Tuesday, 2 February 2016

कलियुग का पुनीत प्रताप




कलियुग का एक पुनीत (पवित्र) प्रताप यह है कि इसमें मानसिक पुण्य तो फलदायी होते हैं, परंतु मानसिक पापों का फल नहीं होता । ‘पुनीत प्रताप’ इसलिए कहा गया है कि जिस प्रकार सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में मानसिक पापों के भी फल जीवों को भोगने पड़ते थे उस प्रकार कलियुग में नहीं होता । यहीं कलि की एक विशेषता है । मानसिक पुण्य तो जैसे अन्य युगों में फल देते हैं । अतएव मानसिक पुण्य के विचार से नहीं, बल्कि मानसिक पाप के फल न देने के विचार से ही कलियुग के पुनीत प्रताप का यहां उल्लेख किया गया है । इसी से ‘मानस पुन्य होहिं नहिं पापा’ अर्थात् मानस - पुण्य तो होते ही रहेंगे और मानसिक पाप नहीं लगेगा - ऐसा कहा गया है । इसी पुनीत प्रताप के कारण कलि में जीवों के लिए कुशल है, नहीं तो उनका पाप से उद्धार होना अत्यंत कठिन हो जाता । क्योंकि -
यह मलिन कलियुग केवल मल का मूल है । मनुष्यों के मन पापरूपी समुद्र में मछली की भांति मग्न रहते हैं । भला मछली कब जल से उपरत होना चाहती है । इसी प्रकार कलि में जीवों के मन कभी पाप से अलग होना नहीं चाहते । इसलिए यदि मानसिक पाप की माफी न होती तो उनका उद्धार कैसे हो सकता ?
इस पर यह शंका हो सकती है कि यदि मानसिक पाप नहीं लगते तब तो लोग इनसे भय नहीं करेंगे और सदा मन में पाप - चिंतन ही किया करेंगे । साथ ही, कोई भी मनुष्य पाप से मन के निरोध करने के लिए यह वचन नहीं है, बल्कि पाप की ओर मन की सहज प्रवृत्ति देखकर जीवों को धैर्य बंधाने के लिए है । अभिप्राय यह है कि मन पाप की ओर जाता है तो उससे घबराना नहीं चाहिए, बल्कि सावधानी से बारंबार उसे पुण्य की ओर लगातार पुण्य के सुखद फल का भागी होना चाहिए । यहां मानस - पुण्य के स्वरूप को भी जान लेना जरूरी है, क्योंकि लोग बहुधा शंका करते हैं कि क्या हमने दस हजार गोदान करने को मन में कह दिया तो उसका पुण्य हमें हो जाएंगा ? ऐसा कहना वाले लोग भूलते हैं । असल बात तो यह है कि ऐसा कहते समय भी मन में यह विचार रहता ही है कि हमारे पास न गौएं हैं, न उनके खरीदने के लिए धन ही है और न हमारे इस प्रकार कह देने मात्र से किसी को गौएं दान में मिलती ही हैं - इत्यादि । फिर यह मानसिक पुण्य कैसे हुआ ? मिथ्या होने के कारण इसे मानसिक चाहें तो कह भी सकते हैं । मानस - पुण्य उसे कहते हैं, जिसकी मन में सच्ची धारणा हो । जैसे किसी ने ब्राह्मण भोजन कराने के लिए आटा, चीनी, घी आदि सामान इकट्ठा किया । वह दूसरे दिन ब्राह्मण - भोजन कराना चाहता था, परंतु संयोगवश वह उसी रात को मर गया । ऐसी अवस्था में मानस - पुम्य के रूप में उसे ब्राह्मण - भोजन कराने का फल मिलेगा । इसके सिवा सत्य, क्षमा, दया, दान, परोपकार आदि सद् गुणों का बारंबार चिंतन करना मानसिक पुण्य है और मन में अपने इष्टदेव का ध्यान तथा स्मरण और जप का निरंतर अभ्यास करना तो दिव्य मानसिक पुण्य है ही ।
कलि में मानसिक पाप नहीं लगते, इसका यह अभिप्राय नहीं है कि सदा मानसिक पापों में रत रहा जाएं । मानसिक पाप नहीं लगते, इस विचार से जो मनुष्य पापों में मन को लगावेगा उसके समान मूर्ख कौन होगा । क्योंकि मानसिक पाप न लगे, न लगे; पर पाप चिंतन में मन लगाएं रखने से लाभ ही क्या होता है ? उससे तो जीवन व्यर्थ नष्ट होता है, मानसिक व्यग्रता होती है और फिर जिस विषय का अधिक चिंतन होता है, वैसी ही क्रिया भी होने लगती है । मानसिक पाप को शारीरिक होते देर नहीं लगती, इसलिए उसके बदले में मन को शुभ कर्म - चिंतन में लगाकर पुण्यसंचयकर शांति का उपभोग करना ही बुद्धिमत्ता है ।
काकभुशुण्डिजी ने ठीक ही कहा है -
अर्थात् हे गरुड़ जी ! बतलाइए ऐसा कौन अभागा है जो कामधेनु को छोड़कर गधी को पालता है ? सारांश यह है कि मानस - पुण्य का उपार्जन करना छोड़ करके मानस - पाप में रमण करना कामधेनु को छोड़कर गधी को पालने के समान है ।
कोई - कोई अर्थ करने वाला ‘होहिं नहिं’ पद को दोनों ओर लगाकर ऐसा अर्थ करते हैं कि ‘न मानस - पुण्य होते हैं और न मानस - पाप ।’ परंतु यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा अर्थ करने से ‘पुनीत प्रतापा’ में जो प्रशंसा - सूचक अभिप्राय है वह व्यर्थ हो जाता है । ग्रंथ के प्रसंग और अनुबंध का विचार करने पर हमारा उपर्युक्त अर्थ ही ठीक जान पड़ता है ।

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