पुराणों में भगवान की लीलाओं का वर्णन है । परंतु आजकल इतिहास पुराण ग्रंथों पर से लोगों की श्रद्धा घटती जाती है । उनका पठन - पाठन, उनकी कथा धीरे - धीरे लोप हो रही है । यहीं कारण है कि जनसाधारण में से स्वधर्म का त्रान नष्ट हो रहा है और धार्मिक प्रवृत्ति भी मंद हो गयी है । धार्मिक शिक्षा का पुराणों से श्रेष्ठ साधन और कोई नहीं है । दर्शनशास्त्र का गृढ़ ज्ञान सबको प्राप्त नहीं हो सकता । सबकी बुद्धि और रुचि उसमें नहीं हो सकती । अतएव रोचकता के साथ सरल रीति से धार्मिक सिद्धांतों और आदर्स चरित्रों की शिक्षा इतिहास - पुराण ग्रंथों से ही मिल सकती है । वेद की आज्ञा है - ‘सत्यं वद’ । इस सूक्ष्म तत्त्व को रोचक उपाख्यान का रूप देकर हरिश्चंद्र की कथा पुराण में वर्णन की गयी । इसी प्रकार श्रुति - वाक्य ‘धर्म चर’ को समझाने के लिए महाभारत में अनेक कथाएं वर्णित हैं - जैसे युधिष्ठिर की । जटिल और गृढ़ धार्मिक सिद्धांतों को साहित्य और कला से सरस बनाकर जनसाधारण के लिए उपादेय और बोधगम्य बनाना पुराणों का काम है । फिर कौन महाकवि ऐसा है, जो पुराणों कै ऋणी न हो ? आर्यसभ्यता का सच्चा चित्रऔर उसके उच्च आदर्शों का वर्णन पुराणों में ही तो मिलता है । जो उनको उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं या तिरस्कार बुद्धि से उनको त्याज्य समझते हैं, वे हिंदू धर्म और संस्कृति के एक आधार - स्तंभ को समूल नष्ट करना चाहते हैं ।
जब पुराणों का प्रचार ही न रहा तो उनकी कथाओं में से अध्यात्म तत्त्व खोज निकालने और उसकी मीमांसा करने की फिर बात ही क्या रही ? इस प्रयास से संभवत: यह स्पष्ट होगा कि पुराणवर्णित भगवान की लीलाएं भक्त, ज्ञानी और जनसाधारण सभी के लिए उपादेय हैं । श्रीकृष्ण भगवान की यह लीला सुविख्यात है । एक दिन यशोदा मैया गृहदासियों को और कामों में लगाकर स्वयं दही मथने बैठ गयी और कृष्णलीला के मधुर गीत गाने लगी । इतने में ही बालक श्रीकृष्ण ने आकर रई पकड़ ली और मथना बंध करा स्तनपान का आग्रह किया । यशोदा मैया ने मथना छोड़कर बालक को गोद में ले लिया और दूधपान कराने लगी । इतने ही में पा ही चूल्हे पर दूध उफनने लगा । माता ने अतृप्त बालक को झट गोद से उतार दिया और दूध की ओर झपटकर चली गयी । भला, बालक को यह कैसे सहन होता ? क्रोध में आकर दही की मटकी फोड़ डाली और वहां से खिसक गया । यशोदा ने लौटकर देखा तो मटकी फूटी पड़ी है, दही सब फैला हुआ है और प्रभु अनुपस्थित ।
हाथ में लकड़ी लेकर यशोदा खोजने जाती है तो क्या देखती है कि माखन चुराकर बंदरों को बांटा जा रहा है । जैसे तैसे यशोदा ने नटखट बालक को पकड़ पाया, परंतु दया के कारण छड़ी से व पीटकर उसे बांधने की धमकी दी, बालक भी नाटकीय लीला दिखाकर भयभीत होने का बहाना बनाने लगा । जब यशोदा ने बांधना चाहा तो रस्सी छोटी हो गयी । रस्सी को जोड़कर बढ़ाती गयी तो भी रस्सी छोटी ही रही और वह भी केवल दो अंगुल । अंत में जब वह थक गयी, पसीना आ गया और समझ गयी कि उसके बांधे बालक न बंधेगा तो श्रीकृष्ण को दया आ गयी और तुरंत स्वयं ही बंध गये और बंधकर क्या किया - दूसरों का उद्धार ।
फिर भी जो इस लीला का वास्तविक तत्त्व समझना चाहते हैं उनके लिये इसके द्वारा ईश्वर प्राप्ति का साधन बताया गया है । संसार में मनुष्य भटकता है । सुख - शांति के लिए छटपटाता है, परंतु उसको यह नहीं मालूम कि वास्तविक सुख कहां मिल सकता है । कौड़ियों की खोज में चिंतामणि को खो बैठता है । वह ऐसा विवेकशून्य है कि सुख की खोज में सुख के सच्चे मार्ग को खो बैठता है । यशोदा की सी भूल हम सदा किया करते हैं और जब तक विवेक न होगा, करते रहेंगे । यशोदा ने थोड़े से दूध को बचाने के लिए गोद से तुरंत श्रीकृष्ण को उतार दिया । उस समय जो सुख दोनों को प्राप्त था, क्या स्वर्ग सुख भी उसकी तुलना कर सकता था ? फिर भी यशोदा की मति अविवेक से भ्रम में पड गयी । नतीजा भी अच्छा मिला । थोड़ा दूध बचाने गयी और दही की मटकी फूटी, माखन बंदरों के पेट में गया । सांसारिक भोगों के फेर में पड़कर हम क्षण - क्षण पर परम शांति और निरतिशय सुख से अपने आपको वंचित कर रहे हैं ।
यशोदा ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया और रस्सी से बांधना चाहा । घर भर की सब रस्सी जोड़ती चली गयी, फिर भी रस्सी छोटी पड़ती रही । और वह भी केवल दो ही अंगुल । इसका कारण यह था कि यशोदा के मन में अभिमान था । वह समझती थी कि अपने बल से युक्ति से वह बालक को अवश्य ही बांध लेगी । जब थक गयी और अपने बल का अभिमान छूटा तो भगवान आप ही बंध गये । यही बात भगवत्प्राप्ति के इच्छुक को याद रखनी है । जब तक हम अहंकार के वशीभूत हैं, हमारा कोई साधन फलीभूत नहीं हो सकता । मनुष्य अपनी बुद्धि शक्ति से जो अत्यंत परिमित है और वह भी भगवत्कृपा से प्राप्त है - भला परमेश्वर को कैसे प्राप्त कर सकता है ? सब साधन वास्तव में अहंकारमूलक हैं । उन्हीं के भरोसे रहने से भगवान की प्राप्ति संभव नहीं, फिर क्या उपाय है ? उपाय तो एक ही है - भगवत्कृपा । दो ही अंगुल की रस्सी में कसर रहती थी । यशोदा के अभिमान से एक अंगुल और एक अंगुल भगवान की ओर से खिंचाव था । अभिमान गया कि रस्सी से आप ही सरकार बंध गये ।
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