Thursday 4 February 2016

व्रज जीवन का संगठन और तैयारी


शैशव काल से ही भगवान ने अपने प्रेम के प्रभाव से सारे वज्र को एकता के सांचे में ढाल दिया था । पहले तो जैसा हम ऊपर कह आये हैं, उन्होंने सब लोगों के हित की दृष्टि से सारे वज्र की संपत्ति को बराबर बांट दिया और मनुष्यों, पशुओं तथा प्रकृति को एकता के सूत्र में बांध दिया । साथ ही सेवा, खेल और संग से उन्होंने समस्त प्राणियों के हृदयों पर अधिकार कर लिया । नि:स्वार्थ एवं अहंताशून्य प्रेम के मार्ग में देहाभिमान बड़ा बाधक होता है । चीरहरण की लीला में जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है, भगवान ने अपनी प्रेमिकाओं का यह अभिमान दूर कर दिया । उन्हें प्रेम के आवेश में सब कुछ भुला दिया । ‘मैं सदा अपने प्रेमास्पद की सेवा करुंगा, किंतु उससे सेवा नहीं चाहूंगा’ यह भाव गर्वपूर्ण अहंकार का द्योतक है । इसलिए भगवान बहुधा उन्हें कठिन परिस्थिति में डालकर उन्हें इस अहंकार से मुक्त किया करते थे । वैयक्तिक मोक्ष की कामना सच्चे प्रेम में बड़ी बाधक है । इसलिए जब भगवान की प्रेमिका यज्ञ पत्नियों ने उसकी इच्छा की तब भगवान ने उनके भ्रमपूर्ण संस्कारों को शुद्ध करके उन्हें वापस अपने पतियों के पास लौटा दिया और कहा कि जिन्हें तुम छोड़ आयी हो, उन्हीं को ज्ञान और प्रेम का पाठ पढ़ाओ ।
भगवान ने यह भी कहा कि मेरे समीप रहने से नहीं, अपितु दूर रहकर मेरा चिंतन तथा दीनों की सेवा करने से तुम्हारे प्रेम की वृद्धि होगी । यज्ञादि कर्मों के तात्पर्य और महत्त्व को बिना समझे ही उनमें अंधविश्वासपूर्वक चिपट जाना सच्चे प्रेम का एक - दूसरा शत्रु है । गोवर्धन यज्ञ के अवसर पर भगवान ने इसके विरुद्ध आंदोलन खड़ा किया और इस सिद्धांत को स्थापितकिया कि अंधविश्वास और ऊंच - नीच के भेद को प्रधानता न देकर बुद्धि तथा प्रेम को ही प्रधानचा देनी चाहिए । नाना प्रकार से सबके हृदय को तथा समस्त भूतप्राणियों को एकता के सूत्र में बांध देने के अनंतर भगवान ने वेणु बजाकर उसके अंदर से उस दिव्य संगीत की धारा प्रवाहित की, जिसने विश्वभर के भूतप्राणियों की हृत्तन्त्री को हिला दिया और सबको एक प्रेम के रूप में परिणत कर दिया । गोपियों ने उसे सुना और हर्षोन्मत्त हो वे परस्पर उसकी इस प्रकार चर्चा करने लगीं कि ‘अहो ! कैसा आश्चर्य है, इस दिव्य संगीत को सुनकर चेतन जीव आनंद से निस्पंद हो गये हैं और जड़ पदार्थों में स्पंदन होने लगा है ।’ यह साहचर्य का संगीत था । इसके अनंतर भगवान ने एक दूसरी मादकतापूर्ण तान छेड़ी, जिसके भीतर उन लोगों के साथ आंतरिक संबंध स्थापित करने की उत्कण्ठा भरी हुई थी, जो प्रेम की उच्चतम अवस्था को पहुंच चुके थे । इन तान में भरी हुई मादकताने तो अखिल प्रकृति के बाह्य रूप को ही पलट दिया और सारे हृदयों को जो उसके पात्र थे, विशुद्ध प्रेम की ओर बरबस खींच लिया । गोपियां जो उनके समीप आयीं, प्रकृति के सहवास तथा प्रेम की गाढ़ता में भगवान से कम नहीं थीं ।
तब वहां सर्वोत्कष्ट एवं पवित्रतम प्रेम का सागर उमड़ पड़ा और हिलोरें लेने लगा, उसने श्रीकृष्ण एवं गोपियों की क्रीड़ा को प्रभावित कर उसे एक निराला ही रूप दे दिया । उस समय का दृश्य चित्त को मोहित करने वाला था, जिसे देखकर भाववेशित होने के लिए देवतागण, चंद्रमा, नक्षत्र एवं काल भी वहां आये और स्तब्ध होकर खड़े रह गये । अतिशय पवित्र एवं अहंकार शून्य प्रेममूर्तियों के साथ इस प्रकार के उल्लासपूर्ण मिलन को संपन्न कर श्रीकृष्ण ‘एधितार्थ’ हो गये और आगे चलकर जो काम उन्होंने मथुरा एवं द्वारका में किया, उसके लिए उचित सामग्रियों से संपन्न हो गये । इसके अनंतर उनके सारे ही कार्य, लोगों की हित कामना तथा उनके प्रति सच्चे एवं दूरदर्शितापूर्ण प्रेम का ही हेतु लेकर होते थे । आततायियों को भी जो आप दिखावटी दण्ड देते थे, उसमें भी इनका प्रेम भरा रहता था । इस बात का पता कालिया नाग को दिखावटी दण्ड दिये जाने पर उसकी पत्नियों के द्वारा की गयी स्तुति से स्पष्ट लग जाता है

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