Thursday 4 February 2016

मरणासन्न प्राणी के कर्तव्य तथा ध्यान के चतुर्विध भेद

राजा युधिष्ठिर ने पूछा - भगवन् ! गृहस्थ व्यक्ति को अपने अंत समय में क्या करना चाहिए । कृपा कर इस विधि को आप बताएं । मुझे यह सुनने की बहुत ही अभिलाषा है ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले - महाराज ! जब मनुष्य को यह ज्ञात हो जाएं कि उसका अंत समीप आ गया है तो उसे गरुड़ध्वज भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए । स्नान करके पवित्र हो शुद्घ श्वेत वस्त्र धारण कर अनेक प्रकार के पुष्पादि उपचारों से नारायण की पूजा एवं स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करें । अपनी शक्ति के अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र आदि का दान करे और बंधु, पुत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन, धान्य तथा पशु आदि से चित्त को हटाकर ममत्व का परित्याग कर दे । मित्र, शत्रु, उदासीन अपने और पराये लोगों के उपकार और अपकार के विषय में विचार न करें अर्थात् शांत हो जाएं । प्रयत्नपूर्वक सभी शुभ एवं अशुभ कर्मों का परित्याग कर इनका स्मरण करें - ‘मैंने समस्त भोगों एवं मित्रों का परित्याग कर दिया, भोजन भी छोड़ दिया तथा अनुलेपन, माला, आभूषम, गीत, दान, आसन, हवन आदि क्रियाएं, पदार्थ नित्य नैमित्तिक और काम्य सभी क्रियाओं का उत्सर्जन कर दिया है । श्राद्धधर्मों का भी मैंने परित्याग कर दिया है, आश्रम धर्म और वर्ण धर्म भी मैंने छोड़ दिए हैं । जब तक मेरे हाथ पैर चल रहे हैं, तब तक मैं स्वयं अपना कार्य कर लूंगा, मुझसे सभी निर्भय रहें, कोई भी पाप कर्म न करें । आकाश, जल, पृथ्वी, विवर, बिल, पर्वत, पत्थरों के मध्य, धान्यादि फसलों, वस्त्र, शयन तथा आसनों आदि में जो कोई प्राणी अवस्थित हैं, वे मुझसे निर्भय होकर सुखी रहें । जगद्गुरु भगवान विष्णु के अतिरिक्त मेरा कोई बंधु नहीं । मेरे नीचे - ऊपर, दाहिने - बांयें, मस्तक, हृदय, बाहुओं, नेत्रों तथा कानों में मित्ररूप में भगवान विष्णु ही विराज रहे हैं ।’
इस प्रकार सब कुछ छोड़कर सर्वेश भगवान अच्युत को हृदय में धारण कतर निरंतर वासुदेव के नाम का कीर्तन करता रहे और जब मृत्यु अति समीप आ जाएं, तब दक्षिणाग्र कुशा बिछाकर पूर्ऴ अथवा उत्तर की ओर सिरकर शयन करे तथा जगत्पति भगवान विष्णु का चिंतन करें ।
‘भगवान विष्णु, जिष्णु, हृषीकेश, केशव, मधुसूदन, नारायण, नर, शौरि, वासुदेव, जनार्दन, वाराह, यज्ञपुरुष, पुण्डरीकाक्ष, अच्युत, वामन, श्रीधर, कृष्ण, नृसिंह, अपराजित, अज, श्रीश, दामोदर, अधोक्षज तथा अव्यय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं । जगन्नाथ ! मैं आपका ही हूं, आप शीघ्र मुझमें निवास करें । वायु एवं आकाश की तरह मुझमें और आप में कोई अंतर न रहे । मैं नीले कमल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन भगवान विष्णु अथवा शौरि या भगवान श्रीकृष्ण आपको अपने सामने देख रहा हूं, आप भी मुझे देखें ।’ जो व्यक्ति प्रसन्नमुख, शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए हुए, केयूर, कटक, कुण्डल, श्रीवत्स, पीतांबर आदि से विभूषित, नवीन मेघ के समान श्यामस्वरूप भगवान विष्णु का ध्यान कर प्राणों का परित्याग करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो भगवान अच्युत में लीन हो जाता है ।
राजा युधिष्ठिर ने पुन: पूछा - भगवन ! अंत समय की जो यह विधि आपने बतायी, वह स्वस्थ चित्त रहने पर ही संभव है, परंतु अंतसमय में तरुण और निरोगी पुरुषों की भी चित्तवृत्ति मोहग्रस्त हो जाती है, वृद्ध और रोगियों की तो बात ही क्या है । अतिवृद्ध और रोगग्रस्त व्यक्ति के लिए कुशा के आसन पर ध्यान करना तो असंभव ही है । इसलिए प्रभो ! दूसरा भी कोई सुगम उपाय बताने का कष्ट करें, जिससे साधन निष्फल न हो ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले - महाराज ! यदि और कुछ कहना संभव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों तरफ से चित्तवृत्ति हटाकर गोविंद का स्मरण करते हुए प्राण का त्याग करना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति जिस जिस भाव का स्मरण कर प्राण त्यागता है, उसे वहीं भाव प्राप्त होता है । अत: सब प्रकार निवृत्त होकर निरंतर वासुदेव का चिंतन करना चाहिए ।
राजन ! अब आप भगवान के चिंतन ध्यान के स्वरूपों को सुनें, जिन्हें महर्षि मार्कण्डेय जी ने मुझसे कहा था - राज्य, उपभोग, शयन, भोजन, वाहन, मणि, स्त्री, गंध, माल्य, वस्त्र, आभूषण आदि में यदि अत्यंत मोह रहता है तो यह रागजनित ‘आद्य’ ध्यान है ।
यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसी के ऊपर प्रहार करने की द्वेषपूर्ण वृत्ति हो और दया न आये तो इसे ही क्रोधजनित ‘रौद्र’ ध्यान कहा गया है । वेदार्थ के चिंतन, इंद्रियों के उपशमन, मोक्ष की चिंता, प्राणियों के कल्याण की भावना आदि ही धर्मपूर्ण सात्त्विक (धर्म्य) ध्यान है । समस्त इंद्रियों का अपने - अपने विषयों से निवृत्त हो जाना, हृदय में इष्ट - अनिष्ट किसी की भी चिंता नहीं करना और आत्मस्थिर होकर एकमात्र परमेश्वर का चिंतन करना, परमात्मानिष्ट हो जाना - यह ‘शुक्ल’ ध्यान का स्वरूप है । ‘आद्य’ ध्यान से तिर्यक्योनि तथा अधोगति की प्राप्ति होती है, ‘रौद्र’ ध्यान से नरक प्राप्त होता है । ‘धर्म्य’ (सात्त्विक) ध्यान से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और ‘शुक्ल’ ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे कल्याणकारी ‘शुक्ल’ ध्यान में ही मन चित्त सदा लगा रहे ।

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