Wednesday 17 February 2016

गणेश जी पर शनि की दृष्टि


एक बार कैलाश पर्वत पर, महायोगी सूर्यपुत्र शनैश्चर शंकरनंदन गणेश को देखने के लिए आये । उनका मुख अत्यंत नम्र था, आंखें कुछ मुंदी हुई थीं और मन एकमात्र श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, अत: वे बाहर - भीतर श्रीकृष्ण का स्मरण कर रहे थे । वे तप: फल को खाने वाले, तेजस्वी, धधकती हुई अग्नि की शिखा के समान प्रकाशमान, अत्यंत सुंदर, श्यामवर्ण और पीतांबर धारण किए हुए थे । उन्होंने वहां पहले विष्णु, ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य, देवगणों और मुनिवरों को प्रणाम किया । फिर उनकी आज्ञा से वे उस बालक को देखने के लिए गये । भीतर जाकर शनैश्चर ने सिर झुकाकर पार्वती देवी को नमस्कार किया । उस समय वे पुत्र को छाती से चिपटाये रत्नसिंहासन पर विराजमान हो आनंदपूर्वक मुस्करा रही थीं । पांच सखियां निरंतर उन पर श्वेत चंवर डुलाती जाती थीं । वे सखी द्वारा दिये गये सुवासित तांबूल को चबा रही थीं । उनके शरीर पर वह्निशुद्ध स्वर्णिम साड़ी शोभायमान थी । रत्नों के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे । सहसा सूर्यनंदन शनैश्चर को सिर झुकाये देखकर पार्वती जी ने उन्हें शीघ्र ही शुभाशीर्वाद दिया और उनका कुशल मंगल पूछा - ‘ग्रहेश्वर ! इस समय तुम्हारा मुख नीचे की ओर क्यों झूका हुआ है तथा तुम मुझे अथवा इस बालक की ओर देख क्यों नहीं रहे हो ?’
शनैश्चर ने कहा - ‘शंकरवल्लभे ! मैं एक परम गोपनीय इतिहास, यद्यपि वह लज्जाजनक तथा माता के समक्ष कहने योग्य नहीं है, तथापि आपसे कहता हूं, सुनिये । मैं बचपन से श्रीकृष्ण का भक्त था । मेरा मन सदा एकमात्र श्रीकृष्ण के ध्यान में ही लगा रहता था । मैं विषयों से विरक्त होकर निरंतर तपस्या में रत रहता था । पिताजी ने चित्ररथ की कन्या से मेरा विवाह कर दिया । वह सती - साध्वी नारी अत्यंत तेजस्ऴिनी तथा सतत तपस्या में रत रहने वाली थी । एक दिन ऋतु स्नान करके वह मेरे पास आयी । उस समय मैं भगवच्चरणों का ध्यान कर रहा था । मुझे बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं था । अत: मैं उसकी ओर देखा भी नहीं । पत्नी ने अपना ऋतुकाल निष्फल जानकर मुझे शाप दे दिया कि ‘तुम अब जिसकी ओर दृष्टि डालोगे, वहीं नष्ट हो जाएगा ।’ तदनंतर जब मैं ध्यान से विरत हुआ, तब मैंने उस सती को संतुष्ट किया, परंतु अब तो वह शाप से मुक्त कराने में असमर्थ थी, अत: पश्चाताप करने लगी । माता ! इसी कारण मैं किसी वस्तु को अपने ने६ों से नहीं देखता और तभी से मैं जीवहिंसा के भय से स्वाभाविक ही अपने मुख को नीचे किये रहता हूं ।’ शनैश्चर की बात सुनकर पार्वती हंसने लगीं । इसपर नर्तकियों तथा किंनरों का सारा समुदाय भी ठहाका मारकर हंस पड़ा ।
शनैश्चर का वचन सुनकर पार्वती जी ने परमेश्वर श्रीहरि का स्मरण किया और इस प्रकार कहा - ‘सारा जगत ईश्वर की इच्छा के वशीभूत ही है ।’ फिर दैववशीभऊता पार्वती देवी ने कौतूहलवश शनैश्चर से कहा - ‘तुम मेरी तथा मेरे बालक की ओर देखो । भला, इस निषेक (कर्मफलभोग) को कौन हटा सकता है ?’ तब पार्वती का वचन सुनकर शनैश्चर स्वयं मन ही मन यों विचार करने लगे - ‘अहो ! क्या मैं इस पार्वती नंदन पर दृष्टिपात करूं अथवा न करूं ? क्योंकि यदि मैं बालक को देख लूंगा तो निश्चय ही उसका अनिष्ट हो जाएगा ।’
इस प्रकार कहकर धर्मात्मा शनैश्चर ने धर्म को साक्षी बनाकर बालक को तो देखने का विचार किया, परंतु बालक की माता को नहीं । शनैश्चर का मन तो पहले से ही खिन्न था । उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु भी सूख गये थे, फिर भी उन्होंने अपने बायें नेत्र के कोने से शिशु के मुख की ओर निहारा । शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक धड़ से अलग हो गया । तब शनैश्चर ने अपनी आंख फेर ली और फिर वे नीचे मुख करके खड़े हो गये । इसके पश्चात उस बालक का खून से लथपथ हुआ सारा शरीर तो पार्वती की गोद में पड़ा रह गया । परंतु मस्तक अपने अभीष्ट गोलोक में जाकर श्रीकृष्ण में प्रविष्ट हो गया । यह देखकर पार्वती देवी बालक को छाती से चिपटाकर फूट फूट कर विलाप करने लगीं और उन्मत्त की भांति भूमि पर गिरकर मूर्च्छित हो गयीं । तब वहां उपस्थित सभी देवता, देवियां, पर्वत, गंधर्व, शिव तथा कैलाश वासी जन यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये ।उस समय उनकी दशा चित्रलिखित पुत्तलिका के समान जड़ हो गयी ।
इस प्रकार उन सबको मूर्च्छित देखकर श्रीहरि गरुड पर सबार हुए और उत्तरदिशा में स्थित पुष्पभद्रा के निकट गये । वहां उन्होंने पुष्पभद्रा नदी के तट पर वन में स्थित एक गजेंद्र को देखा, जो निद्रा के वशीभूत हो बच्चों से घिरकर हथिनी के साथ सो रहा था । उसका सिर उत्तर दिशा की ओर था, मन परमानंद से पूर्ण था और वह परिश्रम से थका हुआ था । फिर तो श्रीहरि ने शीघ्र ही सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट लिया और रक्त से भीगे हुए उस मनोहर मस्तक को बड़े हर्, के साथ गरुड पर रख लिया । गज के कटे हुए अंह के गिरने से हथिनी की नींद टूट गयी । तब अमंगल शब्द करती हुई उसने अपने शावकों को भी जगाया । फिर वह शोक से विह्वल हो शावकों के साथ विलख - विलखकर चीत्कार करने लगी । तत्पश्चात् उसने भगवान विष्णु का स्तवन किया । उसकी स्तुति प्रसन्न होकर भगवान ने उसे वर दिया और दूसरे गज का मस्तक काटकर इसके धड़ से जोड़ दिया । फिर उन ब्रह्मवेत्ता ने ब्रह्मज्ञान से उसे जीवित कर दियाऔर उस गजेंद्र के सर्वांग में अपने चरणकमल का स्पर्श कराते हुए कहा - ‘गज ! तू अपने कुटुंब के साथ एक कल्पपर्यन्त जीवित रह ।’ इस प्रकार कहकर मन के समान वेगशाली भगवान कैलाश पर जा पहुंचे ।
वहां पार्वती के वासस्थान पर आकर उन्होंने उस बालक को अपनी छाती से चिपटा लिया और उस हाथी के मस्तर को सुंदर बनाकर बालक के धड़ से जोड़ दिया । फिर ब्रह्मस्वरूप भगवान ने ब्रह्मज्ञान से हुंकारोच्चारण किया और खेल - खेल में ही उसे जीवित कर दिया । पुन: श्रीकृष्ण ने पार्वती को सचेत करके उस शिशु को उनकी गोद में रख दिया और आध्यात्मिक ज्ञानद्वारा पार्वती को समझाना आरंभ किया । श्रीविष्णु का कथन सुनकर पार्वती का मन संतुष्ट हो गया । तब वे उन गदाधर भगवान को प्रणाम करके शिशु को दूध पिलाने लगीं । तदनंतर प्रसन्न हुई पार्वती ने शंकर जी की प्रेरणा से अंजलि बांधकर भक्तिपूर्वक उन कमलापति भगवान विष्णु की स्तुति की ।

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