति का विनाश होता आया है । हम बुद्ध शासन की आर्य शासन में गणना नहीं कर सकते । सामयिक आवश्यकतावश बुद्धदेव ने ऐसा उपदेश दिया अवश्य था परंतु उसका अभिप्राय यह कदापि न था कि यौद्धिकशक्ति को उठा दिया जाएं । ‘परित्राणाय साधूनां विनाशय च दुष्कृताम्’ तो शस्त्र धारण करना ही होगा । पर वैयक्तिक स्वार्थ के लिए नहीं, एकदेशीय प्रलोभनार्थ नहीं, पापी पेट के लिए नहीं, सांसारिक विषय भोग, आमोद प्रमोद प्राप्त करने के लिए नहीं, राज्य सुख भोग के लिए, अपने सिरपर मुकुट धारण करने के लिए नहीं और न दूसरों का धन लूचकर अपना कोष भरने के लिए वरं ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ । बस, महाप्रभु के दिव्य करों में ऐसा ही चक्र है और हमें उनके चरण चिन्हों पर चलने की आवश्यकता है ।
धर्म के नाम पर नाम पर भी लोगों ने घोर रक्तपात किया है । अतएव धर्म का स्वरूप प्रकट करने की परमावश्यकता है । विश्वभर के लक्षणों से उत्तम और परिपूर्म धर्म का लक्षण हमारे शास्त्रों में है -
‘यतोभ्युदयनिश्रेयससिद्धि स धर्म:’
अर्थात् जिससे मानवजाति प्राकृत जीवन और विकास को प्राप्त करते हुए मोक्ष को प्राप्त करें वहीं धर्म है । तब यदि हमारे जीवनविकास में हमारी पवित्र स्वतंत्रता में कुछ कारण बाधक हों तो हमें उनके विनास करने में हिंसा कैसी ? जो कारण मानवजीवन का पतन कर उसको उसके ईश्वरत्व से वञ्चित रखें वे प्रकृतिविरुद्ध हैं, महाप्रभु की अखिल सृष्टि के सम्मुख वे अपराधी हैं । इस अपराध का दण्डविधान करने के लिए हो चक्रपाणि का सुदर्शन चक्र है ।
वास्तव में ब्राह्मण शक्ति (सतोगुण) और क्षात्र (रजोगुण) शक्ति इन दोनों का सम्मिश्रण ही किसी देश के लिए उत्थान का कारण है । समुचितरूपेण न केवल सत्त्वनिष्ठ पुरुष ही संसार का नियमन या शासन सुव्यवस्था कर सकते हैं और न राजसिक ही, हमें भारत के उन्नति - पथ का यह एक प्राकृतिक अटल सिद्धांत है । इसके विरुद्ध यदि कोई देश के जीवनसूत्र को दृढ़ करना चाहे तो यह उसकी निरंतर एक वितार पर की तल्लीनता और दृष्टिबद्धता के अतिरिक्त और कुछ नहीं । भगवान ब्राह्मणशक्ति से परिपूर्ण हैं । वे परमशांत सौम्य और दयासिंधु हैं । वे भक्त की पीड़ा से द्रवित हो उठते हैं । पर उनके हाथ में सुदर्शन चक्र है और चक्र है भक्तभयहारी असुरदलसंहारी । प्राचीन काल में जनता जब धर्म प्राण थी, धर्म पिपासु थी, स्वतंत्रता की भक्त थी, मुक्ति ही उसका उद्देश्य था तब वह भगवान चक्रपाणि की भक्त थी । भगवान चक्रधर ही एकमात्र इष्टदेव थे और भारत था सच्चा वैष्णव ।
सच्चे स्वराज्य की प्राप्ति के लिए महाप्रबु चक्रपाणि की शरण में प्राप्त हों । पुन: संसाररूपी कुरुक्षेत्र से वे अपने आप ही विजय के साथ ले निकलेंगे । क्योंकि रथ हांकने में तो प्रसिद्ध गुरु हैं । हां, आवश्यकता है शरीररूपी रथ में जुड़े इंद्रियरूपी घोड़ों के मुख में पड़ी मनरूपी डोर को उनके हाथ में सौंप देने की । फिर जय ही जय है ।

दरिद्रा कहां - कहां रहती है ?


समुद्र मंथन के समय हलाहल के निकलने के पश्चात् दरिद्रा की, तत्पश्चात् लक्ष्मी जी की उत्पत्ति हुई । इसलिए दरिद्रा को ज्येष्ठ भी कहते हैं । ज्येष्ठा का विवाह दु:सह ब्राह्मण के साथ हुआ । विवाह के बाद दु:सह मुनि अपनी पत्नी के साथ विचरण करने लगे । जिस देश में भगवान का उद्घोष होता, होम होता, वेदपाठ होता, भस्म लगाये लोग होते - वहां से ज्येष्ठा दोनों कान बंद कर दूर भाग जाती । यह देखकर दु:सह मुनि उद्विग्न हो गये । उन दिनों सब जगह धर्म की चर्चा और पुण्य कृत्य हुआ ही करते थे । अत: दरिद्रा भागते भागते थक गयी, तब उसे दु:सह मुनि निर्जन वन में ले गये । ज्येष्ठा डर रही थी कि मेरे पति मुझे छोड़कर किसी अन्य कन्या से विवाह न कर लें । दु:सह मुनि ने यह प्रतिज्ञा कर कि ‘मैं किसी अन्य कन्या से विवाह नहीं करूंगा ’ पत्नी को आश्वस्त कर दिया ।
आगे बढ़ने पर दु:सह मुनि ने महर्षि मार्कण्डेय को आते हुए देखा । उन्होंने महर्षि को साष्टांग प्रणाम किया और पूछा कि ‘इस भार्या के साथ मैं कहां रहूं और कहां न रहूं ?’ मार्कण्डेय मुनि ने पहले उन स्थानों को बताना आरंभ किया, जहां दरिद्रा को प्रवेश नहीं करना चाहिए -
‘जहां रुद्र के भक्त हों और भस्म लगाने वाले लोग हों, वहां तुम लोग प्रवेश न करना । जहां नारायण, गोविंद, शंकर, महादेव आदि भगवान के नाम का कीर्तन होता हो, वहां तुम दोनों को नहीं जाना चाहिए, क्योंकि आग उगलता हुआ विष्णु का चक्र उन लोगों के अशुभ को नाश करता रहता है । जिस घर में स्वाहा, वष्टकार और वेद का घोष होता हो, जहां के लोग नित्यकर्म में लगे हुए भगवान की पूजा में लगे हुए हों, उस घर को दूर से ही त्याग देना । जिस घर में भगवान की मूर्ति हो, गाएं हो, भक्त हों, उस घर में भी तुम दोनों मत घुसना ।’
तब दु:सह मुनि ने पूछा - ‘महर्षे ! अब आप हमें यह बताएं कि हमारे प्रवेश के स्थान कौन कौन से हैं ?’ महर्षि मार्कण्डेय जी ने कहा - ‘जहां पति पत्नी परस्पर झगड़ा करते हों, उस घर में तुम दोनों निर्भय होकर घुस जाओ । जहां भगवान की निंदा होती हो, जप, होम आदि न होते हों, भगवान के नाम नहीं लिए जाते हों, उस घर में घुस जाओ । जो लोग बच्चों को न देकर स्वयं खा लेते हों, उस घर में तुम दोनों घुस जाओ । जिस घर में कांटेदार, दूधवाले, पलाश के वृक्ष और निंब के वृक्ष हों, जिस घर में दोपहरिया, तगर, अपराजिता के फूल का पेड़ हो, वे घर तुम दोनों के रहने योग्य हैं, वहां अवश्य जाओ । जिस घर में केला, ताड़, तमाल, भल्लातक (भिलाव), इमली, कदंब, खैर के पेड़ हों, वहां तुम दरिद्रा के साथ घुस जाया करो । जो स्नान आदि मंगल कृत्य न करते हों, दांत मुख साफ नहीं करते, गंदेकपड़े पहनते, संध्याकाल में सोते या खाते हों, जुआ खेलते हों, ब्राह्मण के धन का हरम करते हों, दूसरे की स्त्री से संबंध रखते हों, हाथ - पैर न धोते हों, उन घरों में दरिद्रा के साथ तुम रहो ।’
मार्कण्डेय ऋषि के चले जाने के बाद दु:सह ने अपनी पत्नी दरिद्रा से कहा - ‘ज्येष्ठे ! तुम इस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ जाओ । मैं रसातल जाकर रहने के स्थान का पता लगाता हूं ।’ दरिद्रा ने पूछा - ‘नाथ ! तब मैं खाऊंगी क्या ? मुझे कौन भोजन देगा ?’ दु:सह ने कहा - ‘प्रवेश के स्थान तो तुझे मालूम ही हो गये हैं, वहां घुसकर खा पी लेना । हां, यह याद रखना कि जो स्त्री पुष्प, धूप आदि से तुम्हारी पूजा करती हो, उसके घर में मत घुसना ।’ इतना कहकर दु:सह रसातल में चले गये ।
ज्येष्ठा वहीं बैठी हुई थी कि लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु वहां आ गये । ज्येष्ठा ने भगवान विष्णु से कहा - ‘मेरे पति रसातल चले गये हैं, मैं अब अनाथ हो गयी हूं, मेरी जीविका का प्रबंध कर दीजिये ।’ भगवान विष्णु ने कहा - ‘ज्येष्ठे ! जो माता पार्वती, शंकर और मेरे भक्तों की निंदा करते हैं, उनके सारे धन पर तुम्हारा ही अधिकार है । उनका तुम अच्छी तरह उपभोग करो । जो लोग भगवान शंकर की निंदा कर मेरी पूजा करते हैं, ऐसे मेरे भक्त अभागे होते हैं, उनके धन पर भी तुम्हारा ही अधिकार है ।’ इस प्रकार ज्येष्ठा को आश्वासन देकर भगवान विष्णु लक्ष्मी सहित अपने निवासस्थान वैकुण्ठ को चले गये ।

सूफी कथा

एक छोटी सी घटना, और मैं अपनी बात पूरी करूं। बुद्ध के पास एक राजकुमार संन्यस्त हुआ। उसका नाम था श्रोण। वह बहुत भोगी आदमी था। भोग में जिंदगी बिताई। फिर त्यागी हो गया, फिर संन्यस्त हो गया। और जब भोगी त्यागी होता है तो अति पर चला जाता है। वह भी चला गया। अगर भिक्षु ठीक रास्ते पर चलते, तो वह आड़े-टेढ़े रास्ते पर चलता। अगर भिक्षु जूता पहनते, तो वह कांटों में चलता। भिक्षु कपड़ा पहनते, तो वह नग्न रहता। भिक्षु एक बार खाना खाते, तो वह दो दिन में एक बार खाना खाता। सूख कर हड्डी हो गया, चमड़ी काली पड़ गई। बड़ा सुंदर युवक था, स्वर्ण जैसी उसकी काया थी। दूर-दूर तक उसके सौंदर्य की ख्याति थी। पहचानना मुश्किल हो गया। पैर में घाव पड़ गये।
बुद्ध छः महीने बाद उसके द्वार पर गये। उसके झोपड़े पर उन्होंने जाकर कहा, ‘श्रोण, एक बात पूछने आया हूं। मैंने सुना है कि जब तू राजकुमार था तब तुझे सितार बजाने का बड़ा शौक था, बड़ा प्रेम था। मैं तुझसे यह पूछने आया हूं कि सितार के तार अगर बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है?’ श्रोण ने कहा, ‘कैसे पैदा होगा? सितार के तार ढीले हों तो संगीत पैदा होगा ही नहीं।’ बुद्ध ने कहा, ‘और अगर तार बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है?’ श्रोण ने कहा, ‘आप भी कैसी बात पूछते हैं! अगर बहुत कसे हों तो टूट ही जायेंगे।’ तो बुद्ध ने कहा, ‘तू मुझे बता, कैसी स्थिति में संगीत श्रेष्ठतम पैदा होगा?’ श्रोण ने कहा, ‘एक ऐसी स्थिति है तारों की, जब न तो हम कह सकते हैं कि वे बहुत ढीले हैं और न कह सकते हैं कि बहुत कसे हैं; वही समस्थिति है। वहीं संगीत पैदा होता है।’
बुद्ध उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा, ‘यही मैं तुझसे कहने आया था, कि जीवन भी एक वीणा की भांति है। तारों को न तो बहुत कस लेना, नहीं तो संगीत टूट जायेगा। न बहुत ढीला छोड़ देना, नहीं तो संगीत पैदा ही न होगा। और दोनों के मध्य एक स्थिति है, जहां न तो त्याग है और न भोग; जहां न तो पक्ष है न विपक्ष; जहां न तो कुआं है न खाई; जहां हम ठीक मध्य में हैं। वहां जीवन का परम-संगीत पैदा होता है।’
यह सूफी कथा भी उसी परम संगीत के लिए है। न तो नियमों को तोड़ कर उच्छृंखल हो जाना और न नियमों को मान कर गुलाम हो जाना। दोनों के मध्य नाजुक है रास्ता। इसलिए फकीरों ने कहा है: खड्ग की धार है। इतना बारीक है, जैसे तलवार की धार हो। मगर अगर समझ हो, तो वह पतला सा रास्ता राजपथ हो जाता है।

Sunday, 28 February 2016

चैतन्य महाप्रभु, वाल्मीकि और शंकराचार्य के आविर्भाव की कथा


देवगुरु बृहस्पति ने कहा - देवेंद्र ! प्राचीन काल में किसी समय वेदपारंगत विष्णुशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे । वे प्रसन्नचित्त से सर्वदेवमय विष्णु की पूजा करते थे, इसलिए देवतालोक भी उनकी प्रतिष्ठा करते थे, इसलिए देवतालोग भी उनकी प्रतिष्ठा करते थे । वे भिक्षावृत्ति से जीवननिर्वाह करते थे, उनकी स्त्री थी किंतु कोई पुत्र न था । एक समय उनके घर पर कोई अतिथि आया । दयालु हृदय उस महात्मा ने विष्णु शर्मा की स्त्री की आर्थिक स्थिति तथा नम्रता देख उसे तीन दिनों के लिए पारसमणि दी और कहा कि इसके स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है । इतने दिनों में मैं सरयू में स्नान कर तुम्हारे पास लौट आऊंगा । उसके जाने पर ब्राह्मणी ने उस मणि से पर्याप्त सोना तैयार कर लिया । तब तक विण्णु शर्मा भी आ गये । उन्होंने अपार सुवर्ण राशि से संपन्न अपनी पत्नी को देखकर कहा - ‘जहां वह पारसमणिका स्वामी गया है, तुम भी वहीं चली जाओ । मैं अकिंचन हूं, विष्णुभक्त हूं । चोर - डाकुओं के भय से धन का संग्रह नहीं करता ।’ इस पर उनकी पतिव्रता पत्नी डर गयी और पारसमणि उसे समर्पित कर पुन: उनकी सेवा में तत्पर हो गयी । ब्राह्मण विष्णुशर्मा ने उस सारे धन एवं पारस को घर्घरा - सरयू नदी में फेंक दिया । तीन दिनों के बाद उस अतिथि ने आकर ब्राह्मणी से पूछा कि क्या तुमने पारसमणि से सोना नहीं बनाया ? उसने कहा - ‘मेरे पति ने उसे क्रोधपूर्वक ग्रहणकर घाघरा में फेंक दिया । उस दिन से मैं जिस किसी प्रकार लोहे के बर्तनों के अभाव में आग में ही भोजन बना रही हूं ।’
यह सुनकर वह यति आश्चर्यचकित हो गया । दिनभर वहीं रुका रहा । संध्यासमय ब्राह्मण के आने पर उसने रुक्षस्वर में कहा - ‘ब्राह्मण ! तुम दैवद्वारा मोहित प्रतीत होते हो, क्योंकि तुम दरिद्र भी हो और धन भी संग्रह नहीं करना चाहते हो । अत: मेरा पारस शीघ्र ही लौटा दो, नहीं तो मैं अपना प्राण त्याग दूंगा ।’ यति के इस प्रकार कहने पर विष्णु शर्मा ने कहा - ‘तुम घाघरा के किनारे जाओ, वहीं तुम्हारा पारस मिल जाएंगा ।’ यह कहकर यति के साथ वहां जाकर उसने बहुत से कंटकों से ढके अनेक पारसमणियों को उसे दिखाया । उस यति ने ब्राह्मण को नमस्कार कर नम्रतापूर्वक कहा - ‘मैंने बारह वर्षों तक भलीभांति शिव की आराधना की, तब मैंने इस शुभ रत्न को प्राप्त किया । विप्रश्रेष्ठ ! आपके दर्शनमात्र से ही मुझ लोभात्मा ने आज अनेकों पारसमणियों को प्राप्त कर लिया ।’ यह कहकर उससे शुभ ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया । इधर विष्णु शर्मा ने एक हजार वर्षों तक पृथ्वी पर रहकर सूर्य की आराधना करके विष्णु लोक को प्राप्त किया । वे ही विष्णुशर्मा वैष्णव तेज धारणकर फाल्गुन के महीने में तीनों लोकों में तप रहे हैं और देवकार्य सिद्ध कर रहे हैं ।
देवेंद्र ! फाल्गुन मास में उन सूर्य की आराधना कर तुम भी सुक प्राप्त करो । उन्होंने देवताओं के साथ ऐसा ही किया । प्रसन्न हो भगवान सूर्य सूर्यमण्डल से प्रकट होकर सभी देवताओं के देखते - देखते इंद्र के शरीर में प्रविष्ट हो गये । उस तेज से इंद्र ने अपना शरीर अयोनिज विप्ररूप में धारण किया और शचीदेवी भी पृथ्वी में ब्राह्मणी के रूप में अवतीर्ण हुईं । एक वर्ष के बाद शचीदेवी के गर्भ से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में गुरुवार को द्वादशी तिथि में ब्राह्मवेला में एक दिव्य बालक का जन्म हुआ । जो वास्तव में भगवान विष्णु के कलावतार थे । उस समय रुद्र, वसु, विश्वेदेव, मरुद्गण, साध्य, सिद्ध तथा भास्कर आदि देवों ने उस सनातन हरिरूप बालक की दिव्य स्तुति की और कलियुग में दितिपुत्रों द्वारा पीड़ित देवताओं तथा अधर्म से दु:खी पृथ्वी का उद्घार करने के लिए प्रार्थना की । यहीं आगे चलकर श्रीकृष्णचैतन्य के नाम से विख्यात हुए ।
सूतजी बोले - मुने ! स्तुति के अनन्तर सभी देवगण बृहस्पति के पास आकर कहने लगे - महाभाग ! हम सभी रुद्रगण, ये वसुगण तथा अश्विनीकुमार पृथ्वी पर किस किस अंशरूप में अवतरित होंगे, इसे आप बतलाने की कृपा करें ।
बृहस्पति ने कहा - देवगणों ! इस विषय में आप लोगों को मैं एक दूसरी बात बता रहा हूं - प्राचीन काल में मृगव्याध नाम का एक अधम ब्राह्मण था । वह मार्ग में सदा धनुर्बाण धारणकर विप्रों की हिंसा किया करता था । वह महामूर्ख ब्राह्मणों को मारकर उनके यज्ञोपवीतों को ग्रहणकर उत्साहपूर्वक शोर मचाता था । वह दुष्ट द्विजाधम तीनों वर्णों को, विशेषकर ब्राह्मणों को मारता था । उस समय ब्राह्मणों का विनाश देखकर देवगण भयभीत हो ब्रह्मा के पास आये और सभी बातें उन्हें बतायीं । यह सुनकर दु:खी हो ब्रह्मा ने सभी लोकों में गमन करनेवाले सप्तर्षियों से कहा - ‘द्विजोत्तमो ! आप सभी वहां जाकर मृगव्याध को समझायें ।’ यह सुनकर वसिष्छ आदि ऋषियों के साथ मरीचि मृगव्याध के वन में गये । धुनर्बाणधारी महाबली मृगव्याध ने उन लोगों को देखकर भयंकर वचन कहा - ‘आज मैं तुमलोगों को मारूंगा ।’ मरीचि आदि ने हंसकर कहा - ‘तुम हमलोगों को क्यों मारोगे ? कुल क् लिए मारोगे या अपने लिए, यह शीघ्र बताओ ।’ यह सुनकर उस मृगव्याध ने कहा - ‘मैं अपने कुल के लिए और अपने कल्याण के लिए (तुमलोगों को) मारूंगा ।’
यह सुनकर उन लोगों ने कहा - ‘धनुर्धर ! अपने घर में यह पूछकर शीघ्र आओ कि विप्रहत्या से किये गये पापों को कौन भोगेगा ? यह विचार करो ।’ यह सुनकर उस घोरात्मा ने अपने कुलवालों से पूछा - ‘आजतक मैंने जो पाप अर्जित किया है, उसे तुमलोग भी वैसे ही ग्रहण करो, जैसे धन को ग्रहण किया है ।’ उस अधम ब्राह्मण के इस वचन को सुनकर उसके कुटुंबियों ने कहा - ‘हमलोग तुम्हारे किये गये पाप को ग्रहण नहीं करेंगे, क्योंकि यह भूमि और ये सूर्य साक्षी हैं, हमलोगों ने कोई पाप नहीं किया है ।’ यह सुनकर उस मृगव्याध ने मुनियों के पास जाकर हाथ जोड़कर कहा - ‘महात्माओ ! जिस प्रकार मेरे पापों का क्षय हो, आपलोग वैसा उपाय बतायें ।’ मृगव्याध के यह कहने पर ऋषियों ने कहा - ‘एक उत्तम मंत्र है, उसे सुनो - वह है ‘राम का नाम ।’ यह सभी प्रकार के पापों को दूर करने वाला है । अब हमलोग जा रहे हैं, जबतक वापस तुम्हारे पास न आ जाएं, तबतक तुम इस महामंत्र अर्थात् राम नाम का जप करो ।’ यह कहकर मुनिगण तीर्थान्तरों में भ्रमण करने चले गये और वह मूर्ख व्याध विप्र ‘मरा मरा’ का हजार वर्ष तक निरंतर जप करता रहा । उसके जप के प्रभाव से वह अरण्य उत्पलों (कमलों) से परिव्याप्त हो गया और तभी से वह स्थान पृथ्वी पर उत्पलारम्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
अनन्तर सप्तर्षि वाल्मीकि बने उस मृगव्याध के पास आये और उसकी मिट्टी हटाकर उसको शुद्ध विप्रके रूप में देखकर आश्चर्यचकित होकर कहने लगे - ‘वाल्मीक से निकलने के कारण तुम वाल्मीकि कहे जाओगे । त्रिकालज्ञ महामति हे विप्र ! तुम इसी नाम से प्रसिद्ध होओगे ।’ यह कहकर वे सप्तर्षि अपने अपने स्थानपर चले गये । वाल्मीकिमुनि ने अष्टादश कल्पसमंवित शतकोटिवस्तृत तथा सभी पापों का विनाशक निर्मल पद्यबंध रामायण का निर्माण किया । अनन्तर वे शिव होकर वहीं निवास करने लगे । देवगणों ! हर को प्रिय लगनेवाले उस मृगव्याप्त शिव के चरित्र को आप लोग सुनें ।
वैवस्वत मन्वन्तर के आद्य सत्ययुग में ब्रह्मा ने उत्पलारण्य में आकर एक यज्ञ किया । उस समय वहां पर सरस्वती देवी नदी होकर आ गयीं । अनन्तर ब्रह्मा ने अपने मुख से कल्याणकारी ब्राह्मणों, बाहुओं से क्षत्रियों, ऊरु से उत्तम वैश्यों और पैरों से शुभाचारसंपन्न शूद्रों को उत्पन्न किया । द्विजराज सोम (चंद्रमा), सूर्य, तेज वीर्य की रक्षा करनेवाले कश्यप, मरीचि, रत्नाकर अर्थात् समुद्र एवं प्रजापति आदि को भी उत्पन्न किया । दक्ष के मन से अनेक कन्याएं उत्पन्न हुईं । विष्णुमाया के प्रभाव से वे कलाओं के रूप में पृथ्वी पर स्थित हुईं । भगवान ब्रह्मा ने अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र लोक की अभिवृद्धि के लिये सोम को तथा तेरह अदिति आदि कन्याएं कश्यप को और कीर्ति आदि कन्याएं धर्म को प्रदान कीं । उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर में अनेक सृष्टियां कीं । ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार पृथ्वी पर दक्ष उन लोगों के प्रजापति हुए । यज्ञ में तत्पर दक्ष प्रजापति ने स्वयं वहां निवास किया । सभी देवगण दक्ष को नमस्कार कर वहां विचरण करते थे, किंतु भूतनाथ महादेव ने कभी उनको नमस्कार नहीं किया । इससे क्रुद्ध होकर दक्ष ने यज्ञ में उन्हें भाग नहीं दिया ।
मृगव्याध शिव क्रुद्ध होकर वीरभद्र के रूप में प्रकट हो गये । उनके साथ त्रिशिरा, त्रिनेत्र और त्रिपद शिवगण भी वहां आये । वीरभद्र आदि के द्वारा देव, मुनिगण और पितृगण पीड़ित होने लगे । उस समय यज्ञपुरुष भयभीत हो मृग होकर शीघ्रता से भागने लगा । तब शिव ने व्याधरूप को धारण किया । रुद्ररूपी व्याध के द्वारा वह मृग छिन्न भिन्न अंगवाला हो गया । तब भगवान ब्रह्मा ने मधुर स्तुतियों से रुद्रव्याध को संतुष्ट किया । संतुष्ट मृगव्याध ने दक्ष के यज्ञ को पूर्ण कराया । तुलाराशि में सूर्य के आनेपर उस रुद्र को सत्ताईस नक्षत्रवाले चंद्रमण्डल में स्थापित कर स्वयं ब्रह्मा सत्यलोक को चले गये और रुद्र चंद्र के समान रूपवान हो गये । वीरभद्र रुद्र ने यह सुनकर प्रसन्नचित्त हो अपने शरीर से एक तेज को उत्पन्न कर भैरवदत्त नामक विप्रके घर में भेजा । घोर कलियुग में वहीं शिव शंकर (शंकराचार्य) नाम से उसके पुत्ररूप में अवतरित हुए । वह बालक गुणवान, सकल शास्त्रवेत्ता एवं ब्रह्मचारी हुआ । उसने शांकरभाष्य की रचना कर शैवमत को प्रतिष्ठित किया और त्रिपुण्ड्र, अक्ष (रुद्राक्ष) माला और पञ्चाक्षर मंत्र प्रदान किया ।

शिव और सती


सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ।।
भगवान शिव और माता सती देवी की असीम महिमा बड़े ही सुंदर ढंग से प्रतिपादित की है । भगवान शिव के लिए है क्योंकि संसार में सब धर्मों का सार, सब तत्त्वों का निचोड़ भगवत्प्रेम ही निश्चय किया गया है । भगवान परब्रह्म में दृढ़ निष्ठा का हो जाना ही परम विशिष्ट धर्म है और भगवान शिव ने तो अपने अनुभव से इसी को सार समझकर जगत को नि:सार निश्चित कर लिया था । इसी प्रेम प्रभाव की महिमा से सती ऐसी नारी में भी उनकी आसक्ति न थी । जिस समय त्रेतायुग में कुंभज ऋषि के आश्रम से वे सती के साथ कैलाश को लौट रहे थे, उसी समय सीता हरण के कारण पत्नीवियोग में दु:खित मानव लीला करते हुए श्रीरघुनाथ जी उन्हें दर्शन हुआ और उन्होंने ‘जय सच्चिदानंद परधामा’ कहकर उनको प्रणाम किया । इस परसती को यह संदेह हुआ कि नृपसुत को ‘सच्चिदानंद परधामा’ कहकर सर्वज्ञ शिव ने क्यों प्रणाम किया । भगवान शिव ने सती को भगवत अवतार की बात अनेक प्रकार से समझायी, परंतु उन्हें बोध न हुआ ।
शिव जी ने अपने हृदय में ध्यान धरकर देखा कि ‘इसमें हरिमाया की प्रेरणा हो रही है, क्योंकि जब प्रभु की जो इच्छा है उसी में सती को प्रेरित कर देना हमारा भी धर्म है ।’ भगवान शिव के विषय में यह प्रमाण है कि जिस भावी में हरि की इच्छा शामिल है उसे हृदय में विचार कर भगवान शिव कदापि उसके मेटने की इच्छा नहीं करते बल्कि वैसा ही होने में आप भी सहायक हो जाते हैं । सच है, सुजान भक्तों की भक्ति का इसी से परिचय मिलता है ।
वस्तुत: बात भी यहीं है, भगवान शिव तथा श्रीवसिष्ठ जी को भावी के मेटने की सामर्थ्य भी तो रामभक्ति के प्रताप से ही मिली थी । श्रीमहादेव अथवा मुनि वसिष्ठ जी अपने देवपन या मुनिपन के बल से विधि - अंकों के मिटाने की सामर्थ्य तो रखते नहीं थे । यह अघटित - घटन की सामर्थ्य भगवान की दया से और भगवद् भक्ति के प्रताप से भक्तों को ही हो सकती है । अत: उन भक्तों का यह सिद्धांत रहता है कि ‘हम तो तुम्हारी खुशी में खुश हैं, और कुछ नहीं चाहते’ - राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है !
सती को परीक्षा लेने का आदेश करते समय भगवान शिव ने इतना चेता दिया था - ‘करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी’; परंतु सती ने परीक्षा लेने के लिए श्रीसीता जी का ही वेष धारण किया, जिसमें शिव जी ने अपनी स्वामिनी और माता की दृढ़ निष्ठा कर रखी थी । भगवान भक्तवत्सल ने उनकी बुद्धि में प्रेरणा की कि सदा के लिए त्याग की जरूरत नहीं है । केवल इसी जन्म में सती को त्याग करना संकल्प ठीक है, जिसमें उन्होंने सीता का वेश धारण किया है । अतएव ऐसा ही संकल्प भगवान शिव ने किया, जिससे दोनों काम हो गये, न तो सदा के लिए सती का त्याग करना पड़ा और न उस शरीर से प्रीति ही रखी गयी ।
भगवान शिव के इस रहस्य से यह उपदेश मिलता है कि जब कोई धर्मसंकट आ पड़े तो सच्चे हृदय से हरि स्मरण करने से ही उसके निर्वाह की राह निकल आयेगी । अतएव जब केवल एक जन्म के लिए सती का त्याग हो गया, तब सती को अपनी करनी पर अत्यंत पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने भी उन्हीं परमप्रभु श्रीरघुनाथ जी की हृदय से प्रतिपत्ति ली और कहा - हे दीनदयाल !! मेरा यह शरीर शीघ्र छूट जाये, जिससे मैं दु:ख सागर को पार कर पुन: भगवान शिव जी को प्राप्त कर सकूं ।
भगवत्कृपा से योग लग गया और अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाकर योगानल से शरीर को त्यागकर सती ने हिमाचल के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म धारण कर भगवान शिव को पुन: पतिरूप में प्राप्त कर लिया ।

Saturday, 27 February 2016

सृष्टि तथा सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल लोकों का वर्णन


श्रीसूत जी बोले - मुनियो ! अब मैं कल्प के अनुसार सैकड़ों मन्वंतरों के अनुगत ईश्वर संबंधी कालचक्र का वर्णन करता हूं । सृष्टि के पूर्व यह सब अप्रतिज्ञात स्वरूप था । उस समय परम कारण, व्यापक एकमात्र रुद्र ही अवस्थित थे । सर्वव्यापक भगवान ने आत्मस्वरूप में स्थित होकर सर्वप्रथम मन की सृष्टि की । फिर अंहकार की सृष्टि की । उससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध नामक पञ्चतन्मात्रा तथा पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति की । इनमें से आठ प्रकृति हैं (अर्थात् दूसरे को उत्पन्न करनेवाली हैं) - प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श की तन्मात्राएं । पांच महाभूत, पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और मन - ये सोलह इनकी विकृतियां हैं । ये किसी की भी प्रकृति नहीं हैं, क्योंकि इनसे किसी की उत्पत्ति नहीं होती । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध - ये पांच ज्ञानेंद्रियों के विषय हैं । कान का शब्द, त्वक् का स्पर्श, चक्षु का रूप, जिह्वा का रस, नासिका का गंध है । प्राण, अपान, समान, उदान, और व्यान के भेद से वायु के पांच प्रकार हैं । सत्त्व, रज और तम - ये तीन गुण कहे गये हैं । प्रकृति त्रिगुणात्मिका है और उससे उत्पन्न सारा चराचर विश्व भी त्रिगुणात्मक है । उस भगवान वासुदेव के तेज से ब्रह्मा, विष्णु और शंभु का आविर्भाव हुआ है । वासुदेव अशरीरी, अजन्मा तथा अयोनिज हैं । उनसे परे कुछ भी नहीं है । वे प्रत्येक कल्प में जगत और प्राणियों की सृष्टि एवं उपसंहार भी करते हैं ।
बहत्तर युगों का मन्वंतर का एक कल्प होता है । यह कल्प ब्रह्मा का एक दिन और रात है । भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक और ब्रह्मलोक - ये सात लोक कहे गये हैं । पाताल, वितल, अतल, तल, तलातल, सुतल और रसातल - ये सात पाताल हैं । इनके आदि, मध्य और अंत में रुद्र रहते हैं । महेश्वर लीला के लिए संसार को उत्पन्न करते हैं और संहार भी करते हैं । ब्रह्मप्राप्ति की इच्छा करने वाले की ऊर्ध्वगति कही गयी है ।
ऋषि सर्वदर्शी (परमात्मा) ने सर्वप्रथम प्रकृति की सृष्टि की । उस प्रकृति से विष्णु के साथ ब्रह्मा उत्पन्न हुए । द्विजश्रेष्ठों ! इसके बाद बुद्धि से नैमित्ति की सृष्टि उत्पन्न हुई । इस सृष्टिक्रम में स्वयंभुव ब्रह्मा ने स्रवप्रथम ब्राह्मणों को उत्पन्न किया । अनंतर क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र की सृष्टि की । पृथ्वी, अंतरिक्ष और दिशाओं की कल्पना की । लोकालोक, द्वीपों, नदियों, सागरों, तीर्थों, देवस्थानों, मेघगर्जनों, इंद्रधनुषों, उल्कापातों, केतुओं तथा विद्युत आदि को उत्पन्न किया । यथासमय ये सभी उसी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं । ध्रुव से ऊपर एक करोड़ योजन विस्तृत महर्लोक है । ब्राह्मण - श्रेष्ठ वहां कल्पान्तपर्यन्त रहते हैं । महर्लोक से ऊपर दो करोड़ योजन विस्तृत जनलोक है, वहां ब्रह्मा के पुत्र सनकादि रहते हैं । महर्लोक से ऊपर दो करोड़ योजनवाला तपोलोक है, वहां तापत्रयरहित देवगण रगते हैं । तपोलोक से ऊपर छ: करोड़ योजन विस्तृत सत्यलोक है, जहां भृगु, वस्ष्ठ, अत्रि, दक्ष, मरीचि आदि प्रजापतियों का निवास है । जहां सनत्कुमार आदि सिद्ध योगिगण निवास करते हैं, वह ब्रह्मलोक कहा जाता है । उस लोक में विश्वात्मा विश्वतोमुख गुरु ब्रह्मा रहते हैं । आस्तिक ब्रह्मवादी, यतिगण, योगी, तापस, सिद्ध तथा जापक उन परमेष्ठी ब्रह्मा जी की गाथा का गान इस प्रकार करते हैं -
‘परमपद की प्राप्ति की इच्छा करनेवाले योगियों का द्वार यहीं परमपद लोक है । वहां जाकर किसी प्रकार का शोक नहीं होता । वहां जाकर किसी प्रकार का शोक नहीं होता । वहां जानेवाला विष्णु एवं शंकरस्वरूप हो जाता है । करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान यह स्थान बड़े कष्ट से प्राप्त होता है । ज्वालामालाओं से परिव्याप्त इस पुर का वर्णन नहीं किया जा सकता ।’
इस ब्रह्मधाम में नारायण का भी भवन है । माया सहचर परात्पर श्रीमान हरि यहां शयन करते हैं । इसे ही पुनरावृत्ति से रहति विष्णुलोक भी कहा जाता है । यहां आने पर कोई भी लौटकर नहीं जाता । भगवान के प्रपन्न महात्मागण ही जनार्दन को प्राप्त करते हैं । ब्रह्मासन से ऊर्ध्व परम ज्योतिर्मय शुभ स्थान है । उसके ऊपर वह्नि परिव्याप्त है, वहीं पार्वती के साथ भगवान शिव विराजमान रहते हैं । सैकड़ों - हजारों विद्वान और मनीषियों द्वारा वे चिन्त्यमान होकर प्रतिष्ठित रहते हैं । वहां नियत ब्रह्मवादी द्विजगण ही जाते हैं । महादेव में सतत ध्यानरत, तापस, ब्रह्मवादी, अहंता - ममता के अध्याय से रहित, काम - क्रोध से शून्य, ब्रह्मत्व - समन्वित ब्राह्मण ही उनको देख सकते हैं - वहीं रुद्रलोक है । ये सातों महालोक कहे गये हैं ।
द्विजगणों ! पृथ्वी के नीचे महातल आदि पाताल लोक हैं । महातल नामक पाताल स्वर्णमय तथा सभी वर्णों से अलंकृत है । वह विविध प्रासादों और शुभ देवालयों से समन्वित है । वहां पर भगवान अनन्त , बुद्धिमान मुचुकुन्द तथा बलि भी निवास करते हैं । भगवान शंकर से सुशोभित रसातल शैलमय है । सुतल पीतवर्ण और वितल मूंगे की कान्तिवाला है । वितल श्वेत और तल कृष्णवर्ण है । यहां वासुकि रहते हैं । कालनेमि वैनतेय, नमुचि, शंकरकर्ण तथा विविध नाग भी यहां निवास करते हैं । इनके नीचे रौरव आदि अनेकों नरक हैं, उसमें पापियों को गिराया जाता है । पातालों के नीचे शेष नामक वैष्णवी शरीर है । वहां कालाग्नि रुद्रस्वरूप नरसिंह भगवान लक्ष्मीपति भगवान विष्णु नागरूपी अनन्त के नाम से प्रसिद्ध हैं 

सुख - दुख क्या है ?


जीवन में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिए प्रयत्न करता है परंतु सुख से पूर्व दुख क्यों आता है ? वास्तविकता में दुख तो है ही नहीं । जो मन के अनुकूल होता है वह सुख है और जो मन के प्रतिकूल होता है वह दुख लगता है । अत: सुख और दुख मन:स्थिति है ।
ये संसार परमात्मा का है । संसार में हम सब परमात्मा के अंश है । अत: भगवान हमारे हैं । अपने भगवान के संसार में सब कुछ प्रभु का है, 'मेरा' कुछ भी नहीं है । किसी भी व्यक्ति या वस्तु से 'मेरा' संबंध कटते ही दुख कटता है और सुख आ जाता है ।
शिक्षा - हमारे भगवान का संसार दुख रूप तो हो ही नहीं सकता । भगवान कभी दर्द तो दे ही नहीं सकते । वे तो सच्चिदानंद हैं, आनंदमय हैं, सबको आनंद ही आनंद देते है और चेतन ही आनंद उठाता है । अत: अपने को चेतन बनाना है । अपने तार भगवान से जोड़ने से ही भगवान से संबंध जुड़ जाता है और आनंद का लाभ उठाया जा सकता है । सत्संग के अभाव में अथवा बुद्धि की अपरिपक्वता में व्यक्ति जिद्दी हो जाता है और कहने लगता है कि "मैं जो कहता हूं वही सत्य है, अपितु होना यह चाहिए कि जो सत्य है वही मैं कहता हूं ।" हम सत्य की संतान हैं । अत: सत्य का पालन करें 

भीष्मपितामह - आदर्श चरित्र


भक्तराज भीष्मपितामह महाराज शांतनु के औरस पुत्र थे और गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । वसिष्ठ ऋषि के शाप से आठों वसुओं ने मनुष्योनि में अवतार लिया था, जिनमें सात को तो गंगा जी ने जन्मते ही जल के प्रवाह में बहाकर शाप से छुड़ा दिया । ‘द्यौ’ नामक वसु के अंशावतार भीष्म को राजा शांतनु ने रख लिया । गंगादेवी पुत्र को उसके पिता के पास छोड़कर चली गयी । बालक का नाम देवव्रत रखा गया था ।
दास के द्वारा पालित हुई सत्यवती पर मोहित हुए धर्मशील राजा शांतनु को विषादयुक्त देखकर युक्ति से देवव्रत ने मंत्रियों द्वारा पिता के दु:ख का कारण जान लिया और पिता की प्रसन्नता के लिए सत्यवती के धर्मपिता दास के पास जाकर उसके इच्छानुसार ‘राजसिंहासन पर न बैठने और आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की कठिन प्रतिज्ञा करके पिता का सत्यवती के साथ विवाह करवा दिया । पितृभक्ति से प्रेरित होकर देवव्रत ने अपना जन्मसिद्ध राज्याधिकार छोड़कर सदा के लिए स्त्रीसुख का भी परित्याग कर दिया, इसलिए देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्पवृष्टि करते हुए देवव्रत का नाम भीष्म रखा । पुत्र का ऐसा त्याग देखकर राजा शांतनु ने भीष्म को वरदान दिया कि ‘तू जबतक जीना चाहेगा तब तक मृत्यु तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकेगी, तेरी इच्छामृत्यु होगी ।’ निष्काम पितृभक्त और आजीवन अस्खलित ब्रह्मचारी के लिए ऐसा होना कौन बड़ी बात है ? कहना नहीं होगा कि भीष्म ने आजीवन प्रतिज्ञा का पालन किया । भीष्म जी बड़े ही बीर योद्धा थे और उनमें क्षत्रियों के सब गुण मौजूद थे । अर्थात् ‘वीरता, तेज, धैर्य, कुशलता, युद्ध से कभी न हटाना, दान और ऐश्वर्यभाव - ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं ।’
भीष्म ने दुर्योधन की अनीति देखकर उसे कई बार मीठे - कड़े शब्दों में समझाया था, पर वह नहीं समझा और जब युद्ध का समय आया तब पाण्डवों की ओर मन होने पर भी भीष्म ने बुरे समय में आश्रयदाता की सहायता करना धर्म समझकर कौरवों के सेनापति बनकर पाण्डवों से युद्ध किया । वृद्ध होने पर भी उन्होंने दस दिन तक तरुण योद्धा की तरह लड़कर रणभूमि में अनेक बड़े बड़े वीरों को सदा के लिए सुला दिया और अनेक को घायल किया । कौरवों की रक्षा असल में भीष्म के कारण ही कुछ दिनों तक हुई । महाभारत के अठारह दिनों के सारे संग्राम में दस दिनों का युद्ध अकेले भीष्म जी के सेनापतित्व में हुआ, शेष आठ दिनों में कई सेनापति बदले । इतना होने पर भी भीष्म जी पाण्डवों के पक्ष में सत्य देखकर उनका मंगल चाहते और यह मानते थे कि अंत में जीत पाण्डवों की होगी ।
श्रीकृष्णमहाराज को साक्षात् भगवान के रूप में सबसे पहले भीष्म जी ने ही पहचाना था । धर्मराज के राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर के यह पूछने पर कि ‘अग्रपूजा’ किसकी होनी चाहिए, भीष्म जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ‘तेज, बल, पराक्रम तथा अन्य सभी गुणों में श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पूजा पाने योग्य हैं ।’
महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा करके सम्मिलित हुए थे । वे अपनी भक्तवत्सलता के कारण सखा भक्त अर्जुन का रथ हांकने का काम कर रहे थे । बीच ही में एक दिन किसी कारणवश भीष्म ने यह प्रण कर लिया, ‘भगवान को शस्त्र ग्रहण करवा दूंगा ।’
भीष्म ने यही किया । भगवान को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी । जगत्पति पीतांबरधारी वासुदेव श्रीकृष्ण बार बार सिंहनाद करते हुए हाथ में रथ का टूटा चक्का लेकर भीष्म जी की ओर ऐसे दौड़े जैसे वनराज सिंह गरजते हुए विशाल गजराज की ओर दौड़ता है । भगवान का पीला दुपट्टा कंधे से गिर पड़ा । पृथ्वी कांपने लगी । सेना में चारों ओर से ‘भीष्म मारे गये’ , ‘भीष्म मारे गये’ की आवाज आने लगी, परंतु इस समय भीष्म को जो असीम आनंद था उसका वर्णन करना सामर्थ्य के बाहर की बात है । भगवान की भक्त वत्सलता पर मुग्ध हुए भीष्म उनका स्वागत करते हुए बोले -
अर्थात् ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! आओ, आओ ! हे देवदेव !! तुमको मेरा नमस्कार है । तुम्हारे हाथ से युद्ध में मरने पर मेरा अवश्य ही सब प्रकार से परम कल्याण हो जाेंगा । मैं आज त्रैलोक्य में सम्मानित हूं ! मुझपर तुम युद्ध में इच्छानुसार प्रहार करो, मैं तुम्हारा दास हूं ।’ अर्जुन ने पीछे से दौड़कर भगवान के पैर पकड़ लिये और उन्हें लौटाया । भगवान तो अपने भक्त की प्रतिज्ञा सत्य करने का दौड़े थे, भीष्म का वध तो अर्जुन के हाथ से ही होना था !
अंत में शिखण्डी के सामने बाण न चलाने के कारण अर्जुन के बाणों से बिंधकर भीष्म शरशय्या पर गिर पड़े । भीष्म वीरोचित शरशय्यापर सोये थे, उनके सारे शरीर में बाण बिंधे थे केवल सिर नीचे लटकता था । उन्होंने तकिया मांगा, दुर्योधनादि नरम नरम तकिया लाने लगे । भीष्म ने अंत में अर्जुन से कहा - ‘वत्स ! मेरे योग्य तकिया दो ।’ अर्जुन ने शोक रोककर तीन बाण उनके मस्तक के नीचे इस तरह मारे कि सिर तो ऊंचा उठ गया और वे बाण तकिया का काम देने लगे । इससे भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि -
अर्थात् ‘हे पुत्र अर्जुन ! तुमने मेरी रणशय्या के योग्य ही तकिया देकर मुझे प्रसन्न कर लिया । यदि तुम मेरी बात न समझकर दूसरा तकिया देते तो मैं नाराज होकर तुम्हें शाप दे देता । क्षात्र - धर्म में दृढ़ रहने वाले क्षत्रियों को रणांगण में प्राण - त्याग करने के लिए इसी प्रकार की बाणशय्या पर सोना चाहिए ।’
भीष्म जी शरशय्या पर बाणों से घायल पड़े थे, यह देखकर अनेक कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये कि वे बाण निकालकर मरहम पट्टी करके घावों को ठीक करें, पर अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण को सामने देखते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा में वीरशय्यापर शांति से सोये हुए भीष्म जी ने कुछ भी इलाज न कराकर उन्हें सम्मानपूर्वक लौटा दिया । धन्य वीरता और धन्य धीरता ।
जिस प्रकार अटल और दृढ़ होकर भीष्म जी ने आजन्म अपने सत्य, धर्म और प्रतिज्ञा का पालन किया, वह कभी भूलने वाली बात नहीं है । ऐसे अद्वितीय वीर का सम्मान करने के लिए ऋषियों ने नित्य तर्पण में भी भीष्मपितामह के लिए जलांजलि देने का इस प्रकार विधान किया कि - तर्पण में क्षत्रिय ही नहीं, ब्राह्मण भी भीष्मपितामह को जलांजलि देते हैं । वास्तव में यह तर्पण करना भीष्मपितामह की ओर भारत के लोगों का सदा के लिए याद बनाये रखना है ।

तृष्णा के त्याग से इतना सुख प्राप्त होता है कि इसके एक अंश की बराबरी कामसुख या स्वर्गसुख नहीं कर सकता ।’

राजा नहुष की छ: संतानों में से महाराज ययाति दूसरी संतान थे । इनके बड़े भाई का नाम यति था । वे बचपन से निवृत्तिमार्ग में अग्रसर होकर ‘ब्रह्म’ स्वरूप हो गये, अत: कोसलदेश का शासन ययाति के हाथों में आया । ये बहुत शूर वीर थे । अपने पराक्रम से आगे चलकर ये सम्राट हो गये थे । ये युद्ध में देवताओं, दानवों और मनुष्यों के लिए दुर्धर्ष थे । ये परमात्मा के भक्त, पुण्यात्मा और धर्मनिष्ठ थे । ये अपने पास क्रोध को फटकने नहीं देते थे । सभी प्राणियों पर इनकी अनुकंपा बरसती रहती थी । इन्होंने अगणित यज्ञ याग किये थे ।
महर्षि शुक्राचार्य की कन्या देवयानी इनकी पत्नी थी । दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी दासियों के साथ देवयानी की दासी बनकर साथ आयी थी । आगे चलकर राजा ययाति ने चुपके से शर्मिष्ठा को भी अपनी पत्नी बना लिया था । देवयानी को इस रहस्य का तब पता चला, जब इसने शर्मिष्ठा के तीनों लड़कों को देखा । इससे क्रुद्ध होकर देवयानी अपने पिता महर्षि शुक्राचार्य के पास चली गयी । पीछे - पीछे ययाति भी वहां जा पहुंचे । अपनी लाडिली पुत्री को दु:खी देखकर शुक्राचार्य को क्रोध हो आया । उन्होंने ययाति को बूढ़ा होने का शाप दे दिया । शाप देते ही महाराज ययाति बूढ़े हो गये । उन्होंने महर्षि की बहुत अनुनय - विनय की । तब शुक्राचार्य ने परिहार बतलाया - ‘यदि तुम्हारे पुत्रों में से कोई तुम्हारा बुढ़ापा लेकर अपनी जवानी दे दे, तब तुम फिर जवान हो सकते हो ।’
महाराज ययाति घर लौट आये । सबसे पहले ये देवयानी के पुत्रों के पैस पहुंचे । देवयानी से इनके दो पुत्र थे - यदु और तुर्वसु । महाराज ने उनसे अलग अलग जवानी की मांग की, परंतु दोनों ने इसे अस्वीकार कर दिया । तब महाराज शर्मिष्ठा के ज्येष्ठ पुत्र अनु के पास गये । अनु ने भी महाराज की मांग अस्वीकार कर दी । शर्मिष्ठा के दूसरे पुत्र द्रुह्युने भी यह मांग ठुकरा दी । अंत में महाराज शर्मिष्ठा के तीसरे पुत्र पुरु के पास गये । पुरु ने अपनी जवानी देकर पिता का बुढ़ापा अपने ऊपर ले लिया । पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र को आशीर्वाद दिया - ‘मेरे साम्राज्य पर तुम्हारा और तुम्हारे वंशजों का ही आधिपत्य होगा ।’
युवावस्था प्राप्त महाराज ययाति विषय भोग में लिप्त हो गये । काम चार पुरुषार्थों में एक है । यह त्याज्य नहीं है, किंतु इसका अतियोग अनुचित है । फलत: महाराज वासनाओं की गहराई में उतरते चले गये । बहुत दिनों के बाद उन्हें अपनी भूल का भान हुआ । भगवान की कृपा से उनकी आंखें खुल गयीं । अब विषय वासनाएं विष प्रतीत होने लगीं । उन्होंने संसार को अपनी जो अनुभूति दी है, वह इस प्रकार है - ‘काम की तृष्णा उपभोग से कभी कम नहीं होती, प्रत्युत और बढ़ती ही चली जाती है । अग्नि में जैसे - जैसे घी डाला जाता है, वैसे वैसे उसकी लपटें बढ़ती जाती हैं, ठीक यहीं दशा विषय भोग की है । पृथ्वी में जितने धन - धान्य, पशु पक्षी और स्त्रियां हैं, वे सब एक पुरुष के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं । इसलिए मनुष्य को भोग की ओर न बढ़कर इंद्रियों का नियंत्रण करना चाहिए । मन को परमात्मा में लगाना चाहिए । विषयभोग मन को परमात्मा की ओर से हटा देता है । सच्चा सुख ब्रह्म की प्राप्ति में ही संभव है । तृष्णा ऐसा भयानक रोग है, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला जाता है । केश, दांत, नख - ये सब जीर्ण हो जाते हैं, किंतु मरते दम तक तृष्णा जीर्ण नहीं होती । इस तृष्णा के त्याग से इतना सुख प्राप्त होता है कि इसके एक अंश की बराबरी कामसुख या स्वर्गसुख नहीं कर सकता ।’

मोक्ष संन्यासिनी गोपियां


कुछ लोग प्रतिदिन सकामोपासना कर मनवाञ्छित फल चाहते हैं, दूसरे कुछ लोग यज्ञादि के द्वारा स्वर्ग की तथा (कर्म और ज्ञान) योग आदि के द्वारा मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, परंतु हमें तो यदुनंदन श्रीकृष्ण के चरणयुगलों के ध्यान में ही सावधानी के साथ लगे रहने की इच्छा है । हमें उत्तम लोक से, दम से, राजा से, स्वर्ग से और मोक्ष से क्या प्रयोजन है ?
सच्चिदानंदनघन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की वृंदावनलीला अति मधुर है, आकर्षण है, अद्भुत है और अनिर्वचनीय है । वहां सभी कुछ विचित्र है, चराचर सभी प्राणी श्रीकृष्ण प्रेम में निमग्न हैं, इनमें भी गोपी प्रेम तो सर्वथा अलौकिक और अचिन्त्य है । वहां वाणी की गति ही नहीं है, मन भी उस प्रेम की कल्पना नहीं कर सकता । करे भी कैसे, उसकी वहां तक पहुंच ही नहीं है । मनुष्य प्रेम की कितनी ही ऊंची से ऊंची कल्पना क्यों न करें, वह उस कल्पनातीत भगवत प्रेम के एक कण के बराबर भी नहीं है । उस गुणातीत अप्राकृत ‘केवल प्रेम की’ कल्पना गुणों से निर्मित प्राकृत मन कर ही कैसे सकता है ? इस अवस्था में सच्चिदानंदघन भगवान श्रीकृष्ण का सच्चिदानंदमयी गोपिका नाम धारिणी अपनी ही छाया - मूर्तियों से जो दिव्य अप्राकृत प्रेम था, उसका वर्णन कौन कर सकता है ? अबतक जितना वर्णन हुआ है, वह प्राय: अपनी अपनी विभिन्न भावनाओं के अनुसार ही हुआ है । इस प्रेम का असली स्वरूप तो यत्किञ्चित उसी के समझमें आ सकता है, जिसको प्रेमघन श्रीकृष्ण समझाना चाहते हैं, पर जो उसे समझ लेता है, वह तत्क्षण गोपी बन जाता है, इसलिए वह फिर उसका वर्णन कर नहीं सकता । वास्तव में वह वर्णन की वस्तु भी नहीं है । श्रीकृष्ण और गोपी दो स्वरूपों में एक ही वस्तु है, वह एक दूसरे का रहस्य समझते हैं और मनमानी लीला करते हैं । गोपियों के प्राण और श्रीकृष्ण में तथा श्रीकृष्ण के प्राम और गोपियों में कोई अंतर नहीं रह जाता - वे परस्पर अपने आप ही अपनी छाया को देखकर विमुग्ध होते हैं और सबको मोहित करते हैं । गोपियां कहती हैं -
कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय, 
हिय में न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।
और भगवान अपने इस तरह के भक्त के लिए कहते हैं कि वह तो मेरा आत्मा ही है । ‘आत्मैव मे मतम् ।’ आत्मा क्या है, वह उससे भी अधिक प्यारा है - मुझे ब्रह्मा, संकर्षण, लक्ष्मी एवं अपना आत्मा भी उतना प्रिय नहीं हैं, जितना अनन्य भक्त प्रिय है । क्योंकि मेरा ऐसा भक्त मुझमें ही संतुष्ट है । उसे मेरे सिवा कुछ भी नहीं चाहिए ।
‘श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! गोपियां अपने अंगों की संहाल इसलिए करती हैं कि उनसे मेरी सेवा होती है, उन गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है । वे मेरी सहायिका हैं, गुरु हैं, शिष्या हैं, दासी हैं, बंधु हैं, प्रेयसी हैं, कुछ भी कहो सभी हैं, मैं सच कहता हूं कि गोपियां मेरी क्या नहीं हैं । हे पार्थ ! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनोरथ को तत्त्व से केवल गोपियां ही जानती हैं, और कोई नहीं जानता !’
अमृत चाहे विष का काम कर दे, शीतल जल चाहे जगत को भस्म कर दे परंतु श्रीकृष्ण प्रेमी भक्त से दुष्ट कर्म कदापि नहीं हो सकता । अतएव, गोपियों के कार्यों में पाप देखना हमारे चित्त की पापमयी वृत्ति का ही फल है । थोड़ी दूरपर बातें करते हुए जवान बहन - भाई की निर्दोष हंसी और बातचीत में भी कामी को काम के दर्शन होते हैं । इसी प्रकार हम भी गोपीप्रेम में काम देखते हैं । वास्तव में वहां तो काम था नहीं, गोपीप्रेम के सच्चे अनुयायियों में भी काम - गंध का नाश हो जाता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । उनके मन या नेत्रों के सामने दूसरी चीज न तो ठहरती है और न आती ही है ।
गोपी प्रेम विलक्षण है, उसमें ‘श्रृंगार’ है पर ‘राग’ नहीं है; ‘भोग’ है पर ‘अंगसंयोग’ नहीं है; ‘आसक्ति’ है पर ‘अज्ञान’ नहीं है, ‘वियोग’ है पर ‘विछोह’ नहीं है, ‘क्रंदन’ है पर ‘दु:ख’ नहीं है; ‘विरह’ है पर ‘वेदना’ नहीं है; ‘सेवा’ है पर ‘अभिमान’ नहीं है; ‘मान’ है पर ‘धैर्य’ नहीं है; ‘त्याग’ है पर ‘संन्यास’ नहीं है; ‘प्रलाप’ है पर ‘बेहोशी’ नहीं है; ‘ममता’ है पर ‘मोह’ नहीं है; ‘अनुराग’ है पर ‘कामना’ नहीं है, ‘तृप्ति’ है पर ‘अनिच्छा’ नहीं है, ‘सुख’ है पर ‘स्पृहा’ नहीं है; ‘देह’ है पर ‘अहं’ नहीं है; ‘जगत’ है पर ‘माया’ नहीं है; ‘ज्ञान’ है पर ‘ज्ञानी’ नहीं है; ‘ब्रह्म’ है पर ‘निर्गुण’ नहीं है; ‘मुक्ति’ है पर ‘लय’ नहीं है ।
भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों की यह परम भाव की रासलीला नित्य है, प्रत्येक युग में है, आज भी होती है, प्रत्येक युग के अधिकारी संतानों इसे देखा है, अब भी अधिकारी देखते हैं, देख सकते हैं । यदि इस प्रकार के प्रेम की तनिक भी झांकी देखकर धन्य होना चाहते हो, यदि इस अचिन्त्य प्रेमार्णवका कोई एक विंदु प्राप्त करना चाहते हो तो भोग और मोक्ष की अभिलाषा को छोड़ दो । श्रीकृष्ण में अपना चित्त जोड़ दो, प्राण खोलकर रोओ, उनके नाम और रूपपर आसक्त हो जाओ । उनकी कृपा होगी और तुम्हें प्रेम मिलेगा, तुम कृतार्थ हो जाओगे । सबको कृतार्थ कर दोगे ! यह निश्चय रखो !
जदपि जसोदा नंद अरु ग्वालबाल सब धन्य ।
पै या जग में प्रेम को गोपी भईं अनन्य ।।

Friday, 26 February 2016

मैं तो कृष्ण हो गया !


भगवान ! मेरा उद्धार करो ! मेरी नौका पार लगाओ । मेरे पापों के बोझ से बस, यह डूबना ही चाहती है । बड़ी जीर्ण है यह, और फिर ऊपर से बोझ बेतौल है । विपरीत बयार बह रही है, चारों और घोर अंधकार छाया हुआ है, हाथों हाथ नहीं सूझता । खेने की कला भी नहीं मालूम । एकमात्र तुम्हारा ही भरोसा है । तुम्हीं पार लगाने वाले हो !
मुरारे ! क्षमा करो, अपरोधों को क्षमा करो, नहीं तो मेरा कहीं ठौर - ठिकाना नहीं । बड़ा अधम हूं मैं । जीवनभर पाप पंक मे ही पड़ा रहा, दिन के चौबीस घण्टे और वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन भू - भार को बढ़ाने में ही बिताये । भूलकर भी कभी तुम्हें स्मरण नहीं किया । परमात्मन ! मुझे अपनाओ ! शपथपूर्वक कहता हूं, मुझे अपनी करनी पर बड़ी आत्मग्लानि होती है, पछता रहा हूं, विश्वास रखो, अब ऐसा नहीं होगा । अब संभलकर चलूंगा, दीनों की दीनता पर ध्यान दूंगा, दुखियों के दु:ख दूर करूंगा, भूखों को भोजन दूंगा, निर्वस्त्रों को वस्त्र पहनाऊंगा, सच कहता हूं, सदा परोपकार रत रहूंगा - पाप की कमाई पुण्य कार्यों में लुटाऊंगा, कुकृति के कलंक को सुकृति के सरोवर में धो डालूंगा ।
जगदीश्वर ! बड़ा मूर्ख बना में । अहंकारवश प्रतिज्ञा कर डाली संसार को संकटमुक्त करने की । तुम्हारी शक्ति का ध्यान तक नहीं किया । यह नहीं सोचा कि शक्ति के स्त्रोत तो तुम्हीं हो, तुम्हारी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । मनुष्य बना फिरे चाहे जो, वास्तव में उसकी कोई हस्ती नहीं, उसका अस्तित्व तुम्हारी अनुकंपा पर ही निर्भर है । मैंने अपनी सारी पूंजी लुटा दी, दिन रात को एक कर दिया, खाना पीना सोना धोना सब कुछ भूल गया, सदा गद्दी का आदी मैं गांव गांव और वन वन मारा मारा फिरा, और भी अनेकों को अपना साथी बनाया, पर आज कई वर्षों के बाद देखता हूं, देश की दशा नहीं सुधरी । यहीं नहीं, बल्कि दिन दिन बिगड़ ही रही है । संतापों का संताप बढ़ ही रहा है, अन्याय और अत्याचार का आतंक फैलता ही जाता है । समझ लिया, भलीभांति समझ लिया, तुम्हारी दया के बिना कुछ भी संभव नहीं । तुम जबतक बल नहीं देते तबतक कोई बलवान नहीं हो सकता । इसलिए अब तुम्हीं से विनम्र निवेदन करता हूं, मुझे वह शक्ति दो, जिससे मैं संसार को संकटमुक्त कर सकूं ।
करूणाकर कृष्ण, करूणा करो ! दयासागर कृष्ण, दया दिखलाओ ! कृपालु कृष्ण, द्रवित हो जाओ, राधारमण कृष्ण, मुझमें भी रम जाओ ! दीनतापहारी देव कृष्ण, मेरी दीनता पर तरस खाओ ! नयन सुखकंद कृष्ण, मेरे नयनों की प्यास बुझाओ ! अशरण शरण कृष्ण, मुझे शरण दो । भक्तवत्सल कृष्ण, भावमय प्रेम से मुझे धन्य करो ! बालकृष्ण, मुझे ‘मुकुट की लटकन, पगन की पटकन तथा लहराती हुई काली अलकन के साथ, मधुर मुस्कानसहित मुख की मटकन की छटा’ दिखलाओ ! मानिनी गोपांगनाओं के मान को दूर करने के अभिप्राय से अंतर्धान होने के बाद उनका विरहविलाप सुनकर पुन: प्रकट होनेवाले प्रेम कृष्ण, मेरे सम्मुख भी प्रकट होकर मेरा परिताप हरो ! द्रौपदी की लाज रहनेवाले कृष्ण, तनिक अपने भक्त की भी लाज रखो ! गजराज को उबारनेवाले कृष्ण, मुझे डूबते को उबारे । खंभ फाड़कर प्रकट हो प्रह्लाद की रक्षा करने वाले कृष्ण, इस दीन की भी व्यथा हरो ! राधाकृष्ण, गोपीकृष्ण ! हरे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण !!!
अरे, यह क्या ? मैं किसे ढूंढ़ता था ? किसे खोजता था ? किसके लिए विलाप करता था ? किसके लिए पागल हुआ फिरता था ? किसे चाहता था, और किससे मांगता था ? कहां था ? और कौन था ? - सर्वत्र कृष्ण ही तो है ? सब कुछ कृष्ण ही तो है ? वंशी की तान में मोहन के गान में, बालक की बोली में, साधू की झोली में, परमहंस की ठठोली में कृष्ण ही कृष्ण । मूक की मूकता में, अंध की अंधता में, दीन की दीनता में, मूर्ख की मूर्खता में सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण । ज्ञानी के ज्ञान में, ध्यानी के ध्यान में, योगी के योग में, भोगी के भोग में, रोगी के रोग में, वियोगी के वियोग में - सब जगह कृष्म ही कृष्ण । प्रेमी के प्रेम में, नेमी के नेम में कृष्ण ही कृष्ण । जपिया के जप में, तपिया के तप में कृष्ण ही कृष्ण ! घर में, द्वार में, सर सरिता में, वन - उपवन में, पवि पर्वत में , धन - दौलत में, खड्ग खंभ में, मुझमें सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण ।
देह प्राण में, तन में, मन में, अंग अंग में, रोम - रोम में, कृष्ण ही कृष्ण । कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! वह कृष्ण । मैं कृष्ण । बस, कृष्ण । कृष्ण ! ! कृष्ण !!!
कृष्ण कृष्ण कहते मैं तो कृष्ण हो गया ।
कृष्ण कृष्ण कहते मैं तो कृष्ण हो गया ।
अहं ब्रह्मास्मि !

पाण्डव अर्जुन और कृष्ण मैत्री


महाभारत में पाण्डव विजयी हुए । छावनी के पास पहुंचने पर श्रीकृष्णने अर्जुन से कहा कि ‘हे भरतश्रेष्ठ ! तू अपने गाण्डीव धनुष और दोनों अक्षय भाथों को लेकर पहले रथ से नीचे उतर जा । मैं पीछे उतरूंगा, इसी में तेरा कल्याण है ।’ यह आज नयी बात थी, परंतु अर्जुन भगवान के आज्ञानुसार नीचे उतर गये, तब बुद्धि के आधार जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर रथ से उतरे । उनके उतरते ही रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ दिव्य वानर तत्काल अंतर्धान हो गया । तदनंतर अर्जुन का वह विशाल रथ पहिये, धुरी, डोरी और घोड़ों समेत बिना ही अग्नि के जलने लगा और देखते ही देकते भस्म हो गया । इस घटना को देखकर सभी चकित हो गये । अर्जुन ने हाथ जोड़कर इसका कारण पूछा, तब भगवान बोले - हे परन्तप अर्जुन ! विविध शस्त्रास्त्रों से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, मैं इसपर बैठा इसे रोके हुए था, इसी से यह अब से पूर्ण रण में भस्म नहीं हो सका । हे कौन्तेय ! तेरा कार्य सफल करके मैंने इसे छोड़ दिया, इसी से ब्रह्मास्त्र के तेज से जला हुआ यह रथ इस समय खाक हो गया है । मैं पहले न रोके रखता या आज तू पहले न उतरता तो तू भी जलकर खाक हो जाता ।
भगवान की इस लीला को देख सुनकर सभी पाण्डव आनंद से गद् गद् हो गये । महाभारत में तथा अन्य पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे अर्जुन के साथ भगवान की अपूर्व मैत्री का परिचय मिलता है । यहां तो संक्षेप में बहुत ही थोड़े से उदाहरण दिए गए हैं । इस लीला का आनंद लेने की इच्छा रखनेवालों को उपर्युक्त ग्रंथ अवश्य पढ़ने सुनने चाहिए ।
जिस समय उत्तरा के गर्भस्थ बालक परीक्षित को अश्वत्थामा ने मार दिया था और उत्तरा भगवान के सामने रोने लगी थी, उस समय विशुद्धात्मा भगवान ने सारे जगत को सुनाते हुए कहा था - ‘हे उत्तरा ! मैं कबी झूठ नहीं बोलचा, मेरा कहना सत्य ही होगा । सब देहधारी देखें, मैं अभी इस बालक को जीवित करता हूं । यदि मैंने कभी हंसी मजाक में भी झूट नहीं बोला है और मैं युद्ध में कभी पीठे नहीं लौटा हूं तो यह बालक जी उठे । मुझे यदि धर्म और विशेषकर ब्राह्मण प्यारे हैं तो जन्मते ही मरा हुआ अभिमन्यु का बालक जीवित हो जाएं । यदि यह सत्य है तो यह मृत बालक जी उठे । सत्य और धर्म मेरे अंदर नित्य ही प्रतिष्ठित रहते हैं, इनके बल से यह अभिमन्यु का मरा बालक जीवित हो जाएं । यदि कंस और केशी को मैंने धर्मानुसार मारा है, (द्वेष से नहीं) तो यह बालक जी उठे ।’ भगवान के ऐसा कहते ही बालक जी उठा ।
इस प्रसंग से भगवान के सत्य, वीरत्व, धर्म, ब्रह्मण्यता, राग - द्वेषहीनता आदि की घोषमा तो महत्त्व की हैं ही, परंतु अर्जुन के अविरोध की बात, भगवान का अर्जुन के प्रति कितना समीप प्रेम था, इसको सूचित करती है ।
भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन में कैसा अभिन्न और सच्चा प्रेम था और भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को किस आदर की दृष्टि से देखते थे इसका एक उदाहरण यहां दिया जाता है -
पाण्डवों के यहां से लौटकर आये हुए संजय से घृतराष्ट्र ने जब वहां के समाचार पूछे, तब सारा हाल कहते हुए उसने कहा कि श्रीकृष्ण अर्जुन का मैंने विलक्षण प्रेमभाव देखा है । मैं उन दोनों से बातें करने के लिए बड़े ही विनीत भाव से उनके अंत:पुर में गया । मैंने जाकर देखा कि वे दोनों महात्मा उत्तम वस्त्राभूषणों से भूषित होकर रत्नजटित सोने के महामूल्य आसनों पर बैठे थे । अर्जुन की गोद में श्रीकृष्ण के पैर थे और द्रौपदी तथा सत्यभामा की गोद में अर्जुन के दोनों पैर थे । अर्जुन ने अपने पैर के नीचे का स्वर्ण का पीढ़ा सरकाकर मुझे बैठने को कहा, मैं उसे छूकर अदब के साथ नीचे बैठ गया । तब श्रीकृष्म ने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए और उन्हें अपने ही समान बतलाते हुए मुझसे कहा -
‘देवता, गंधर्व, राक्षस, यक्ष, मनुष्य और नागों में कोई ऐसा नहीं है जो युद्ध में अर्जुन का सामना कर सके । बल, वीर्य, तेज, शीघ्रता, लघुहस्तता, विषादहीनता और धैर्य - ये सारे गुण अर्जुन के सिवा किसी भी दूसरे मनुष्य में एक साथ विद्यमान नहीं हैं ।’
भगवान ने अर्जुन के साथ सदा सख्यत्व का व्यवहार किया और उन्हें अपनी लीलाओं में प्राय: साथ रखा । भगवान के परमधाम पधारने पर अर्जुन प्राणहीन से हो गये और शीघ्र ही हिमालय में जाकर उन्होंने शरीर छोड़ दिया । भगवान के प्रति अर्जुन का इतना गाढ़ा प्रेम था कि वे गीताज्ञान के सर्वोत्तम और सर्वप्रतम श्रोता तथा ज्ञाता होने पर भी सायुज्य मुक्ति को ग्रहण कर परमधाम में भी भगवान की सेवा में ही लगे रहे । स्वर्गारोहण के अनंतर धर्मराज युधिष्ठिर दिव्य देह धारणकर परमधाम में देखा - देदीप्यमान है, उनके समीप चक्र आदि दिव्य और घोर अस्त्र पुरुष का शरीर धारणकर उनकी सेवा कर रहे हैं । महान तेजस्वी वीर अर्जुन भी भगवान की सेवा कर रहे हैं ।
हम सबको चाहिए कि संसार के भोग्यपदार्थों से आसक्ति दूरकर अर्जुन की भांति भगवान के शरणागत हो जाएं । बोलो भक्त और उनके भगवान की जय !

इंद्र का गर्व - भंग



शचीपति देवराज इंद्र कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक मन्वंतरपर्यन्त रहनेवाले स्वर्ग के अधिपति हैं । घड़ी - घंटों के लिए जो किसी देश का प्रधान मंत्री बन जाता है, उसके नाम से लोग घबराते हैं, फिर जिसे एकहत्तर दिव्य युगों तक अप्रतिहत दिव्य भोगों का साम्राज्य प्राप्त है, उसे गर्व होना तो स्वाभाविक है ही । इसलिए इनके गर्व भंग की कथाएं भी बहुत हैं । दुर्वासा ने इन्हें शाप देकर स्वर्ग को श्रीविहीन किया । वृत्रासुर, विश्वरूप, नमुचि आदि दैत्यों के मारने पर इन्हें बार - बार ब्रह्महत्या लगी । बृहस्पति के अपमान पर पश्चात्ताप, बलिद्वारा राज्यापहरण पर दुर्दशा तथा गोवर्धनधारण एवं पारिजातहरण आदि में भी कई बार इनका मानभंग हुआ ही है । मेघनाद, रावण, हिरण्यकशिपु आदि ने भी इन्हें बहुत निम्न दिखलाया और बार बार इन्हें दुष्यंत, खट्वांग, अर्जुनादि से सहायता लेनी पड़ी । इस प्रकार इनके गर्वभञ्जनकी अनेकानेक कथाएं हैं, तथापि ब्रह्मवैवर्तपुराण में इनके गर्वापहरण की एक विचित्र कथा है, जो इस प्रकार है - 

इस बार इंद्र ने एक बड़ा विशाल प्रासाद बनवाना आरंभ किया । इसमें पूरे सौ वर्षतक इन्होंने विश्वकर्मा को छुट्टी नहीं दी । विश्वकर्मा बहुत घबराएं । वे ब्रह्माजी की शरण में गये । ब्रह्माजी ने भगवान से प्रार्थना की । भगवान एक ब्राह्मण बालक का रूप धारण कर इंद्र के पास पहुंचे और पूछने लगे - ‘देवेंद्र ! मैं आपके अद्भुत भवननिर्माम की बात सुनकर यहां आया हूं । मैं जानना चाहता हूं कि इस भवन को कितने विश्वकर्मा मिलकर बना रहे हैं और यह कब तक तैयार हो जाएंगा ?’

इंद्र बोले - ‘बड़े आश्चर्य की बात है ! क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो ?’ बहुरूपी प्रभु बोले - ‘देवेंद्र ! तुम बस इतने में ही घबरा गये ? सृष्टि कितने ढंग की है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा विष्णु शिव कितने हैं, उन उन ब्रह्माण्डों में कितने इंद्र और विश्वकर्मा पड़े हैं - यह कौन जान सकता है ? यदि कदाचित कोई पृथ्वी के धूलिकणों को गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इंद्रों की संख्या तो नहीं ही गिनी जा सकती । जिस तरह जल में नौकाएं दिखती हैं, उसी प्रकार महाविष्णु के लोमकूपरूपी सुनिर्मल जल में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दिख पड़ते हैं ।’

इस तरह इंद्र और वटु में संवाद चल ही रहा था कि वहां दो सौ गज लंबा चौड़ा चींटों का एक विशाल समुदाय दिख पड़ा । उन्हें देखते ही वटु को सहसा हंसी आ गयी । इंद्र ने उनकी हंसी का कारण पूछा । वटु ने कहा - ‘हंसताइसलिए हूं कि यहां ये चींटे दिखलायी पड़ रहे हैं, वे सब कभी पहले इंद्र हो चुके हैं, किंतु कर्मानुसार इन्हें अब चींटे की योनि प्राप्त हुई है । इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति ही ऐसी गहन है । जो आज देवलोक में है, वह दूसरे क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियों को प्राप्त हो सकता है ।’ भगवान ऐसा कह ही रहे थे कि उसी समय कृष्णाजिनधारी, उज्जवल तिलक लगाएं, चटाई ओढ़े एक ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध महात्मा वहां पहुंच गये । इंद्र ने उनकी यथालंध उपचारों से पूजा की । अब वटु ने महात्मा से पूछा - ‘महात्मन ! आपका नाम क्या है, आप कहां से आ रहे हैं, आपका निवासस्थल कहां है और आप कहां जा रहे हैं ? आपके मस्तक पर यह चटाई क्यों है तथा आपके वक्ष:स्थल पर यह लोमचक्र कैसा है ?’

आगंतुक मुनि ने कहा - थोड़ी सी आयु होने के कारण मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका ही खोजी । वक्ष:स्थल के लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमश कहा करते हैं और वर्षा तथा गर्मी से रक्षा के लिए मैंने अपने सिरपर यह चटाई रख छोड़ी है । मेरे वक्ष:स्थल के लोम मेरी आयु संख्या के प्रमाण हैं । एक इंद्र का पतन होने पर मेरा एक रोग गिर पड़ता है । यह मेरे उखड़े हुए कुछ रोमों का रहस्य भी है । ब्रह्मा के द्विपरार्धावसान पर मेरी मृत्यु कही जाती है । असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे । ऐसी दशा में मैं पुत्र, कलत्र या गृह लेकर ही क्या करूंगा ? भगवान की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्वसुखद तथा दुर्लभ है । वह मोक्ष से भी बढ़कर है । ऐश्वर्य तो भक्ति के व्यवधानस्वरूप तथा स्वप्नवत मिथ्या भी बढ़कर है । जानकर लोग तो उस भक्ति को छोड़कर सालोक्यादि मुक्तिचतुष्टयको भी नहीं ग्रहण करते । 

यों कहकर लोमश जी अन्यत्र चले गये । बालक भी वहीं अंतर्धान हो गया । बेचारे इंद्र का तो अब होश ही ठंडा हो गया । उन्होंने देखा कि जिसकी इतनी दीर्घ आयु है, वह तो एक घास की झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल चटाई से ही काम चला लेता है, फिर मुझे कितने दिन रहना है, जो इस घर के चक्कर में पड़ा हूं । बस, झट उन्होंने विश्वकर्मा को एक लंबी रकम के साथ छुट्टी दे दी और आप अत्यंत विरक्त होकर किसी वनस्थली की ओर चल पड़े । पीछे बृहस्पति जी ने उन्हें समझा बुझाकर पुन: राज्यकार्य में नियुक्त किया ।

Thursday, 25 February 2016

देव प्रतिमा निर्माण विधि


सूत जी बोले - ब्राह्मणों ! मैं प्रतिमा का शास्त्रसम्मत लक्षण कहता हूं । उत्तम लक्षणों से रहित प्रतिमा का पूजन नहीं करना चाहिए । पाषाण, काष्ठ, मृत्ति का, रत्न, ताम्र एवं अन्य धातु इनमें से किसी की भी प्रतिमा बनायी जा सकती है । उनके पूजन से सभी अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं । मंदिर के माप के अनुसार शुभ लक्षणों से संपन्न प्रतिमा बनवानी चाहिए । घर में आठ अंगुल से अधिक ऊंची मूर्ति का पूजन नहीं करना चाहिए । देवालय के द्वार की जो ऊंचाई हो उसे आठ भागों में विभक्त कर तीन भाग के माप में पिण्डि का तथा दो भाग के माप में देव प्रतिमा बनाये । चौरासी अंगुल (साढ़े तीन हाथ) की प्रतिमा वृद्धि करनेवाली होती है । प्रतिमा के मुख की लंबाई बारह अंगुल होनी चाहिए । मुख के तीन भाग के प्रमाण में चिबुक, ललाट तथा नासिका होनी चाहिए । नेत्र के मान के तीसरे भाग में आंख की तारिका बनानी चाहिए । तारिका के तृतीय भाग में सुंदर दृष्टि बनानी चाहिए । ललाट, मस्तक तथा ग्रीवा - ये तीनों बराबर माप के हों । सिर का विस्तार बत्तीस अंगुल होना चाहिए । नासिका, मुख और ग्रीवा से हृदय एक सीध में होना चाहिए । मूर्ति की जितनी ऊंचाई हो उसके आधे में कटि - प्रदेश बनाना चाहिए । दोनों बाहु, जंघा तथा ऊरु परस्पर समान हों । टखने चार अंगुल ऊंचे बनाने चाहिए । पैर की लंबाई चौदह अंगुल में बनानी चाहिए । अधर, ओष्ठ, वक्ष:स्थल, भ्रू, ललाट, गण्डस्थल तथा कपोल भरे पूरे सुडौल सुंदर तथा मांसल बनाने चाहिए, जिससे प्रतिमा देखने में सुंदर मालूम हो । नेत्र विशाल, फैले हुए तथा लालिमा लिए हुए बनाने चाहिए ।
इस प्रकार के शुभ लक्षणों से संपन्न प्रतिमा शुभ और पूज्य मानी गयी है । प्रतिमा के मस्तक में मुकुट, कण्ठ में हार, बाहुओं में कटक और अंगद पहनाने चाहिए । मूर्ति सर्वांग - सुंदर, आकर्षण तथा तत्तत् अंगों के आभूषणों से अलंकृत होनी चाहिए । भगवान की प्रतिमा में देवकलाओं का आदान होनेपर भगवत्प्रतिमा प्रत्येक को अपनी ओर बरबस आकृष्ट कर लेती है और अभीष्ट वस्तु का लाभ कराती है ।
जिसका मुखमण्डल दिव्य प्रभा से जगमगा रहा हो, कानों में चित्र विचित्र मणियों के सुंदर कुण्डल तथा हाथों में कनक मालाएं और मस्तक पर सुंदर केश सुशोभित हों, ऐसी भक्तों को वर देनेवाली, स्नेह से परिपूर्ण, भगवती की सौम्य कैशोरी प्रतिमा का निर्माम कराये । भगवती विधिपूर्वक अर्चना करने पर प्रसन्न होती हैं और उपासकों के मनोरथों को पूर्ण करती हैं ।
नव ताल (साढ़े चार हाथ) की विष्णु की प्रतिमा बनवानी चाहिए । तीन ताल की वासुदेव की, पांच ताल की नृसिंह तथा हयग्रीवकी, आठ ताल की नारायण की, पांच ताल की महेश की, नव ताल की भगवती दुर्गा की, तीन तीन ताल की लक्ष्मी और सरस्वती की तथा सात ताल की भगवान सूर्य की प्रतिमा बनवाने का विधान है । भघवान की मूर्ति की स्थापना तीर्थ, पर्वत, तालाब आदि के समीप करनी चाहिए अथवा नगर के मध्य भाग में या जहां ब्राह्मणों का समूह हो, वहां करनी चाहिए । इनमें भी अविमुक्त आदि सिद्ध क्षेत्रों में प्रतिष्ठा करने वाले के पूर्वा पर अनंत कुलों का उद्धार हो जाता है । कलियुग में चंदन, अगरु, बिल्व, श्रीपर्णिक तथा पद्मकाष्ठ आदि काष्ठों के अभाव में मृण्मयी मूर्ति बनवानी चाहिए 

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि !!

एक बार कृष्ण भगवान् हस्तिनापुर महल की राज सभा में बैठे हुए थे। कृष्ण भगवान् ने कौरवों के राजकुमार दुर्योधन को अपने पास बुलाया और एक कीमती हीरों की पोटली देकर कहा इस सभा में जो भी तुमको श्रेष्ठ लगे, उन सभी में यह हीरे बाँट दो।
दुर्योधन हीरे लेकर सारी सभा में घूमने लगा। घूम कर वापस आकर हीरो की पोटली कृष्ण भगवान् को वापिस करके बोला, भगवान् इस सभा में कोई भी श्रेष्ठ नहीं है।
भगवान् श्री कृष्ण मुस्कुराये और फिर वही पोटली पांडवों के ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर को देकर बोले इस सभा में जो भी तुमको श्रेष्ठ लगे उसमे यह हीरे बाँट दो।
युधिष्ठिर हीरो की पोटली लेकर सभा का चक्कर लगा कर वापिस आ गए।
आकर श्री कृष्ण भगवान् से कहने लगे - भगवान् आपने बहुत कम हीरे दिए हैं। यहाँ पर तो एक से एक श्रेष्ठ लोग बैठे हुए है।
इस पर भगवान् श्री कृष्ण ने कहा जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि !!

श्रीराधिका जी का उद्धव को उपदेश


गोपियों के अद्भुत प्रेम - प्रवाह में ज्ञानशिरोमणि उद्धव का संपूर्ण ज्ञानभिमान बह गया । विवेक, वैराग्य, विचार, धर्म, नीति, योग, जप और ध्यान आदि संपूर्ण संबल के सहित उसकी ज्ञान नौका गोपियों के प्रेम समुद्र में डूब गयी । उद्धव गोपियों का मोह दूर करने आया था किंतु वह स्वयं ही उनके (दिव्य) मोह में मग्न हो गया । वह उन्हें सांत्वना देने के लिए आया था किंतु उसे उन्हीं की शरण लेनी पड़ी । वह आया था उन्हें उपदेश देने के लिए किंतु हो गया उनका शिष्य ।
आज गोपियों के सुमधुर प्रेम पीयूश का रसास्वादन कर उद्धव श्रीमाधव के पास मधुपुरी जाने की तैयारी कर रहा है । प्यारे कृष्ण के स्नेहपूर्ण सहवास की स्मृति उसे अवश्य उस ओर खींच रही थी किंतु इधर परिकरसहित श्रीरासेश्वरी जी की सहृदयता ने भी उसके हृदय को बांध लिया था । इस दुविधा में उसे कई दिन हो गये । अंत में उसे घर लौटना ही था, अत: आज उसने मथुरा चलने की तैयारी कर ही दी । उद्धव को मथुरा जाने के लिए उद्यत देखकर हरि प्रिया श्रीराधिका जी खिन्न चित्त होकर आसन से उठीं और गोपियों के सहित उन्होंने उद्धव के सिर पर हाथ रखकर उसे शुभ आशीर्वाद दिया, तथा हरी हरी दूब, अक्षत, श्वेत धान्य और मंगलमय पुष्प उसके मस्तक पर छोड़े । तदनंतर उन्होंने खील, फल, पत्र, दधि, दूर्वा तथा पत्तों की डाल, फल, गंध, सिंदूर, कस्तूरी और चंदन के सहित जल का कलश मंगाया एवं पुष्प, माला, दीपक, रक्तचंदन, पतिपुत्रवती साध्वी स्त्री, सुवर्ण और रजत आदि मंगाकर उसे उनका दर्शन कराया । इस प्रकार मंगलोपचार के अनंतर महासाध्वी श्रीराधिका जी अपने वक्ष:स्थल पर गिरते हुए शोकाश्रुओं को छिपाकर हित और मंगलमय सत्य वचन बोलीं ।
वे कहने लगीं - ‘उद्धव ! तुम्हारी यात्रा सुखमय हो, तुम्हारा सदा कल्याण हो, तुम प्यारे कृष्ण के प्रिय सका हो, उनसे तुम्हें ज्ञान प्राप्त हो । संसार के संपूर्ण वरदानों में श्रीकृष्णचंद्र की दास्यरति ही सर्वश्रेष्ठ वर है । स्नायुज्य, सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और कैवल्य इन पांचों प्रकार की मुक्तियों से भी हरि भक्ति ही श्रेष्ठ है । ब्रह्मत्व, देवत्व, इन्द्रत्व, अमरत्व, अमृत - लाभ तथा सिद्धि - लाभ से भी हरि भक्ति अति दुर्लभ है । यदि कोई पुरुष अपने पूर्व जन्मों के अनन्त पुण्यपुंज से भारतवर्ष में जन्म पाकर हरि भक्ति करता है तो फिर उसका जन्म होना अत्यंत कठिन है अर्थात् वह अवश्य मुक्त हो जाता है । उसका जन्म सफल है । वह अवश्य ही अपने माता पिता, उनके पूर्वजों, अपने बंधु बांधवों तथा स्त्री, गुरु, शिष्य और सेवकों के भी सहस्त्रों कर्म कलापों का क्षय कर देता है । हे वत्स ! जो कर्म कृष्णार्पण कर दिया जाता है अथवा जिससे श्रीकृष्णचंद्र की प्रसन्नता बढ़ती है वहीं सर्वोत्तम है । प्रीति और विधिपूर्वक संकल्प करके जो कर्म किया जाता है वह परम मंगलमय और धन्य है । उससे परिमाम में अत्यंत सुख मिलता है । श्रीकृष्ण के लिए व्रत और तपस्या करना, भक्तिपूर्वक उनका पूजन करना तथा उनके उद्देश्य से उपवास करना - ये सब उनकी दास्यरति के बढ़ाने वाले हैं । इस दास्यरति की महिमा कहां तक कहीं जाएं ?’
संपूर्ण पृथ्वी का दान, त्रिभुवन की परिक्रमा, समस्त तीर्थों का स्नान, समस्त व्रत और तप, संपूर्ण यज्ञ - यागादि, सर्वस्व दानका फल, समस्त वेद - वेदांगों का पढ़ना और पढ़ाना, भयभीत की रक्षा करना, अत्यंत दुर्लभ तत्त्वज्ञान का उपदेश करना, अतिथियों का सत्कार करना, शरणागत की रक्षा करना, समस्त देवताओं का पूजन और बंदन करना, मंत्र - जाप करना, पुरश्चरण आदि के सहित ब्राह्मणों को भोजन कराना, गुरु की सेवा शुश्रूषा करना तथा भक्तिपूर्वक माता - पिता का पोषण करना - ये समस्त शुभकर्म श्रीकृष्णचंद्र की दास्यरति की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं ।
इसलिए हे उद्धव ! तुम प्रयत्नपूर्वक श्रीकृष्ण का भजन करना । वे श्रीकृष्णचंद्र प्रकृति से परे निरीह, परमात्मा, ईस्वर, नित्य, सत्य, परब्रह्म और प्रकृति से अतीत प्रकृति के स्वामी हैं । वे सर्वत्र परिपूर्ण शुद्धस्वरूप, भक्तों के लिए मूर्तिमान अनुग्रहरूप कर्मियों की कर्म कलाप के साक्षी होकर भी उनसे अलिप्त, ज्योतिरूप तथा संपूर्ण कारणों के परम कारण है ।
यह परम दिव्य उपदेश सुनकर उद्धव को विस्मय हुआ और वह तत्त्वज्ञान पाकर तृप्त हो गले में अञ्चल डालकर उसने अपने केशपाश श्रीराधिका जी के चरमों को पुन: पुन: स्पर्श करते हुए प्रणाम किया । भक्ति वश उसके नेत्रों में जल भर और संपूर्ण शरीर में रोमांच हो गया तथा श्रीराधिका के बिछुड़ने की व्यथा से वह फूट - फूटकर रोने लगा । श्रीराधा तथा अन्यान्य गोपियां भी प्रेमवश उद्धव के गले लगा रोने लगीं । इस प्रकार वहां प्रेम का अपूर्व प्रवाह जिसमें कि वह संपूर्ण समाज डूब गया 

राजा विदूरथ की कथा


विख्यातकीर्ति राजा विदूरथ के सुनीति और सुमति नामक दो पुत्र थे । एक समय विदूरथ शिकार के लिए वन में गये, वहां ऊपर निकले हुए पृथ्वी के मुख के समान एक विशाल गड्ढे को देखकर वे सोचने लगे कि यह भीषण गर्त क्या है ? यह भूमि विव तो नही हो सकता ? वे इस प्रकार चिंता कर ही रहे थे कि उस निर्जन वन में उन्होंने सुव्रत नामक एक तपस्वी ब्राह्मण को समीप आते हुए देखा । आश्चर्यचकित राजा ने उस तपस्वी को भूमि के उस भयंकर गड्ढे को दिखाकर पूछा कि ‘यह क्या है ?’
ऋषि ने कहा - ‘महिपाल ! क्या आप इसे नहीं जानते ? रसातल में अतिशय बलशाली उग्र नाम का दानव निवास करता है । वह पृथ्वी को विदीर्ण करता है, अत: उसे कुजृम्भ कहा जाता है । पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने सुनंद नामक जिस मुसल का निर्माण किया था, उसे इस दुष्ट ने चुरा लिया है । यह उसी मूसल से रण में शत्रुओं को मारता है । पाताल में निवास करता हुआ वह असुर उस मूसल से पृथ्वी को विदीर्ण कर अन्य सभी असुरों के लिए द्वारों का निर्माण करता है । उसने ही उस मूसलरूपी शस्त्र से पृथ्वी को इस स्थानपर विदीर्ण किया है । उस पर विजय पाये बिना आप कैसे पृथ्वी का भोग करेंगे ? मूसलरूपी आयुधधारी महाबली उग्र यज्ञों का विध्वंस, देवों को पीड़ित और दैत्यों को संतुष्ट करता है ।यदि आप पाताल में रहनेवाले उस शत्रु को मारेंगे तभी सम्राट बन सकेंगे । उस मूसल को लोग सौनंद कहते हैं । मनीषिगण उस मूसल के बल और अबल के प्रसंग में कहते हैं कि उस मूसल को जिस दिन नारी छू लेती है, उसी क्षण वह शक्तिहीन हो जाता है और दूसरे दिन शक्तिशाली हो जाता है । आपके नगर के समीप में ही उसने पृथ्वी में छिद्र कर दिया है, फिर आप कैसे निश्चित रहते हैं ? ’ ऐसा कहकर ऋषि के प्रस्थान करने पर राजा अपने नगर में लौटकर उस विषय पर मंत्रियों के साथ विचार करने लगे । मूसल के प्रभाव एवं उसकी शक्तिहीनता आदि के विषय में उन्होंने जो कुछ सुना था, वह सब मंत्रियों के सम्मुख व्यक्त किया । मंत्रियों से परामर्श करते समय राजा के समीप में बैठी हुई उनकी पुत्री मूदावती ने भी सभी बातें सुनी ।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद अपनी सखियों से घिरी हुई मुदावती जब उपवन में थी, तब कुजृम्भ दैत्य ने उस वयस्क कन्या का अपहरण कर लिया । यह सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये । उन्होंने अपने दोनों कुमारों से कहा कि ‘तुमलोग शीघ्र जाओ और निर्विन्ध्या नदी के तट प्रांत में जो गड्ढा है, उससे रसातल में जाकर मुदावती का अपहरण करने वाले का विनाश करो ।’
इसके बाद परम क्रुद्ध दोनों राजकुमारों ने उस गड्ढे को प्राप्त कर पैर के चिन्हों का अनुसरण करते हुए सेनाओं के साथ वहां पहुंचकर कुजृम्भ के साथ युद्ध आरंभ कर दिया । माया के बल से बलशाली दैत्यों ने सारी सेना को मारकर उन दोनों राजकुमारों को भी बंदी बना लिया । पुत्रों के बंदी होने का समाचार सुनकर राजा को अतिशय दु:ख हुआ । उन्होंने सैनिकों को बुलाकर कहा - ‘जो उस दैत्य को मारकर मेरी कन्या और पुत्रों को मुक्त करायेगा, उसी को मैं अपनी विशालनयना कन्या मुदावती को दे दूंगा ।’
राजा ने पुत्रों और कन्या के बंधन युक्त होने से निराश होकर अपने नगर में भी उपर्युक्त घोषणा करा दी । उस घोषणा को शस्त्रविद्या में निपुण भनन्दन के पुत्र बलवान वत्सप्रीने भी सुना । उसने अपने पिता के श्रेष्ठ मित्र महाराज से विनयावनत हो प्रणाम कर कहा - ‘आप मुझे आज्ञा दें, मैं आपके प्रताप से उस दैत्य को मारकर आपके दोनों पुत्रों और कन्या को छुड़ा लाऊंगा ।’
अपने प्रिय मित्र के पुत्र को आनंदपूर्वक आलिंगन कर राजा ने कहा - ‘वत्स ! जाओ, तुम्हें अपने कार्य में सफलता प्राप्त हो ।’ वत्सप्री तलवार, धनुष, गोदा, अंगुलित्र आदि अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित हो उस गर्त के द्वारा शीघ्र ही पाताल में चला गया । उस राजपुत्र ने अपने धनुष की डोरी का भयंकर शब्द किया, जिससे निखिल पाताल विवर गूंज उठा । प्रत्यञ्चा के शब्द को सुनकर अतिशय क्रोधाविष्ट दानवपति कुजृम्भ अपनी सेना के साथ आया । फिर तो दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया । वह दानव तीन दिनों तक उसके साथ युद्ध करने के बाद कोप से आविष्ट हो मूसल लाने के लिए दौड़ा । प्रजापति विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित तथा गंध, माल्य एवं धूप से पूजित वह मूसल अंत:पुर में रखा रहता था । उधर मूसल के प्रभाव से अवगत मुदावती ने श्रद्धावनत होकर उस मूसल का पुन: पुन: स्पर्श किया ।
इसके बाद असुरपति ने रणभूमि में उपस्थित होकर उस मूसल से युद्ध आरंभ किया, किंतु शत्रुओं के बीच उसका पात व्यर्थ होने लगा । परमास्त्र सौनंद मूसल के निर्वीर्य होने पर वह दैत्य अस्त्र शस्त्र के द्वारा ही संग्राम में शत्रु के साथ युद्ध करने लगा । राजकुमार ने उसे रथहीन कर दिया और कालाग्नि के समान आग्नेयास्त्र से उस काल के गाल में भेज दिया । तत्क्षम पाताल में स्थित सर्पों ने महान आनंद मनाया । राजपुत्र पर पुष्पवृष्टि होने लगी । गंधर्वों ने संगीत आरंभ किया और देववाद्य बजने लगे । उस राजपुत्र ने दैत्य का विनाश कर सुनीति और सुमति नामक दोनों राजपुत्रों एवं कृशांगी मुदावती को मुक्त किया ।
कुजृम्भ के मारे जाने पर शेष नामक नागराज भगवान अन्त ने उस मूसल को ले लिया । उन्होंने अतिशय आनंद के साथ सौनंद मूसल का गुण जाननेवाली मुदावती का नाम सौनंदा रखा । राजपुत्र वत्सप्री भी दोनों राजकुमारों और राजकन्या को शीघ्र ही राजा के पास ले आया और उसने प्रणाम कर निवेदन किया - ‘तात ! आपकी आज्ञा के अनुसार आपके दोनों कुमारों और मुदावती को मैं छुड़ा लाया हूं, अब मेरा क्या कर्तव्य है, आज्ञा प्रदान करें ।’ राजा ने कहा - ‘आज मैं तीन कारणों से देवों के द्वारा भी प्रशंसित हुआ हूं - प्रतम तुम को जामात के रूप में प्राप्त किया, द्वितीय शत्रु विनष्ट हुआ, तृतीय मेरे दोनों पुत्र और कन्या वहां से अक्षत - शरीर पुन: लौट आये । राजपुत्र ! आज शुभ दिन में मेरी आज्ञा के अनुसार तुम मेरी पुत्री सुंदरी मुदावती का प्रीतिपूर्वक पाणिग्रहण करो और मुझे सत्यवादी बनाओ ।’
वत्सप्री ने कहा - ‘तात की आज्ञा का पालन मुझे अवश्य करना चाहिए, अत: आप जो कहेंगे मैं उसका पालन करूंगा, आप जानते ही हैं कि पूज्यजनों की आज्ञा के पालन से मैं कभी भी पराङ्मुख नहीं होता ।’
इसके बाद राजेंद्र विदूरथ ने कन्या मुदावती और भनंदपुत्र वत्सप्री का विवाह संपन्न किया । विवाह हो जाने पर दंपत्ति रमणीय स्थानों और महल के शिखरों पर विहार करने लगे । कालक्रम से वत्सप्री के पिता भनंदन वृद्ध होकर वन में चले गये और वत्सप्री राजा होकर यज्ञों का अनुष्ठानएवं धर्मानुसार प्रजा का पालन करने लगे । प्रजा भी उन महात्मा से पुत्र के समान प्रतिपालित होकर उत्तरोत्तर समृद्धिशाली होने लगी ।

श्रीराम का पत्नी प्रेम


वनगमन के समय सेवा में चलने के लिए श्रीसीता जी का जब आग्रह देखा गया, तब उनकी शारीरिक सुकुमारता आदि के स्नेह से जैसी प्रेमपूर्ण शिक्षादी गयी, वह स्नेह की सीमा का सूचक है । परंतु जब यह लक्षण देखने में आया कि सीता जी को यदि हठ करके रोका गया तो इनके प्राण ही नहीं बचेंगे तब उनको प्रेमपूर्वक साथ ले लिया गया । फिर वन में जिस समय उनका हरण हो गया, उस समय की विकलता तो अकथनीय प्रेम की अवधि है । श्रीमारुति जी द्वारा भेजे हुए इस संदेश में कि ‘हे प्रिये, हमारे और तुम्हारे प्रेम के तत्त्व को एक हमारा मन ही जानता है और वह मन सदा तुम्हारे पास रहता है ।’ मानो प्रीति के रस का निचोड़ ही सूचित किया गया है । फिर जब श्रीहनुमान जी कुशलसंवाद लेकर लौटे और उन्होंने श्रीसीता जी की कष्ट कथा सुनायी, उस समय श्रीरघुनाथ जी जैसे धीर वीर और सुख के धामकी भी आंखों में प्रेमाश्रु आ गये ! इससे अधिक प्रेम का और क्या प्रमाण होगा ?
श्रीरघुनाथ जी ने एकनारीव्रत को चरितार्थ करके महान आदर्श उपस्थित कर दिया । यद्यपि आपको स्मृतिकारों के प्रमाणनुसार चार विवाहों की प्रचलित प्रथा की मर्यादा स्वीकार थी, परंतु इधर एकपत्नीव्रत को ही पुष्ट करना था । इसलिए एक सीता जी के साथ ही विवाह की चारों रीतियां पूरी कर ली गयीं । जैसे -
1) गांधर्व विवाह फुलवारी में हुआ - ‘चली राखि उर स्यामल मूरति’
2) प्रण स्वयंवर ‘टूटत हीं धनु भयउ बिबाहू’
3) स्वयंवर ‘सियं जयमाल राम उर मेली’ और
4) पाणिग्रहण भांवरी, सिंदूरदान आदि के साथ मंडप में हुआ - ‘प्रमुदित मुनिन्ह भांवरी फेरी’ तथा ‘राम सीय सिर सेंदुर देहीं’ - इत्यादि । श्रीराम जी ने अपनी कुल - प्रथा को भी त्यागकर एक पत्नी - व्रत का पालन किया । क्योंकि पिता दशरथ को ही कई रानियां थीं । यहीं तक नहीं, श्रीराम जी ने अपने शासनकाल में अपनी सारी प्रजा से भी एकपत्नीव्रत का पालन कराया । देखिए - ‘एकनारि ब्रत रत सब झारी । ते मन बच क्रम पति हितकारी ।।’
अत: मनुष्य मात्र को इससे शिक्षा लेनी चाहिए ।
इस प्रकार श्रीराम जी के ऐश्वर्य तथा माधुर्य दोनों तरह के अनुपम चरित्रों का संक्षिप्त दिग्दर्शन थोड़े से उदाहरणों द्वारा कराया गया । वास्तव में आपके आदर्श चरित्रों का संपूर्ण कथन यदि शेष, शारदा और वेदादि भी करना चाहें तो उनके लिए भी असंभव है । लोकधर्म के जितने अंग हैं - माता, पिता, भाई, स्त्री, हितू, कुटुंबी, संबंधी, बड़े, छोटे, स्वामी, सेवक, गुरु, पुरोहित, ब्राह्मण, गौ, अतिथि, अभ्यागत, देवी, देवता आदि के जितने व्यवहार हैं एवं वर्ण और आश्रम के जितने धर्म हैं, उन सबका वेदविधि से यथावत् पालन श्रीरघुनाथ जी ने ही स्वयं करके दिखाया है।
सामान्य लोकधर्म का पूरा - पूरा निर्वाह करना मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को छोड़कर और किसी के मान का था ही नहीं । अत: उन्होंने उसको स्वयं चरितार्थ करके यह बतला दिया कि ‘संसार में मनुष्य को धर्ममर्यादा का पालन उसी तरह करना चाहिए, जैसा मैंने किया है ।’

Wednesday, 24 February 2016

चक्रिक भील


ब्राह्मण, श्रत्रिय, वैश्य, शूद्र और जो अन्य अन्त्यज लोग हैं, वे भी हरिभक्तिद्वारा भगवान की शपृरण होने से कृतार्थ हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है । यदि ब्राह्मण भी भगवान के विमुख हो तो उसे भी चाण्डाल से अधिक समझना चाहिए और यदि चाण्डाल भी भगवान का भक्त हो तो उसे भी ब्राह्मण से अधिक समझना चाहिए । द्वापर युग में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था । भील होने पर भी उसके आचरण बहुत ही उत्तम थे । वह मीठा बोलनेवाला, क्रोध जीतनेवाला, अहिंसापरायण, दयालु, दंभहीन और माता पिता की सेवा करनेवाला था । यद्यपि उसने कभी शास्त्रों का श्रवण नहीं किया था तथापि उसके हृदय में भगवान की भक्ति का आविर्बाव हो गया था । सदा हरि, केशव, वासुदेव और जनार्दन आदि नामों का स्मरण किया करता था । वन में एक भगवान हरि की मूर्ति थी । वह भील वन में जब कोई सुंदर फल देखता तो पहले उसे मुंह में लेकर चखता, फल मीठा न होता तो उसे स्वयं खा लेता और यदि बहुत मधुर और स्वादिष्ट होता तो उसे मुंह से निकालकर भक्तिपूर्वक भगवान के अर्पण करता । वह प्रतिदिन इस तरह पहले चखकर स्वादिष्ट फल का भगवान के श्रद्धा से भोग लगाया करता । उसको यह पता नहीं था कि जूठा फल भगवान के भोग नहीं लगाना चाहिए । अपनी जाति के संस्कार के अनुसार ही वह सरलता से ऐसा आचरण किया करता ।
एक दिन वन में घूमते हुए भीलकुमार चक्रिक ने एक पियाल वृक्ष के एक पका हुआ फल देखा । उसने फल तोड़कर स्वाद जानने के लिए उसको जीभपर रखा, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, परंतु जीभपर रखते ही वह गले में उतर गया । चक्रिक को बड़ा विषाद हुआ, भगवान के भोग लगाने लायक अत्यंत स्वादिष्ट फल खाने का वह अपना अधिकार नहीं समझता था । सबसे अच्छी चीज ही भगवान को अर्पण करनी चाहिए उसकी सरल बुद्धि में यहीं सत्य समाया हुआ था । उसने दाहिने हाथ से अपना गला दबा लिया कि जिससे फल पेट में न चला जाएं । वह चिंता करने लगा कि ‘अहो ! आज मैं भगवान को मीठा फल न खिला सका, मेरे समान पापी और कौन होगा ?’
मुंह में अंगुली डालकर उसने वमन किया तब भी गले में अटका हुआ फल नहीं निकला । चक्रिक श्रीहरि का एकांत सरल भक्त था, उसने भगवान की मूर्ति के समीप आकर कुल्हाड़ी से अपना गला एक तरफ से काटकर फल निकाला और भगवान के अर्पण किया । गले से खून बह रहा था । पीड़ा के मारे व्याकुल हो चक्रिक बेहोश होकर गिर पड़ा । कृपामय भगवान उस सरल हृदय शुद्धांत:करम प्रेमी भक्त की महती भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और चतुर्भुजरूप से साक्षात् प्रकट होकर कहने लगे -
इस चक्रिक के समान मेरा भक्त कोई नहीं, क्योंकि इसने अपना कण्ठ काटकर मुझे फल प्रदान किया है - ‘मेरे पास ऐसी क्या वस्तु है जिसे देकर मैं इससे उऋण हो सकूं ? इस भील पुत्र को धन्य है ! मैं ब्रह्मत्व, शिवत्व या विष्णुत्व देकर भी इससे उऋण नहीं हो सकता ।’
इतना कहकर भगवान ने उसके मस्तक पर हाथ रखा । कोमल करकमल का स्पर्श होते ही उसकी सारी व्यथा दूर हो गयी और वह उसी क्षण उठ बैठा ! भगवान उसे उठाकर अपने पीतांबर से जैसे पिता अपने प्यारे पुत्र के अंग की धूल झाड़ता है, उसके अंग की धूल झाड़ने लगे । चक्रिक ने भगवान को साक्षात् अपने सम्मुख देखकर हर्ष से गद गद् कण्ठ हो मधुर वाक्यों से उनकी स्तुति की -
‘हे गोविंद, हे केशव, हे हरि, हे जगदीश, हे विष्णु ! यद्यपि मैं आपकी प्रार्थना करनेयोग्य वचन नहीं जानता तथापि मेरी रसना आपकी स्तुति करना चाहती है । हे स्वामी ! कृपाकर मेरे इस महान दोष का नाश कीजिए । हे चराचरपति, चक्रधारी ! जिस पूजा से प्रसन्न होकर आपने मुझपर कृपा की है, आपकी उस पूजा को छोड़कर संसार में जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं ।’
भगवान उसकी स्तुति से बड़े संतुष्ट हुए और उसे वर मांगने को कहा । सरल भक्त बोला -
हे परब्रह्म ! हे परमधाम !! हे कृपामय परमात्मन् !!! जब मैंने साक्षात् आपके दर्शन प्राप्त कर लिए हैं तो मुझे और वर की क्या आवश्यकता है ? परंतु हे लक्ष्मीनारायण ! आप वर देना ही चाहते हैं तो कृपाकर यहीं वर दीजिए कि मेरा चित्त आप में ही अचलरूप से लगा रहे ।
भक्तों को इस वर के सिवा और कौन सा वर चाहिए ? भगवान परम प्रसन्न हो अपनी चारों विशाल भुजाओं से चक्रिक का आलिंगन करके, भक्ति का वर दे, वहां से अंतर्धान हो गये । तदंतर चक्रिक द्वार का चला गया और वहां भगवत्कृपा से ज्ञान लाभकर अंत में देवदुर्लभ मोक्ष - पद को प्राप्त हो गया । जो कोई भी भगवान की सरल, शुद्ध भक्ति करता है वहीं उन्हें पाता है ।
जो मनुष्य दृढ़ भक्ति के द्वारा इंद्रादि देवपूजित वासुदेव भगवान के चरणकमलयुगल की पूजा करता है, वहीं मुक्ति प्राप्त कर सकता है । बोलो भक्त और उनके भगवान की जय !

वेदमालिको भगवत्प्राप्ति


प्राचीन काल की बात है । रैवत - मंवतर में वेदमालि नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों और वेदांगों के पारदर्शी विद्वान थे । उनके मन में संपूर्ण प्राणियों के प्रति दया भरी हुई थी । वे सदा भगवान की पूजा में लगे रहते थे, किंतु आगे चलकर वे स्त्री, पुत्र और मित्रों के लिए धनोपार्जन करने में संलग्न हो गये । जो वस्तु नहीं बेचनी चाहिए, उसे भी वे बेचने लगे । उन्होंने रस का भी विक्रय किया । वे चाण्डाल आदि से भी दान ग्रहण करते थे । उन्होंने पैसे लेकर तपस्या और व्रतों का विक्रय किया और तीर्थयात्रा भी वे दूसरों के लिए ही करते थे । यह सब उन्होंने अपनी स्त्री को संतुष्ट करने के लिए ही किया । इसी तरह कुछ समय बीत जाने पर ब्राह्मण के दो जुड़वे पुत्र हुए, जिनका नाम था यज्ञमाली और सुमाली । वे दोनों बड़े सुंदर थे । तदनंतर पिता उन दोनों बालकों का बड़े स्नेह और वात्यल्य से अनेक प्रकार के साधनों द्वारा पालन पोषण करने लगे । वेदमालिने अनेक उपायों से यत्नपूर्वक धन एकत्र किया ।
एक दिन मेरे पास कितना धन है यह जानने के लिए उन्होंने अपने धन को गिनना प्रारंभ किया । उनका धन संख्या में बहुत ही अधिक था । इस प्रकार धन की स्वयं गणना करके वे हर्ष से फूल उठे । साथ ही उस अर्थ की चिंता से उन्हें बड़ा विस्मय भी हुआ । वे सोचने लगे - ‘मैंने तुच्छ पुरुषों से दान लेकर, न बेचने योग्य वस्तुओं का विक्रय करके तथा तपस्या आदि को भी बेचकर यह प्रचुर धन पैदा किया है, किंतु मेरी अत्यंत दु:सह तृष्णा अब भी शांत नहीं हुई । अहो ! मैं तो समझता हूं, यह तृष्णा बहुत बड़ी कष्टप्रदा है, समस्त क्लेशों का कारण भी यहीं है । इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओं को प्राप्त कर ले तो भी पुन: दूसरी वस्तुओं की अभिलाषा करने लगता है । जरावस्था (बुढ़ापे) में आने पर मनुष्य के केश पक जाते हैं, दांत गल जाते हैं, आंख कान भी जीर्ण हो जाते हैं, किंतु एक तृष्णा ही तरुण सी होती जाती है । मेरी सारी इंद्रियां शिथिल हो रही हैं, बुढ़ापे ने मेरे बल को भी नष्ट कर दिया, किंतु तृष्णा तरुणी मौजूद है, वह विद्वान होने पर भी मूर्ख, परम शांत होने पर भी अत्यंत क्रोधी और बुद्धिमान होने पर भी अत्यंत मूढ़बुद्धि हो जाता है । आशा मनुष्यों के लिए अजेय शभु की भांति भयंकर है, अत: विद्वान पुरुष यदि शाश्वत सुख चाहे तो आशा को त्याग दे । बल हो, तेज हो, विद्या हो, यश हो, सम्मान हो, नित्य वृद्धि हो रही हो और उत्तम कुल में जन्म हुआ हो तो भी यदि मन में आशा एवं तृष्णा बनी हुई है तो वह बड़े वेग से इन सब पर पानी फेर देती है । मैंने बड़े क्लेश से यह धन कमाया है । अब मेरा शरीर भी गल गया । अत: अब मैं उत्साहपूर्वक परलोक सुधारने का यत्न करुंगा ।’ ऐसा निश्चय करके वेदमालि धर्म के मार्ग पर चलने लगे । उन्होंने उसी क्षण सारे धन को चार भागों में बांटा । अपने द्वारा पैदा किये उस धन में से दो भाग तो ब्राह्मण ने स्वयं रख लिए और शेष दो भाग दोनों पुत्रों को दे दिए । तदनंतर अपने किये हुए पापों का नाश करने की इच्छा से उन्होंने जगह जगह पौंसले, पोखरे, बगीचे और बहुत से देवमंदिर बनवाये तथा गंगाजी के तटपर अन्न आदि का दान भी किया ।
इस प्रकार संपूर्ण धन का दान करके भगवान विष्णु के प्रति भक्ति भाव से युक्त हो वे तपस्या के लिए नर नारायण के आश्रम बदरीवन में गये । वहां उन्होंने एक अत्यंत रमणीय आश्रम देखा, जहां बहुत से ऋषि मुनि रहते थे । फल और फूलों से भरे हुए वृक्षसमूह उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे । शास्त्र - चिंतन में तत्पर, भगवत्सेवापरायण तथा परब्रह्म परमेश्वर की स्तुति में संलग्न अनेक वृद्ध महर्षि उस आश्रम की श्रीवृद्धि कर रहे थे । वेदमालिने वहां जाकर जानंति नामवाले एक मुनि का दर्शन किया, जो शिष्यों से घिरे बैठे थे और उन्हें परब्रह्म तत्त्व का उपदेश कर रहे थे । वे मुनि महान तेज के पुञ्ज से जान पड़ते थे ।
उनमें शम, दम आदि सभी गुण विराजमान थे और राग आदि दोषों का सर्वथा अभाव था । वे सुखे पत्ते खाकर रहा करते थे । वेदमालिने मुनि को देखकर उन्हें प्रणाम किया । जानंति ने कंद, मील और फल आदि सामग्रियों द्वारा नारायण बुद्धि से अतिथि वेदमालिका पूजन किया । अतिथि सत्कार हो जाने पर वेदमालिने हाथ जोड़ विनय से मस्तक झुकाकर वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि से कहा - ‘भगवान ! मैं कृतकृत्य हो गया । आज मेरे सब पाप दूर हो गये । महाभाग ! आप विद्वान हैं, अत: ज्ञान देकर मेरा उद्धार कीजिए ।’
वेदमालिके ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ जानंति बोले - ‘ब्रह्मन ! तुम प्रतिदिन सर्वश्रेष्ठ भगवान विष्णु का भजन करो । सर्वशक्तिमान श्रीनारायण का चिंतन करते रहो । दूसरों की निंदा और चुगली कभी न करो । महीमते ! सदा परोपकार में लगे रहो । भगवान विष्णु की पूजा में मन लगाओ और मूर्खों से मिलना जुलना छोड़ दो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य छोड़कर लोक को अपने आत्मा के समान देखो, इससे तुम्हें शांतु मिलेगी । ईर्ष्या, दोषदृष्टि तथा दूसरे की निंदा भूलकर भी न करो । पाखंडपूर्ण आचार, अहंकार और क्रूरता का सर्वथा त्याग करो । सब प्राणियों पर दया तथा साधु पुरुषों की सेवा करते रहो । अपने किये हुए धर्मों को पूछने पर भी दूसरों पर प्रकट न करो । दूसरों को अत्याचार करते देखो, यदि शक्ति हो तो उन्हें रोको, असावधानी न करो । अपने कुटुंब का विरोध न करते हुए सदा अतिथियों का स्वागत सत्कार करो । पत्र, पुष्प, फल, दूर्वा और पल्लवों द्वारा निष्काम भाव से जगदीश्वर भगवान नारायण की पूजा करो । देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करो । विप्रवर ! विधिपूर्वक अग्नि की सेवा भी करते रहो । देवमंदिर में प्रतिदिन झाड़ू लगाया करो और एकाग्रचित्त होकर उसकी लिपाई - पुताई भी किया करो । देवमंदिर की दीवार में जहां कहीं टूट - फूट गया हो, उसकी मरम्मत कराते रहो । मंदिर में प्रवेश का जो मार्ग हो, उसे पताका और पुष्प आदि से सुशोभित करो तथा भगवान विष्णु के गृह में दीपक जलाया करो । प्रतिदिन यथाशक्ति पुराण की कथा सुनो । उसका पाठ करो और वेदांत का स्वाध्याय करते रहो । ऐसा करने पर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा । ज्ञान से समस्त पापों का निश्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है ।’
जानंति मुनि के इस प्रकार उपदेश देने पर परम बुद्धिमान वेदमालि उसी प्रकार ज्ञान के साधन में लगे रहे । वे अपने - आप में ही परमात्मा भगवान अच्युत का दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए । ‘मैं ही उपाधिरहित स्वयंप्रकाश निर्मल ब्रह्म हूं’ - ऐसा निश्चय करने पर उन्हें परम शांति प्राप्त हुई ।

आल्हा ऊदल की कथा


ऋषियों ने पूछा - सूतजी महाराज ! आपने महाराज विक्रमादित्य के इतिहास का वर्णन किया । द्वापरयुग के समान उनका शासन धर्म एवं न्यायपूर्ण था और लंबे समय तक इस पृथ्वीपर रहा । महाभाग ! उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएं की थीं । आप उन लीलाओं का हमलोगों से वर्णन कीजिए, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं ।
‘भगवान नर नारायण के अवतारस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके सखा नरश्रेष्ठ अर्जुन, उनकी लीलाओं को प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उनके चरित्रों का वर्णन करनेवाले वेदव्यास को नमस्कार कर अष्टादश पुराण, रामायण और महाभारत आदि जय नामसे व्यपदिष्ट ग्रंथों का वाचन करना चाहिए ।’
मुनिगणों ! भविष्य नामक महाकल्प के वैवस्वत द्वापरयुग के अंत में कुरुक्षेत्र का प्रसिद्ध महायुद्ध हुआ । उसमें युद्धकर दुरभिमानी सभी कौरवों पर पाण्डवों ने अठारहवें दिन पूर्ण विजय प्राप्त की । अंतिम दिम भगवान श्रीकृष्ण ने काल की दुर्गति को जानकर योगरूपी सनातन शिव जी की मन से इस प्रकार स्तुति की -
शांतस्वरूपी, सब भूतों के स्वामी, कपर्दी, कालकर्ता, जगद्भर्ता, पाप विनाशक रुद्र ! मैं आपको बार बार प्रणाम करता हूं । भगवन ! आप मेरे भक्त पाण्डवों की रक्षा कीजिए । इस स्तुति को सुनकर भगवान शंकर नंदी पर आरूढ़ हो हाथ में त्रिशूल लिए पाण्डवों के शिविर की रक्षा के लिए आ गये । उस समय महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये थे और पाण्डव सरस्वती के किनारे रहते थे ।
मध्यरात्रि में अश्वत्थामा, भोज (कृतवर्मा) और कृपाचार्य - ये तीनों पाण्डव शिविर के पास आये और उन्होंने मन से भगवान रुद्र की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न कर लिया । इस पर भगवान शंकर ने उन्हें पाण्डव शिविर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी । बलवान अश्वत्थामा ने भगवान शंकरद्वारा प्राप्त तलवार से धृष्टद्युम्न आदि वीरों की हत्या कर दी, फिर वह कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ वापस चला गया । वहां एकमात्र पार्षद सूत ही बचा रहा, उसने इस जनसंहार की सूचना पाण्डवों को दी । भीम आदि पाण्डवों ने इसे शिवजी का ही कृत्य समझा, वे क्रोध से तिलमिला गये और अपने आयुधों से देवाधिदेव पिनाकी से युद्ध करने लगे । भीम आदि द्वारा प्रयुक्त अस्त्र - शस्त्र शिव जी के शरीर में समाहित हो गये । इस पर भगवान शिव ने कहा कि तुम श्रीकृष्ण के उपासक हो अत: हमारे द्वारा तुमलोग रक्षित हो, अन्यथा तुमलोग वध के योग्य थे । इस अपराध का फल तुम्हें कलियुग में जन्म लेकर भोगना पड़ेगा । ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गये और पाण्डव बहुत दु:खी हुए । वे अपराध से मुक्त होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये । नि:शास्त्र पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ एकाग्र मन से शंकर जी की स्तुति की । इस पर भगवान शंकर ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले - देव ! पाण्डवों के जो शास्त्रास्त्र आपके शरीर में लीन हो गये हैं, उन्हें पाण्जवों को वापस कर दीजिए और इन्हें शाप से भी मुक्त कर दीजिए ।
श्रीशिवजी ने कहा - श्रीकृष्णचंद्र ! मैं आपको प्रणाम करता हूं । उस समय मैं आपकी माया से मोहित हो गया था । उस माया के अधीन होकर मैंने यह शाप दे दिया । यद्यपि मेरा वचन तो मिथ्या नहीं होगा तथापि ये पाण्डव तथा कौरव अपने अंशों से कलियुग में उत्पन्न होकर अंशत: अपने पापों फल भोगकर मुक्त हो जाएंगे । युधिष्ठिर वत्सराज का पुत्र होगा, उसका नाम बलखानि होगा, वह शिरीष नगर का अधिपति होगा । भीम का नाम वीरण होगा और वह वनरस का राजा होगा । अर्जुन के अंश से जो जन्म लेगा, वह महान बुद्धिमान और मेरा भक्त होगा । उसका जन्म परिमल के यहां होगा और नाम होगा ब्रह्मानंद । महाबलशाली नकुल का जन्म कान्यकुब्ज में रत्नभानु के पुत्र के रूप में होगा और नाम होगा लक्षण । सहदेव भीमसिंह का पुत्र होगा और उसका नाम होगा देवसिंह । धृतराष्ट्र के अंश से अजमेर में पृथ्वीराज जन्म लेगा और द्रौपदी पृथ्वीराज की कन्या के रूप में वेला नाम से प्रसिद्ध होगी । महादानी कर्ण तारक नाम से जन्म लेगा । उस समय रक्तबीज के रूप में पृथ्वी पर मेरा भी अवतार होगा । कौरव माया युद्ध में निष्णात होंगे तथा पाण्डु पक्ष के योद्धा धार्मिक और बलशाली होंगे ।
सूतजी बोले - ऋषियों ! यह सब बातें सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये और उन्होंने कहा ‘मैं भी अपनी शक्ति विशेष से अवतार लेकर पाण्डवों की सहायता करुंगा । मायादेवी द्वारा निर्मित महावती नाम की पुरी में देशराज के पुत्र - रूप में मेरा अंश उत्पन्न होगा, जो उदयसिंह (ऊदल) कहलाएगा, वह देवकी के गर्भ से उत्पन्न होगा । मेरे वैकुण्ठधाम का अश आह्लाद नाम से जन्म लेगा, वह मेरा गुरु होगा । अग्निवंश से उत्पन्न राजाओं का विनाश कर मैं (श्रीकृष्ण उदयसिंह) धर्म की स्थापना करुंगा ।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर शिव जी अंतर्हित हो गये ।