Wednesday 24 February 2016

आल्हा ऊदल की कथा


ऋषियों ने पूछा - सूतजी महाराज ! आपने महाराज विक्रमादित्य के इतिहास का वर्णन किया । द्वापरयुग के समान उनका शासन धर्म एवं न्यायपूर्ण था और लंबे समय तक इस पृथ्वीपर रहा । महाभाग ! उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएं की थीं । आप उन लीलाओं का हमलोगों से वर्णन कीजिए, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं ।
‘भगवान नर नारायण के अवतारस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके सखा नरश्रेष्ठ अर्जुन, उनकी लीलाओं को प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उनके चरित्रों का वर्णन करनेवाले वेदव्यास को नमस्कार कर अष्टादश पुराण, रामायण और महाभारत आदि जय नामसे व्यपदिष्ट ग्रंथों का वाचन करना चाहिए ।’
मुनिगणों ! भविष्य नामक महाकल्प के वैवस्वत द्वापरयुग के अंत में कुरुक्षेत्र का प्रसिद्ध महायुद्ध हुआ । उसमें युद्धकर दुरभिमानी सभी कौरवों पर पाण्डवों ने अठारहवें दिन पूर्ण विजय प्राप्त की । अंतिम दिम भगवान श्रीकृष्ण ने काल की दुर्गति को जानकर योगरूपी सनातन शिव जी की मन से इस प्रकार स्तुति की -
शांतस्वरूपी, सब भूतों के स्वामी, कपर्दी, कालकर्ता, जगद्भर्ता, पाप विनाशक रुद्र ! मैं आपको बार बार प्रणाम करता हूं । भगवन ! आप मेरे भक्त पाण्डवों की रक्षा कीजिए । इस स्तुति को सुनकर भगवान शंकर नंदी पर आरूढ़ हो हाथ में त्रिशूल लिए पाण्डवों के शिविर की रक्षा के लिए आ गये । उस समय महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये थे और पाण्डव सरस्वती के किनारे रहते थे ।
मध्यरात्रि में अश्वत्थामा, भोज (कृतवर्मा) और कृपाचार्य - ये तीनों पाण्डव शिविर के पास आये और उन्होंने मन से भगवान रुद्र की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न कर लिया । इस पर भगवान शंकर ने उन्हें पाण्डव शिविर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी । बलवान अश्वत्थामा ने भगवान शंकरद्वारा प्राप्त तलवार से धृष्टद्युम्न आदि वीरों की हत्या कर दी, फिर वह कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ वापस चला गया । वहां एकमात्र पार्षद सूत ही बचा रहा, उसने इस जनसंहार की सूचना पाण्डवों को दी । भीम आदि पाण्डवों ने इसे शिवजी का ही कृत्य समझा, वे क्रोध से तिलमिला गये और अपने आयुधों से देवाधिदेव पिनाकी से युद्ध करने लगे । भीम आदि द्वारा प्रयुक्त अस्त्र - शस्त्र शिव जी के शरीर में समाहित हो गये । इस पर भगवान शिव ने कहा कि तुम श्रीकृष्ण के उपासक हो अत: हमारे द्वारा तुमलोग रक्षित हो, अन्यथा तुमलोग वध के योग्य थे । इस अपराध का फल तुम्हें कलियुग में जन्म लेकर भोगना पड़ेगा । ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गये और पाण्डव बहुत दु:खी हुए । वे अपराध से मुक्त होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये । नि:शास्त्र पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ एकाग्र मन से शंकर जी की स्तुति की । इस पर भगवान शंकर ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले - देव ! पाण्डवों के जो शास्त्रास्त्र आपके शरीर में लीन हो गये हैं, उन्हें पाण्जवों को वापस कर दीजिए और इन्हें शाप से भी मुक्त कर दीजिए ।
श्रीशिवजी ने कहा - श्रीकृष्णचंद्र ! मैं आपको प्रणाम करता हूं । उस समय मैं आपकी माया से मोहित हो गया था । उस माया के अधीन होकर मैंने यह शाप दे दिया । यद्यपि मेरा वचन तो मिथ्या नहीं होगा तथापि ये पाण्डव तथा कौरव अपने अंशों से कलियुग में उत्पन्न होकर अंशत: अपने पापों फल भोगकर मुक्त हो जाएंगे । युधिष्ठिर वत्सराज का पुत्र होगा, उसका नाम बलखानि होगा, वह शिरीष नगर का अधिपति होगा । भीम का नाम वीरण होगा और वह वनरस का राजा होगा । अर्जुन के अंश से जो जन्म लेगा, वह महान बुद्धिमान और मेरा भक्त होगा । उसका जन्म परिमल के यहां होगा और नाम होगा ब्रह्मानंद । महाबलशाली नकुल का जन्म कान्यकुब्ज में रत्नभानु के पुत्र के रूप में होगा और नाम होगा लक्षण । सहदेव भीमसिंह का पुत्र होगा और उसका नाम होगा देवसिंह । धृतराष्ट्र के अंश से अजमेर में पृथ्वीराज जन्म लेगा और द्रौपदी पृथ्वीराज की कन्या के रूप में वेला नाम से प्रसिद्ध होगी । महादानी कर्ण तारक नाम से जन्म लेगा । उस समय रक्तबीज के रूप में पृथ्वी पर मेरा भी अवतार होगा । कौरव माया युद्ध में निष्णात होंगे तथा पाण्डु पक्ष के योद्धा धार्मिक और बलशाली होंगे ।
सूतजी बोले - ऋषियों ! यह सब बातें सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये और उन्होंने कहा ‘मैं भी अपनी शक्ति विशेष से अवतार लेकर पाण्डवों की सहायता करुंगा । मायादेवी द्वारा निर्मित महावती नाम की पुरी में देशराज के पुत्र - रूप में मेरा अंश उत्पन्न होगा, जो उदयसिंह (ऊदल) कहलाएगा, वह देवकी के गर्भ से उत्पन्न होगा । मेरे वैकुण्ठधाम का अश आह्लाद नाम से जन्म लेगा, वह मेरा गुरु होगा । अग्निवंश से उत्पन्न राजाओं का विनाश कर मैं (श्रीकृष्ण उदयसिंह) धर्म की स्थापना करुंगा ।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर शिव जी अंतर्हित हो गये ।

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