Sunday, 7 February 2016

धिक्कार है इस शरीर के अध्यास और अभिमान को…

अर्थी पर पड़े हुए शव पर लाल कपड़ा बाँधा जा रहा है । गिरती हुई गरदन को सँभाला जा रहा है । पैरों को अच्छी तरह रस्सी बाँधी जा रही है, कहीं रास्ते में मुर्दा गिर न जाए । गर्दन के इर्दगिर्द भी रस्सी के चक्कर लगाये जा रहे हैं । पूरा शरीर लपेटा जा रहा है । अर्थी बनानेवाला बोल रहा है: ‘तू उधर से खींच’ दूसरा बोलता है : ‘मैने खींचा है, तू गाँठ मार ।’
लेकिन यह गाँठ भी कब तक रहेगी ? रस्सियाँ भी कब तक रहेंगी ? अभी जल जाएँगी… और रस्सियों से बाँधा हुआ शव भी जलने को ही जा रहा है बाबा !
धिक्कार है इस नश्वर जीवन को … ! धिक्कार है इस नश्वर देह की ममता को… ! धिक्कार है इस शरीर के अध्यास और अभिमान को…!
अर्थी को कसकर बाँधा जा रहा है । आज तक तुम्हारा नाम सेठ, साहब की लिस्ट (सूची) में था । अब वह मुर्दे की लिस्ट में आ गया । लोग कहते हैं : ‘मुर्दे को बाँधो जल्दी से ।’ अब ऐसा नहीं कहेंगे कि ‘सेठ को, साहब को, मुनीम को, नौकर को, संत को, असंत को बाँधो…’ पर कहेंगे, ‘मुर्दे को बाँधो । ’
हो गया तुम्हारे पूरे जीवन की उपलब्धियों का अंत । आज तक तुमने जो कमाया था वह तुम्हारा न रहा । आज तक तुमने जो जाना था वह मृत्यु के एक झटके में छूट गया । तुम्हारे ‘इन्कमटेक्स’ (आयकर) के कागजातों को, तुम्हारे प्रमोशन और रिटायरमेन्ट की बातों को, तुम्हारी उपलब्धि और अनुपलब्धियों को सदा के लिए अलविदा होना पड़ा ।
हाय रे हाय मनुष्य तेरा श्वास ! हाय रे हाय तेरी कल्पनाएँ ! हाय रे हाय तेरी नश्वरता ! हाय रे हाय मनुष्य तेरी वासनाएँ ! आज तक इच्छाएँ कर रहा था कि इतना पाया है और इतना पाँऊगा, इतना जाना है और इतना जानूँगा, इतना को अपना बनाया है और इतनों को अपना बनाँऊगा, इतनों को सुधारा है, औरों को सुधारुँगा ।
अरे! तू अपने को मौत से तो बचा ! अपने को जन्म मरण से तो बचा ! देखें तेरी ताकत । देखें तेरी कारीगरी बाबा !
तुम्हारा शव बाँधा जा रहा है । तुम अर्थी के साथ एक हो गये हो । शमशान यात्रा की तैयारी हो रही है । लोग रो रहे हैं । चार लोगों ने तुम्हें उठाया और घर के बाहर तुम्हें ले जा रहे हैं । पीछे-पीछे अन्य सब लोग चल रहे हैं ।
कोई स्नेहपूर्वक आया है, कोई मात्र दिखावा करने आये है । कोई निभाने आये हैं कि समाज में बैठे हैं तो…
दस पाँच आदमी सेवा के हेतु आये हैं । उन लोगों को पता नहीं के बेटे ! तुम्हारी भी यही हालत होगी । अपने को कब तक अच्छा दिखाओगे ? अपने को समाज में कब तक ‘सेट’ करते रहोगे ? सेट करना ही है तो अपने को परमात्मा में ‘सेट’ क्यों नहीं करते भैया ?
दूसरों की शवयात्राओं में जाने का नाटक करते हो ? ईमानदारी से शवयात्राओं में जाया करो । अपने मन को समझाया करो कि तेरी भी यही हालत होनेवाली है । तू भी इसी प्रकार उठनेवाला है, इसी प्रकार जलनेवाला है । बेईमान मन ! तू अर्थी में भी ईमानदारी नहीं रखता ? जल्दी करवा रहा है ? घड़ी देख रहा है ? ‘आफिस जाना है… दुकान पर जाना है…’ अरे ! आखिर में तो शमशान में जाना है ऐसा भी तू समझ ले । आफिस जा, दुकान पर जा, सिनेमा में जा, कहीं भी जा लेकिन आखिर तो शमशान मेँ ही जाना है । तू बाहर कितना जाएगा 

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