Sunday, 28 February 2016

शिव और सती


सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ।।
भगवान शिव और माता सती देवी की असीम महिमा बड़े ही सुंदर ढंग से प्रतिपादित की है । भगवान शिव के लिए है क्योंकि संसार में सब धर्मों का सार, सब तत्त्वों का निचोड़ भगवत्प्रेम ही निश्चय किया गया है । भगवान परब्रह्म में दृढ़ निष्ठा का हो जाना ही परम विशिष्ट धर्म है और भगवान शिव ने तो अपने अनुभव से इसी को सार समझकर जगत को नि:सार निश्चित कर लिया था । इसी प्रेम प्रभाव की महिमा से सती ऐसी नारी में भी उनकी आसक्ति न थी । जिस समय त्रेतायुग में कुंभज ऋषि के आश्रम से वे सती के साथ कैलाश को लौट रहे थे, उसी समय सीता हरण के कारण पत्नीवियोग में दु:खित मानव लीला करते हुए श्रीरघुनाथ जी उन्हें दर्शन हुआ और उन्होंने ‘जय सच्चिदानंद परधामा’ कहकर उनको प्रणाम किया । इस परसती को यह संदेह हुआ कि नृपसुत को ‘सच्चिदानंद परधामा’ कहकर सर्वज्ञ शिव ने क्यों प्रणाम किया । भगवान शिव ने सती को भगवत अवतार की बात अनेक प्रकार से समझायी, परंतु उन्हें बोध न हुआ ।
शिव जी ने अपने हृदय में ध्यान धरकर देखा कि ‘इसमें हरिमाया की प्रेरणा हो रही है, क्योंकि जब प्रभु की जो इच्छा है उसी में सती को प्रेरित कर देना हमारा भी धर्म है ।’ भगवान शिव के विषय में यह प्रमाण है कि जिस भावी में हरि की इच्छा शामिल है उसे हृदय में विचार कर भगवान शिव कदापि उसके मेटने की इच्छा नहीं करते बल्कि वैसा ही होने में आप भी सहायक हो जाते हैं । सच है, सुजान भक्तों की भक्ति का इसी से परिचय मिलता है ।
वस्तुत: बात भी यहीं है, भगवान शिव तथा श्रीवसिष्ठ जी को भावी के मेटने की सामर्थ्य भी तो रामभक्ति के प्रताप से ही मिली थी । श्रीमहादेव अथवा मुनि वसिष्ठ जी अपने देवपन या मुनिपन के बल से विधि - अंकों के मिटाने की सामर्थ्य तो रखते नहीं थे । यह अघटित - घटन की सामर्थ्य भगवान की दया से और भगवद् भक्ति के प्रताप से भक्तों को ही हो सकती है । अत: उन भक्तों का यह सिद्धांत रहता है कि ‘हम तो तुम्हारी खुशी में खुश हैं, और कुछ नहीं चाहते’ - राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है !
सती को परीक्षा लेने का आदेश करते समय भगवान शिव ने इतना चेता दिया था - ‘करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी’; परंतु सती ने परीक्षा लेने के लिए श्रीसीता जी का ही वेष धारण किया, जिसमें शिव जी ने अपनी स्वामिनी और माता की दृढ़ निष्ठा कर रखी थी । भगवान भक्तवत्सल ने उनकी बुद्धि में प्रेरणा की कि सदा के लिए त्याग की जरूरत नहीं है । केवल इसी जन्म में सती को त्याग करना संकल्प ठीक है, जिसमें उन्होंने सीता का वेश धारण किया है । अतएव ऐसा ही संकल्प भगवान शिव ने किया, जिससे दोनों काम हो गये, न तो सदा के लिए सती का त्याग करना पड़ा और न उस शरीर से प्रीति ही रखी गयी ।
भगवान शिव के इस रहस्य से यह उपदेश मिलता है कि जब कोई धर्मसंकट आ पड़े तो सच्चे हृदय से हरि स्मरण करने से ही उसके निर्वाह की राह निकल आयेगी । अतएव जब केवल एक जन्म के लिए सती का त्याग हो गया, तब सती को अपनी करनी पर अत्यंत पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने भी उन्हीं परमप्रभु श्रीरघुनाथ जी की हृदय से प्रतिपत्ति ली और कहा - हे दीनदयाल !! मेरा यह शरीर शीघ्र छूट जाये, जिससे मैं दु:ख सागर को पार कर पुन: भगवान शिव जी को प्राप्त कर सकूं ।
भगवत्कृपा से योग लग गया और अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाकर योगानल से शरीर को त्यागकर सती ने हिमाचल के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म धारण कर भगवान शिव को पुन: पतिरूप में प्राप्त कर लिया ।

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