Sunday, 7 February 2016

भक्तवत्सलता


जिस भक्त पर भगवान श्रीराम की ममता (अपनापन) और प्यार हो गया, फिर उस पर करुणा के सिवा उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं । वे अपने भक्त के दोष को आंखों से देखकर भी ध्यान में नहीं लाते और यदि कहीं उसका गुण सुनने में भी आ गया तो संत - समाज में उसकी प्रशंसा करते हैं । भला, बताइए तो प्रभु की ऐसी कौन सी बानि (रीति) है कि उनको अपने सेवक पर केवल प्रीति रखने से ही तृप्ति नहीं होती, बल्कि ममत्ववश - अपनेपन की आसक्तिवश उसके लिए स्वयं दु:खतक सहने को तत्पर रहते हैं । सेवक के ही सुख में सुख और अनिष्ट में अनिष्ट मानते हैं । भगवान श्रीराम जी का कथन है कि मुझको सभी समदर्शी कहते हैं, किंतु मुझे सेवक पर इसलिए प्रेम रखना पड़ता है कि वह संपूर्ण जगत को मेरे ही रूप में देखकर अनन्यगतिवाला हो गया है । जब उसकी दृष्टि में ‘निज प्रभुमय जगत’ हो गया है, तो मैं किसकी बराबरी से समदर्शिता प्रकट करुं ?
राजगद्दी हो जाने के बाद भालु - वानरों को विदा करते समय अवधनाथ भगवान श्रीराम जी ने अपना स्वभाव बतलाया है । वे कहते हैं - ‘हे सेवको और भक्तों ! मुझको अपने भाई, राज्यश्री, स्वयं श्रीजनकी जी, अफना शरीर, घर, परिवार तथा और भी हित - नातावाले उतने प्रिय नहीं हैं. जितने कि तुमलोग हो । मैं यह सत्य - सत्य कह रहा हूं, यहीं मेरी विरदावली है । वैसे तो यह रीति है कि सेवक सभी को प्यारे होते हैं, परंतु मुझको अपने दास (भक्त) पर सबसे बढ़कर प्रीति रहती है ।
भक्ति के अलावा अन्य कोटी के नातों की गणना भक्तवत्सल प्रभु दरबार में है ही नहीं । शबरी से स्पष्ट कहा गया है - ‘मानउं एक भगति कर नाता ।’ भक्त निषाद को ‘सखा’ का दरजा मिला ही, कोल - किरातों तक को कृतार्थ किया गया ।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ।। बस, श्रीराम जी ही ऐसे अनुपम भक्तवत्सल हैं ।

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