Thursday 25 February 2016

श्रीराम का पत्नी प्रेम


वनगमन के समय सेवा में चलने के लिए श्रीसीता जी का जब आग्रह देखा गया, तब उनकी शारीरिक सुकुमारता आदि के स्नेह से जैसी प्रेमपूर्ण शिक्षादी गयी, वह स्नेह की सीमा का सूचक है । परंतु जब यह लक्षण देखने में आया कि सीता जी को यदि हठ करके रोका गया तो इनके प्राण ही नहीं बचेंगे तब उनको प्रेमपूर्वक साथ ले लिया गया । फिर वन में जिस समय उनका हरण हो गया, उस समय की विकलता तो अकथनीय प्रेम की अवधि है । श्रीमारुति जी द्वारा भेजे हुए इस संदेश में कि ‘हे प्रिये, हमारे और तुम्हारे प्रेम के तत्त्व को एक हमारा मन ही जानता है और वह मन सदा तुम्हारे पास रहता है ।’ मानो प्रीति के रस का निचोड़ ही सूचित किया गया है । फिर जब श्रीहनुमान जी कुशलसंवाद लेकर लौटे और उन्होंने श्रीसीता जी की कष्ट कथा सुनायी, उस समय श्रीरघुनाथ जी जैसे धीर वीर और सुख के धामकी भी आंखों में प्रेमाश्रु आ गये ! इससे अधिक प्रेम का और क्या प्रमाण होगा ?
श्रीरघुनाथ जी ने एकनारीव्रत को चरितार्थ करके महान आदर्श उपस्थित कर दिया । यद्यपि आपको स्मृतिकारों के प्रमाणनुसार चार विवाहों की प्रचलित प्रथा की मर्यादा स्वीकार थी, परंतु इधर एकपत्नीव्रत को ही पुष्ट करना था । इसलिए एक सीता जी के साथ ही विवाह की चारों रीतियां पूरी कर ली गयीं । जैसे -
1) गांधर्व विवाह फुलवारी में हुआ - ‘चली राखि उर स्यामल मूरति’
2) प्रण स्वयंवर ‘टूटत हीं धनु भयउ बिबाहू’
3) स्वयंवर ‘सियं जयमाल राम उर मेली’ और
4) पाणिग्रहण भांवरी, सिंदूरदान आदि के साथ मंडप में हुआ - ‘प्रमुदित मुनिन्ह भांवरी फेरी’ तथा ‘राम सीय सिर सेंदुर देहीं’ - इत्यादि । श्रीराम जी ने अपनी कुल - प्रथा को भी त्यागकर एक पत्नी - व्रत का पालन किया । क्योंकि पिता दशरथ को ही कई रानियां थीं । यहीं तक नहीं, श्रीराम जी ने अपने शासनकाल में अपनी सारी प्रजा से भी एकपत्नीव्रत का पालन कराया । देखिए - ‘एकनारि ब्रत रत सब झारी । ते मन बच क्रम पति हितकारी ।।’
अत: मनुष्य मात्र को इससे शिक्षा लेनी चाहिए ।
इस प्रकार श्रीराम जी के ऐश्वर्य तथा माधुर्य दोनों तरह के अनुपम चरित्रों का संक्षिप्त दिग्दर्शन थोड़े से उदाहरणों द्वारा कराया गया । वास्तव में आपके आदर्श चरित्रों का संपूर्ण कथन यदि शेष, शारदा और वेदादि भी करना चाहें तो उनके लिए भी असंभव है । लोकधर्म के जितने अंग हैं - माता, पिता, भाई, स्त्री, हितू, कुटुंबी, संबंधी, बड़े, छोटे, स्वामी, सेवक, गुरु, पुरोहित, ब्राह्मण, गौ, अतिथि, अभ्यागत, देवी, देवता आदि के जितने व्यवहार हैं एवं वर्ण और आश्रम के जितने धर्म हैं, उन सबका वेदविधि से यथावत् पालन श्रीरघुनाथ जी ने ही स्वयं करके दिखाया है।
सामान्य लोकधर्म का पूरा - पूरा निर्वाह करना मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को छोड़कर और किसी के मान का था ही नहीं । अत: उन्होंने उसको स्वयं चरितार्थ करके यह बतला दिया कि ‘संसार में मनुष्य को धर्ममर्यादा का पालन उसी तरह करना चाहिए, जैसा मैंने किया है ।’

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