Tuesday, 2 February 2016

श्रीकृष्ण का अपूर्व सौंदर्य


किसी भी आधार में स्थूल प्रकृति की जितनी भी अधिकाधिक पूर्वता होती है, वहां उसी अनुपात में सौंदर्य भी विलसित होता रहता है, यही कारण है । आर्य कवियों ने सौंदर्य को भगवान की सर्वोत्कृष्ट विभूति या प्रकृति का प्राण माना है । जब हम देखते हैं कि लोक में प्रकृति दत्त साधारण सौंदर्य में ही कितना मोहन, कितना आकर्षण एवं कितना वशीकरण होता है तो फिर जिन प्रकृति नाथ के भौतिक शरीर को अपनी कला - कुशलता को दिखलाने के लिए प्रकृति ने स्वयमेव अपने हाथों से ही सजाया हो, उस अलौकिक सौंदर्य के संबंध में अधिक कुछ लिखना केवल उपहासास्पद ही होगा । बालक श्रीकृष्ण के नामकरण - संस्कार के लिए आचा जी आते हैं । उस अश्रुतपूर्व दिव्य छवि को इन सौभाग्यशाली चर्मचक्षुओं से देखकर सहसा ही कह उठते हैं -
‘धैर्य छूटा जाता है, शरीर कंपित और रोमांचित हो रहा है एवं बुद्धि भी विलुप्त हुई जा रही है, आश्चर्य है कि जिनके नामकरण के लिए मैं यहां आया हूं, उन्होंने तो स्वयमेव मेरे नाम को मिटा दिया है अर्थात् जीवन्मुक्त बना दिया है ।’ भगवान श्रीकृष्ण का वह सुंदर रूप आज भी उनके असंख्य भक्तों की आंखों में बसा हुआ है । जिसने स्वप्न में भी एक बार उस बांकी - झांकी के दर्शन करने की चेष्टा की है, वह फिर संसार का नहीं रह गया है । उसी रूप माधुरी के ऊपर मुग्ध होकर महाकवि भवभूति को यह कहना पड़ा -
मैं शैव हूं, इस संबंध में कुछ भी विचार करने की आवश्यकता नहीं है, केवल नाम मात्र शैव नहीं हूं, किंतु अहर्निश ‘ॐ नम: शिवाय ’ इस पञ्चाक्षरी मंत्र का जप भी करता हूं, यह सब कुछ होते हुए भी मेरा मन तो सदा ही अतसी - कुसुम - सुंदर यशोदानंदन घनश्याम श्यामसुंदर के मुस्कुराते हुए मुखड़े को ही स्मरण करता है । यह वही छवि है, जिसके ऊपर भगवान की चिरसहचरी व्रजबालाओं ने ही केवल अपना सर्वस्व निछावर नहीं कर दिया था, किंतु आधुनिक रमणीरत्न मीराबाई भी -
वृंदावन वारी बनवारी की मुकुटवारी, पीतपटवारी वहि मूरति पै वारी हौं ।।
यह कहकर अपना सर्वस्व निछावर करती हुई समस्त राजसुखों को छोड़कर उन्हीं मनमोहन कृष्ण के प्रेम की योगिनी बन गयी थीं ।

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