उशीनर - पुत्र हरिभक्त महाराज शिबि बड़े ही दयालु और शरणागतवत्सल थे । एक समय राजा एक महान यज्ञ कर रहे थे । इतने में भय से कांपता हुआ एक कबूतर राजा के पास आया और उनकी गोद में छिप गया । इतने में ही उसके पीछे उड़ता हुआ एक विशाल बाज वहां आया और वह मनुष्य की सी भाषा में उदार हृदय राजा से बोला -
बाज - हे राजन ! पृथ्वी के धर्मात्मा राजाओं में आप सर्वश्रेष्ठ हैं, पर आज आप धर्म से विरुद्ध कर्म करने की इच्छा कैसे कर रहे हैं ? आपने कृतघ्न को धन से, झूठ को सत्य से, निर्दयी को क्षमा से और असाधु को अपनी साधुता से जीत लिया है । उपकार करने वाले के साथ तो सभी उपकार करते हैं, परंतु आप बुराई करने वाले का भी उपकार करते हैं । जो आपका अहित करता है और उसका भी हित करना चाहते हैं । पापियों पर भी आप दया करते हैं । और तो क्या, जो आप में दोष ढूंढ़ते हैं उनमें भी आप गुण ही ढूंढ़ते हैं । ऐसे होकर भी आज आप यह क्या कर रहे हैं ? मैं भूख से व्याकुल हूं । मुझे यह कबूतररूपी भोजन मिला है, आप इस कबूतर के लिए अपना धर्म क्यों छोड़ रहे हैं ?
कबूतर - महाराज ! मैं बाज से डरकर प्राणरक्षा के लिए आपके शरण आया हूं । आप मुझे बाज को कभी मत दीजिए ।
राजा - (बाज से) तुमसे डरकर यह कबूतर अपनी प्राणरक्षा के लिए मेरे समीप आया है । इस तरह से शरण आये हुए कबूतर का त्याग मैं कैसे कर दूं ? जो मनुष्य शरणागत की रक्षा नही कतरते या लोभ, द्वेष अथवा भय से उसे त्याग देते हैं, उनकी सज्जन लोग निंदा करते हैं और उनको ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है । जिस तरह हम लोगों को अपने प्राण प्यारे हैं, उसी तरह सबको प्यारे हैं । अच्छे लोगों को चाहिए कि वे मृत्युभय से व्याकुल जीवों की रक्षा करें । मैं ‘मरूंगा’ यह दु:ख प्रत्येक पुरुष को होता है । इसी अनुमान से दूसरे की भी रक्षा करनी चाहिए । जिस प्रकार तुमको अपना जीवन प्यारा है, उसी प्रकार दूसरों को भी अपना जीवन बचाना चाहते हो, उसी तरह तुम्हें दूसरों के जीवन की भी रक्षा करनी चाहिए । हे बाज ! मैं यह भयभीत कबूतर तुम्हें नहीं दे सकता और किसी उपाय से तुम्हारा काम बन सकता हो तो मुझे शीघ्र बतलाओ, मैं करने को तैयार हूं ।
बाज - महाराज ! भोजन से ही जीव उत्पन्न होते, बढ़ते और जीते हैं, बिना भोजन कोई नहीं रह सकता । मैं भूख के मारे मर जाउंगा तो मेरे बाल बच्चे भी मर जाएंगे । एक कबूतर के बचाने में बहुत से जीवों की जानें जाएंगी । हे परंतप ! उस धर्म को धर्म नहीं कहना चाहिए जो दूसरे धर्म में बांधा पहुंचाता है । श्रेष्ठ पुरुष उसी को धर्म बतलाते हैं जिससे किसी भी धर्म में बाधा नहीं पहुंचती । अतएव दो धर्मों का विरोध होने पर बुद्धिरूपी तराजू से उन्हें तौलना चाहिए और जो अधिक महत्त्व का भारी मालूम हो उसे ही धर्म मानना चाहिए ।
राजा - हे बाज ! भय में पड़े हुए जीवों की रक्षा करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है । जो मनुष्य दया से द्रवित होकर जीवों को अभयदान देता है, वह इस देह के छूटने पर संपूर्ण भय से छूट जाता है । लोक में बड़ाई या स्वर्ग के लिए धन, वस्त्र और गौ देने वाले बहुत हैं, परंतु सब जीवों की भलाई करने वाले पुरुष दुर्लभ हैं । बड़े - बड़े यज्ञों का फल समय पर क्षय हो जाता है, पर भयभीत प्राणी को दिया हुआ अभयदान कभी क्षय नहीं होता । मैं राज्य या अपने दुस्त्यज शरीर का त्याग कर सकता हूं, पर इस दीन, भय से त्रस्त कबूतर को नहीं छोड़ सकता ।
‘अपने पहले के जन्मों में जो कुछ भी पुण्य किया है, उसका फल मैं केवल यहीं चाहता हूं कि दु:ख और क्लेश में पड़े हुए प्राणियों का मैं क्लेश नाश कर सकूं । मैं न राज्य चाहता हूं, न स्वर्ग चाहता हूं और न मोक्ष चाहता हूं । मैं चाहता हूं केवल दु:ख में तपते हुए प्राणियों के दु:ख का नाश ।’
हे बाज ! तुम्हारा यह काम केवल आहार के लिए है । तुम आहार चाहते हो, मैं तुम्हारे दु:ख का भी नाश चाहता हूं, अतएव तुम मुझसे कबूतर के बदले में चाहे जितना और आहार मांग लो ।
बाज - हमलोगों के लिए शास्त्रनुसार कबूतर ही आहार है, अतएव आप इसी को छोड़ दीजिए ।
राजा - हे बाज ! मैं भी शास्त्र से विपरीत नहीं कहता । शास्त्र के अनुसार सत्य और दया सबसे बड़े धर्म हैं । उठते, बैठते, चलते, सोते या जागते हुए जो काम जीवों के हित के लिए नहीं होता वह पशुचेष्टा के समान है । जो मनुष्य स्थावर और जीनों की आत्मवत् रक्षा करते हैं, वे ही परम गति को प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य समर्थ होकर भी मारे जाते हुए दीवकी परवाह नहीं करता, वह घोर नरक में गिरता है । मैं तुम्हें अपना समस्त राज्य दे सकता हूं या इस कबूतर के सिवा तुम जो कुछ भी चाहोगे सो देने को तैयार हूं, पर कबूतर को नहीं दे सकता ।
बाज - हे राजन ! यदि इस कबूतर पर आपका इतना ही प्रेम है तो इस कबूतर के ठीक बराबर का तौलकर आप अपना मांस मुझे दे दीजिए, मैं अधिक नहीं चाहता ।
राजा - बाज ! तुमने बड़ी कृपा की । तुम जितना चाहो उतना मांस मैं देने को तैयार हूं । इस क्षणभंगुर, अनित्य शरीर को देकर भी जो नित्य धर्म का आचरण नहीं करता वह मूर्ख शोचनीय है । ‘यह शरीर यदि प्राणियों के उपकार के लिए उपयोग में न आयें तो प्रतिदिन इसका पालन पोषण करना व्यर्थ है ।’ हे बाज ! मैं तुम्हारे कथनानुसार ही करता हूं ।
यह कहकर राजा ने एक तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े में कबूतर को बैठाकर दूसरे में वे अपना मांस काट - काटकर रखने लगे और उसे कबूतर के साथ तौलने लगे । अपने सुखभोग की इच्छा को त्याग कर सब के सुख में सुखी होने वाले सज्जन ही दूसरों के दु:ख निवारण हो, इसलिए आज महाराज शिबि अपने शरीर का मांस अपने हाथों प्रसन्नचा से काट काटकर दे रहे हैं । भगवान छिपे - छिपेअपने भक्त के इस त्याग को देख देखकर प्रसन्न हो रहे हैं । धन्य त्याग का आर्दश !
तराजू में कबूतर का वजन मांस से बढ़ता गया, राजा ने शरीर भर का मांस काटकर रख दिया, परंतु कबूतर का पलड़ा नीचा ही रहा । तब राजा स्वयं तराजू पर चढ़ गये । ठीक ही तो है -
‘दूसरे के दु:ख से आतुर सदा समस्त प्राणियों के हित में रत महात्मा लोग अपने महान सुख की तनिक भी परवाह नहीं करते ।’ राजा शिबि के तराजू में चढ़ते ही आकाश में बाजे बजने लगे और नभ से पुष्प वृष्टि होने लगी । राजा मन में सोत रहे थे कि यह मनुष्य की सी वाणी बोलने वाले कबूतर और बाज कौन हैं ? तथा आकाश में बाजे बजने का क्या कारण है, इतने ही में वह बाज और कबूतर अंतर्धान हो गये और उनके बडले में दो दिव्य देवता प्रकट हो गये । दोनों देवता इंद्र और अग्नि थे । इंद्र ने कहा -
‘राजन ! तुम्हारा कल्याण हो !! मैं इंद्र हूं और जो कबूतर बना था वह यह अग्नि है । हम लोग तुम्हारी परीक्षा करने आये थे । तुमने जैसा दुष्कर कार्य किया है ऐसा आजकर किसी ने नहीं किया । यह सारा संसार मोहमय कर्मपाश में बंधा हुआ है, परंतु तुम जगत के दु:खों से छूटने के लिए करुणा से बंध गये हो । तुमने बड़ों से ईर्ष्या नहीं की, छोटों का कबी अपमान नहीं किया और बराबर वालों के साथ कभी स्पर्धा नहीं की, इससे तुम संसार में सबसे श्रेष्ठ हो । विधाता ने आकाश में जल से भरे बादलों को और फल से भरे बृक्षों को परोपकार के लिए ही रचा है । जो मनुष्य अपने प्रामों को त्यागकर भी दूसरे के प्राणों की रक्षा करता है, वह उस परधाम को पाता है जहां से फिर लौटना नहीं पड़ता । अपना पेट भरने के लिए तो पशु भी जीते हैं, किंतु प्रशंसा के योग्य जीवन तो उन लोगों का है जो दूसरों के लिए जीते हैं, सत्य है । चंदन के वृक्ष अपने ही शरीर को शीतल करने के लिए नहीं उत्पन्न हुआ करते । संसार में तुम्हारे सदृष अपने सुख की इच्छा से रहित, एकमात्र परोपकार की बुद्धिवाले साधु केवल जगत के लिए ही पृथ्वी पर जन्म लेते हैं । तुम दिव्य रूप धारण करके चिरकाल तक पृथ्वी का पालन कर अंत में भगवान के ब्रह्मलोक में जाओगे ।’
इतना कहकर इंद्र और अग्नि स्वर्ग को चले गये । राजा शिबि यज्ञ पूर्ण करने के बाद बहुत दिनों तक पृथ्वी का राज्य करके अंत में दुर्लभ परम पद को प्राप्त हुए ।
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