Wednesday, 17 February 2016

एकमात्र श्रीकृष्ण ही धन्य एवं श्रेष्ठ हैं


एक कथा आती है कि देवर्षि नारद ने एक बार गंगा - तट पर भ्रमण करते हुए एक ऐसे कछुए को देखा, जिसका शरीर चार कोस में फैला हुआ था । नारद जी को उसे देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, वह उस कछुए से बोले, हे कूर्मराज ! तू धन्य एवं श्रेष्ठ है, जो इतने विशाल शरीर को धारण किए हुए है । कछुए ने उत्तर दिया कि धन्य और श्रेष्ठ मैं नहीं, श्रीगंगा जी हैं, जिनमें मुझ जैसे विशालकाय अनन्त जीव वास करते हैं । यह सुनकर नारद जी गंगा जी से कहा कि हे गंगे ! तुम धन्य और श्रेष्ठ हो जो इतने इतने बड़े असंख्य जीव जंतुओं को आश्रय देने में समर्थ हो । गंगा जी बोलीं कि मैं धन्य और श्रेष्ठ नहीं हूं, धन्य और श्रेष्ठ तो समुद्र है जिसमें मेरी जैसी अनेक नदियां जाकर गिरती हैं । इस पर नारद जी समुद्र के समीप पहुंचे और उससे बोले कि हे समुद्र ! तुम धन्य और श्रेष्ठ हो, तो अनेक नदियों को अपने में समा लेते हो । समुद्र बोला, इसमें मेरी कुछ भी बड़ाई नहीं है, यदि बड़ाई किसी की है तो वह मेघसमुदाय की है, जो वर्षा कर मुझे परिपूर्ण करते हैं । फिर नारद जी मेघों के पास पहुंचे और उन्हें धन्य तथा श्रेष्ठ बतलाया, पर उन्होंने भी यह उपाधि स्वीकार नहीं की ।
उन्होंने कहा, इसमें हमारा क्या, हमारा उद्गमस्थान तो यज्ञ हैं । यज्ञों के पास जाकर यहीं बड़ाई उनको देने लगने पर उन्होंने कहा कि हमारे प्रतिपादक तो वेद हैं, इसलिए वही धन्य और श्रेष्ठ हो सकते हैं, हम नहीं । वेदों के पास जाने से मालूम हुआ कि वे भी यह बड़ाई लेने को तैयार नहीं । उन्होंने कहा कि हमें सत्ता स्फूर्ति सब भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त होती है, इसलिए वहीं धन्य और श्रेष्ठ हैं । यह सुनकर ऋषिवर सीधे द्वारका पहुंचे । वहां उन्होंने ऋषि मुनियों की भरी सभा में भगवान से कहा कि हे कृष्ण ! आप धन्य और श्रेष्ठ हैं, भगवान ने उत्तर दिया, हां नारद ! सत्य कहते हो, मैं धन्य एवं श्रेष्ठ हूं ।
सत्य कहते हो, मैं धन्य एवं श्रेष्ठ हूं । भगवान के मुख से ये शब्द सुनकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने इसका रहस्योद्घाटन करने के लिए भगवान से प्रार्थना की । भगवान ने नारद की ओर इशारा किया, जिस पर उन्होंने आद्योपांत सारी कथा कह सुनायी । कथा सुनकर ऋषीश्वरों को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ , वे सब मोह - ममता त्यागकर भगवान को श्रेष्ठता में लीन हो गये । हम लोगों को भी इस अनित्य दु:खरूप धनधान्य की वाञ्छा को त्यागकर कृष्णपरायण हो सबसे अधिक धन्य और श्रेष्ठ श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप में लीन हो जाना चाहिए ।

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