Wednesday 17 February 2016

राजा खनित्र का सद्भाव


पूर्वकाल में प्रांशु नामक एक चक्रवती सम्राट थे । इनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम प्रजाति था । प्रजाति के अनित्र, शौरि, उदावसु, सुनय, महारथ नामक पांच पुत्र हुए । उनमें खनित्र ही अपने पराक्रम से विख्यात राजा हुए थे । वे शांत, सत्यवादी, शूर सब प्राणियों के हितैषी, स्वधर्म परायण, सर्वदा वृद्ध सेवी, विजय - संपन्न और सर्वलोकप्रिय थे । वे सदा यहीं चाहते थे कि सब प्राणी आनंद का उपभोग करें । उन्होंने प्रीति पूर्वक भाइयों को विभिन्न राज्यों में प्रतिष्ठित कर स्वयं सागरस्वरूप वस्त्र से मंडित पृथ्वी का पालन करने लगे । उन्होंने शौरि को पूर्वप्रांत, उदावसु को दक्षिणदेश, सुनय को पश्चिमदेश एवं महारथ को उत्तरदेश के राज्यपद पर प्रतिष्ठित किया । खनित्र और उनके भाइयों के राज्य में विभिन्न गोत्रवाले मुनिगण पौरोहित्य कर्म के लिए नियुक्त थे ।
अत्रिकुल में उत्पन्न सुहोत्र नामक द्विज शौरि के, गौतम वंश में उत्पन्न कुशावर्त उदावसु के, कश्यप गोत्र में उत्पन्न प्रमति राजा थे । ये चारों राजा अपने राज्यों का उपभोग करते थे और खनित्र उन सभी महीपतियों के अधीश्वर थे । किसी समय शौरि के मंत्री विश्ववेदी ने अपने स्वामी से कहा - ‘इस समय एकांत है, इसलिए मैं कुछ कहना चाहता हूं । यह समस्त पृथ्वी जिसके अधीन है, वह राजा और उसके पुत्र पौत्रादि वंशधर ही सदा राजा होंगे । दूसरे भ्राताओं के अधिकार में छोटे - छोटे राज्य हैं, जो पुत्रों में बंटकर छोटे होते जाएंगे और अंत में उनके वंशधरों को कृषि से जीविका निर्वाह करनी पड़ेगी । राजन ! भाई कभी भाई का उद्धार करना नहीं चाहता, फिर भाई के पुत्रों पर स्नेह कहां से हो सकता है, अत: मेरी तो यहीं मंत्रणा है कि आप ही पितृ - पितामहादि के राज्य का शासन कीजिए । मैं इसी के लिए प्रयत्नशील हूं ।’
यह सुनकर राजा ने कहा - ‘मंत्रिवर ! वर्तमान महीपाल हमारे बड़े भाई हैं और हम उनके अनुज हैं । इसी से वे समस्त पृथ्वी का शासन करते हैं और हम छोटे - छोटेराज्यों का ही है । फिर समग्र पृथ्वी के ऐश्वर्य का स्वतंत्ररूप से उपभोग करने में हम सभी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?’
मंत्री ने कहा - ‘मेरा अभिप्राय यह है कि उस पृथ्वी को आप ही स्वीकार करें और सबके प्रधान बनकर पृथ्वी का शासन करें ।’ अंत में राजा शौरि के प्रतिज्ञा कर लेने पर मंत्री विश्ववेदी ने उनके अन्यान्य भाइयों को वशीभूत कर लिया और उऩके पुरोहितों को अपने यहां शांतिकर्म में नियुक्त कर खनित्र के अनिष्ट के लिए अत्यंत उग्र आभिचारिक (मंत्र - तंत्रादि) कर्म का अनुष्ठान प्रारंभ करा दिया । उसने खनित्र के अंतरंग विश्वासपात्र सेवकों को अपनी ओर मिला लिया और ऐसी चालें चलीं, जिनसे शौरि का राजदण्ड अप्रबाधित हो जाएं । चारों पुरोहितों के आभिचारिक प्रयोग से चार भयानक कृत्याएं उत्पन्न हुईं, जिन्हें देखकर ही छाती दहल जाती थी । वे हाथ में बड़े - बड़े शूल लिए हुए थीं । वे शीघ्रतापूर्वक खनित्र के पास गयीं, किंतु निष्पाप राजा के पुण्य बल से शीघ्र ही हतप्रभ हो गयीं । तब वे लौटकर उन चारों राजपुरोहितों और विश्वेदी के निकट आयीं । उन्होंने शौरि को दुष्ट मंत्रमा देने वाले मंत्री विश्ववेदी और उन पुरोहितों को जलाकर भस्म कर दिया । उस समय सभी लोगों को इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ कि भिन्न - भिन्न नगरों में निवास करने वाले सब के सब पुरोहित एक साथ कैसे नष्ट हो गये । महाराज खनित्र ने जब अपने भाइयों के पुरोहितों और एक भाई के मंत्री विश्वेदी के एकाएक भस्म हो जाने का समाचार सुना, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ । उन्होंने घर पर आये हुए महर्षि वसिष्ठ से भाइयों के पुरोहितों और मंत्री के विनाश का कारण पूछा । तब महामुनि जो बातचीत हुई थी तथा पुरोहितों ने जो कुछ किया था, वह सब वृतांत कह सुनाया ।
राजा ने कहा - ‘मुने ! मैं हतभागी और बड़ा अयोग्य हूं । दैव मेरे प्रतिकूल है और मैं सब लोकों में निंदित तथा पापी हूं । मुझ अपुण्यात्मा को धिक्कार है, क्योंकि मेरे कारण ही चार ब्राह्मणों का विनाश हुआ है । अत: मुझसे बढ़कर भूमंडल में दूसरा पापी कौन हो सकता है ?’
इस प्रकार पृथ्वीपति खनित्र ने उद्विग्न होकर वन में चले जाने की इच्छा से अपने क्षुप नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और पत्नियों को साथ लेकर तपस्या के लिए वन में गमन किया । उन नृपश्रेष्ठ ने वन में जाकर वानप्रस्थ - विधान के अनुसार साढ़े तीन सौ वर्षों तक तपस्या की । अंत में उन वनवासी राजा ने तपस्याद्वारा अपने शरीर को क्षीण कर सब इंद्रियों का निरोध करते हुए प्राणों का विसर्जन कर दिया । अन्यान्य नृपति सैकड़ो अश्वमेध यज्ञ करके भी जिस लोक को प्राप्त नहीं कर सकते, खनित्र ने मृत्यु के पश्चात उस सर्वाभीष्टप्रद पुण्य लोक को प्राप्त कर लिया 

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