Saturday, 6 February 2016

श्रीकृष्ण और भावी जगत


मनुष्य को आदि से सुख और शांति की खोज रही है और अंत तक रहेगी । मानव सभ्यता का इतिहास इसी खोज की कथा है । किस जाति ने इस रहस्य को जितना अधिक समझा वह उतनी ही सभ्य, जितना ही कम समझा उतनी ही असभ्य समझी जाती है । लोग भिन्न - भिन्न मार्गों से चले । किसी ने योग का मार्ग लिया, किसी ने तप का, किसी भक्ति का, किसी ने ज्ञान का, किंतु त्याग सभी वादों का स्थायी लक्षण था । निवृत्ति की दुहाई सभी दे रहे हैं । सुख का मूल निवृत्ति है । सबने इसी तत्त्व का प्रतिपादन किया । मोक्ष - आवागमन के बंधन से छूट जाना सुख शांति की चरम सीमा है । मोक्ष प्राप्ति के भिन्न भिन्न मार्ग हैं, पर दीपक सबके लिए एक है, निवृत्ति ।
इसका परिणाम क्या हुआ ? जिसे धर्म का अनुराग हुआ उसने संसार और संसार के व्यापार से मुंह मोड़कर जंगल की राह ली । कर्म बंधन है, कर्म से भागो नहीं, यह बंधन पृथ्वी में बांध देगा । तपोवन आबाद हो गये । आज भी मोक्ष उसी धर्मतत्त्व पर अटल है । बुद्ध ने भी निवृत्ति को ही प्रधानता रही । भिक्षुओं के विहार बस्ती से दूर बने और वहां निर्वाणपद प्राप्त होने लगा । ईसाई - धर्म में भी पोप का राजाओं पर आधिपत्य हुआ । आश्रम बने और क्लेर्जी लोग बस्ती से दूर जंगल में रहने लगे ।
शंकर, रामानुज, वल्लभाचार्य सभी निवृत्ति मार्ग के उपासक रहे । यदि जनसाधारण उस मार्ग पर चलने लगते तो आज संसार से मानव - वंश मिट गया होता । किंतु काम, क्रोध, मोह, लोभ ने मोक्षप्राप्ति की निवृत्ति में सदैव बाधा डाली । यह गौरव भगवान श्रीकृष्ण को ही है कि उन्होंने निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों को संयुक्त कर दिया । प्रवृत्ति - युक्त निवृत्ति और निवृत्ति युक्त प्रवृत्ति के आदर्श की सृष्टि की । कर्म करो लेकिन उसमें बंधो मत । कर्म बंधन नहीं है, कर्म से फल की आशा रखना बंधन है । यज्ञार्थ जो कर्म किया जाएं, जो निष्काम हो, उससे बंधन नहीं होता । वही सुख और शांति का मूल है ।
सोचिए, कितना महान सत्य है ? कितना मौलिक आदर्श है ? निवृत्ति मानव - स्वभाव से मेल नहीं काती । उस मार्ग पर चलने वाले विशिष्ट जन ही होंगे । जनसाधारण के लिए वह मार्ग नहीं है । फिर उसके लिए धर्म का क्या आदर्श रह जाता है ? वर्णाश्रम - धर्म पर चलना । यहां ऊंचे - नीचे का भेद उत्पन्न हो जाता है । निवृत्ति मार्ग का पथिक कर्म के बंधन में फंसे हुए प्राणियों से अपने को यदि ऊंचा नहीं तो पृथक अवश्य समझता है । कर्म मनुष्य के लिए स्वाभाविक क्रिया है । आंखें हैं तो देखेगा, पांव हैं तो चलेगा, पेट हैं तो खाएगा । कर्म के पूर्ण विनाश की तो कल्पना भी नहीं हो सकती । समाधि भी तो कर्म है, मौन रहना ही कर्म, सोचना भी कर्म है । नित्यकर्म हो या निमित्तकर्म, आप कर्म के फंदे से निकल नहीं सकते । फिर कर्म सदैव बंधन ही क्यों हो ? उससे परमार्थ भी किया जा सकता है । सेवा भी तो की जा सकती है । तत्त्व यह निकला कि स्वार्थ भाव से कोई कर्म न किया जाएं । वरन जितने कर्म हों यज्ञार्थ भाव से, निष्काम भाव से ही किये जाएं । यहां कर्म का तो आनंद मिलता है, कर्म से उत्पन्न होने वाला दु:ख नहीं मिलता । न कोई भेद है न द्वेष है । कर्म में पुरुषार्थ भी तो है । लेकिन कर्मयोग के आदर्श पर जमे रहना छोटी बात नहीं है ।
ऐसे समय में संसार के उद्धार का एक ही उपाय है और वह है (निष्काम) कर्मयोग । इसी तत्त्व को हम सम्मुख रख कर ममत्व, स्वार्थ और संघर्ष के पंजे से छूट सकते हैं । स्वार्थ का विलुप्त होना ही प्रेम का प्रसार है । उसी भांति जैसे अंधकार का हटना ही प्रकाश है । हिंसा और अप्रेम से दब हुआ संसार पंगु हो रहा है । हिंसामय जनतंत्र और हिंसामय एकतंत्र में विशेष अंतर नहीं है । आधिभौतिकवाद के धर्महीन तत्त्वों से संसार का उद्धार न होगा । उसमें अध्यात्मवाद की स्फूर्ति डालनी पड़ेगी । इस प्रकार से संसार अध्यात्मवाद के प्रभाव में जगा देगा और उस व्यापक भ्रातृभाव की स्थापना करेगा जो संसार के सुख और शांति का एकमात्र साधन है । अब की इस जागृति में ऊंचे - नीचे, छोटे - बड़े का भेद मिट जाएगा । समस्त संसार में अहिंसा और प्रेम का जयघोष सुनायी देगा । और भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार के उद्धारकर्ता होंगे ।

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