Wednesday 17 February 2016

अर्धनारीश्वर शिव


सृष्टि के आदि में जब सृष्टिकर्ता ब्रह्माद्वारा रची हुई सृष्टि विस्तार को नहीं प्राप्त हुई, तब ब्रह्मा जी उस दु:ख से अत्यंत दु:खी हुए । उसी समय आकाशवाणी हुई - ‘ब्रह्मन ! अब मैथुनी सृष्टि करो ।’ उस आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा जी ने मैथुनी सृष्टि करने का विचार किया, परंतु ब्रह्मा की असमर्थता यह थी कि उस समय तक भगवान महेश्वर द्वारा नारीकुल प्रकट ही नहीं हुआ था । इसलिए ब्रह्मा जी विचार करने के बाद भी मैथुनी सृष्टि न कर सके । ब्रह्मा जी ने सोचा कि भगवान शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती और उनकी कृपा प्राप्त करने का प्रमुख साधन उनकी तपस्या ही है । ऐसा सोचकर वे भगवान शिव की तपस्या करने के लिए प्रवृत्त हुए । उस समय ब्रह्मा जी शिव सहित परमेश्वर शंकर का प्रेमसहित ध्यान करते हुए घोर तप करने लगे ।
ब्रह्मा के उस तीव्र तप से शिव जी प्रसन्न हो गये । फिर कष्टहारी शंभु सच्चिदानंद की कामदा मूर्ति में प्रविष्ट होकर अर्धनारीश्वर रूप में ब्रह्मा के समक्ष प्रकट हुए । उन देवाधिदेव भगवान शिव को पराशक्ति शिवा के साथ एत ही शरीर में प्रकट हुए देखकर ब्रह्मा ने भूमि पर दण्ड की भांति लेटकर उन्हें प्रणाम किया । तदंतर विश्वकर्मा महेश्वर ने परम प्रसन्न होकर मेध की सी गंभीर वाणी में उनसे कहा - ‘वत्स ! मुझे तुम्हारा संपूर्ण मनोरथ पूर्णतया ज्ञात है । इस समय तुमने जो प्रजाओं की वृद्धि के लिए कठोर तप किया है, उससे मैं परम प्रसन्न हूं । मैं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट वर अवश्य पदान करुंगा ।’ इस प्रकार स्वभाव से ही मधुर तथा परम उदार शिव जी ने ऐसा कहकर अपने शरीर से शिवदेवी को पृथक कर दिया । फिर ब्रह्मा भगवान शिव से पृथक हुई पराशक्ति को प्रणाम करके उनसे प्रार्थना करने लगे ।
ब्रह्मा ने कहा - ‘शिवे ! सृष्टि के प्रारंभ में आपके पति देवाधिदेव परमात्मा शंभु ने मेरी सृष्टि की और उन्होंने मुझे सृष्टि रचने का आदेश दिया था । शिवे ! तब मैंने देवता आदि समस्त प्रजाओं की मानसिक सृष्टि की, परंतु बार बार रचना करने पर भी उनकी वृद्धि नहीं हो रही है । अत: अब मैं स्त्री पुरुष के समागम के द्वारा सृष्टि का निर्माण करके प्रजाओं की वृद्धि करना चाहता हूं, किंतु अभी तक आपसे अक्षय नारी कुल का प्राकट्य नहीं हुआ है । नारी कुल की सृष्टि करना मेरी शक्ति के बाहर है । सारी सृष्टियों का उद्गम स्थान आपके सिवाय कोई अन्य नहीं है । इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूं । आप मुझे नारीकुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें । इसी में जगत का कल्याण निहित है । आप समस्त जगत के कल्याण के लिए तथा वृद्धि के लिए मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री होकर अवतार ग्रहण करें ।’
ब्रह्मा के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर शिवा ने ‘तथास्तु’ ऐसा ही होगा कहकर उन्हें नारीकुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान की । उसके बाद उस जगन्माता ने अपनी भौंहों के मध्यभागव से अपने ही समान प्रभावशाली एक शक्ति की रचना की । उस शक्ति को देखकर कृपासागर भगवान शंकर जगदंबा से इस प्रकार बोले ।
शिव जी ने कहा - ‘देवी ! ब्रह्मा ने कठोर तपस्या से तुम्हारी आराधना की है । अत: उन पर प्रसन्न हो जाओ और उनका संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करो ।’
भगवान शंकर के आदेश को शिवदेवी ने सिर झुकाकर स्वीकार किया और ब्रह्मा के कथनानुसार दक्ष की पुत्री होने का वचन दिया । इस प्रकार शिवादेवी ब्रह्मा को सृष्टि रचना की अनुपम शक्ति प्रदान करके शंभु के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं । तदंतर भगवान शंकर भी तुरंत अंतर्धान हो गये । तभी से इस लोक में स्त्री भाग की कल्पना हुई और मैथुनी सृष्टि प्रारंभ हुई ।
भगवान अर्धनारीश्वर से मैथुनी सृष्टि की शक्ति प्राप्तकर जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की कल्पना की, तब उनका शरीर दो भागों में विभक्त हो गया । आधे शरीर से एक परम रूपवती स्त्री प्रकट हुई और आधे से एक पुरुष उत्पन्न हुआ । उस जोड़े में जो पुरुष था, वह स्वायंभुव मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ और स्त्री शतरूपा के नाम से प्रसिद्ध हुई । स्वायंभुव मनु उच्चकोटि के साधक हुए तथा शतरूपा योगिनी और तपस्विनी हुई । मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी शतरूपा का पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे । उन्होंने शतरूपा के द्वारा प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएं उत्पन्न कीं । कन्याओं के नाम थे - आकूति, देवहूति और प्रसूति । आकूति का विवाह प्रजापति रुचि, देवहूति का कर्दम और प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष के साथ हुआ । कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएं बतायी गयी हैं । ब्रह्मा जी को दिये गये वरदान के अनुसार भगवती शिवा ने इन्हीं दक्ष की कन्या होकर अवतार ग्रहण किया । इस प्रकार भगवान अर्धनारीश्वर की कृपा से मैथुनी सृष्टि की परंपरा चल पड़ी ।

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