Tuesday 2 February 2016

सत्कर्म में श्रमदान का अद्भुत फल


बृहत् कल्प की बात है । उस समय धर्ममूर्ति नामक एक प्रभावशाली राजा थे । उनमें कुछ अलौकिक शक्तियां थीं । वे इच्छा के अनुसार रूप बदल सकते थे । उनकी देह से तेज निकलता रहता था । दिन में चलते तो सूर्य की प्रभा मलिन हो जाती थी और रात में चलते तो चांदनी फीकी पड़ जाती थी । उन्होंने कभी पराजय का मुख नहीं देखा था । इंद्र ने उनसे मित्रता कर ली थी । उन्होंने कई बार दैत्यों और दानवों को हराया था । उनकी पत्नी भानुमती भी इतनी सुंदरी थी कि उस समय तीनों लोकों में कोई नारी उसकी बराबरी नहीं कर सकती थी । वह जितनी रूपवती थी, उतनी ही गुणवती भी थी ।
राजा का सबसे बड़ा सौभाग्य यह था कि उनके कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ थे । एक दिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से गुरु जी से पूछा - ‘गुरुदेव ! मेरे पास इस समय जो सब तरह की समृद्धियां एकत्रित हैं, इसका कारण बहुत बड़ा पुण्य होगा । उस पुण्यकर्म को मैं जानना चाहता हूं जिससे उस तरह का कोई पुण्य मैं पुन: कर सकूं, जिसके फलस्वरूप अगले जन्म में मुझे इसी तरह की सुख - सुविधा प्राप्त हो ।’
महर्षि वसिष्ठ ने बतलाया - ‘पूर्वकाल में लीलावती नाम की एक वेश्या थी । वह शषिव भक्ति में लीन रहती थी । एक बार उसने पुष्कर क्षेत्र में चतुर्दशी तिथि को लवणाचल (नमक के पहाड़) का दान किया था । उसने सोने का एक वृक्ष भी तैयार करवाया था, जिसमें सोने के फूल और सोने की ही देवताओं की प्रतिमाएं लगी थीं । इस स्वर्ण वृक्ष के निर्माण में तुमने निष्काम भाव से उसकी सहायता की थी । उस समय तुम उस वेश्या के नौकर थे । सोने के वृक्ष और फूल बनाने में तुम्हें अतिरिक्त मूल्य मिल रहा था, किंतु तुमने उस वेतन को यह समझकर नहीं लिया कि यह धर्म का कार्य है । तुम्हारी पत्नी उन फूलों और मूर्तियों को तपा - तपाकर भलीभांति चमकाया था । तुम दोनों आज जो कुछ हो वह केवल उसी श्रमदान का फल है । उस जन्म में तुम्हारे पास पैसे नहीं थे, इसलिए लीलावती की तरह तुमने कोई दान - पुण्य नहीं किया था । इस जन्म में तुम राजा हो, अत: अन्न के पहाड़ का विधि - विधान के साथ दान करो । जब केवल ‘श्रमदान’ से तुम सातों द्वीपों के अधिपति हो गये हो और तुम्हारी पत्नी तीनों लोकों में अप्रतिम रूपवती और गुणवती बन गयी है, तब इस अन्न के पहाड़ के दान का क्या फल होगा, इसे तुम स्वयं समझ सकते हो ।
देखो, इस लवणाचल के दान से वेश्या भी शिवलोक के चली गयी और उसके सब पाप जलकर खाक हो गये थे ।’ धर्ममूर्ति ने बड़े उत्साह के साथ अपने गुरु की आज्ञा का पालन किया ।

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