Sunday, 7 February 2016

श्रीकृष्ण और द्रौपदी


पांडव महिषी सती द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण को परम बंधु भाव से पूजती थी । भगवान भी द्रौपदी के साथ असाधारण स्नेह रखते और उसकी प्रत्येक पुकार का तुरंत उत्तर देते थे । भगवान के अंत:पुर में द्रौपदी का और द्रौपदी के महलों में भगवान का जाना - आना अबाध था । जिस प्रकार भगवान का दिव्य प्रेम भी अलौकिक था । द्रौपदी श्रीकृष्ण को पूर्वब्रह्म सच्चिदानंदघन ईश्वर समझती थी और भगवान भी उसके सामने अपनी किसी भी अंतरंग लीला को छिपाकर नहीं रखते थे । जिस वृंदावन के पवित्र गोपी - प्रेम की दिव्य बातें गोप - रमणियों के पति पुत्रों तक को मालूम नहीं थी, उन सारी ईश्वरीय लीलाओं का द्रौपदी को पता था, इसलिए चीर - हरण के समय द्रौपदी ने भगवान को ‘गोपीजनप्रिय’ कहकर पुकारा था ।
द्रौपदी के चीर - हरण का प्रसंग बड़ा ही मार्मिक है, जब दुष्ट दु:शासन दुर्योधन की आज्ञा से एकवस्त्रा द्रौपदी को सभा में लाकर बलपूर्वक उसकी साड़ी खींचने लगा और किसी से भी रक्षा पाने का कोई भी लक्षण न देख द्रौपदी ने अपने को सर्वथा असहाय समझकर अपने परम सहाय परमबंधु परमात्मा श्रीकृष्ण का स्मरण किया । उसे यह दृढ़ विश्वास था कि मेरे स्मरण करते ही भगवान अवश्य आयेंगे । वे द्वारका में हैं तो क्या हुआ, अव्यक्तरूप से सर्वव्यापी भी तो हैं । मेरी कातर पुकार सुनने पर उनसे कभी रहा नहीं जायगा । द्रौपदी ने भगवान का स्मरण करके कहा -
हे गोविंद !हे द्वारकावासिन ! हे गोपीजनप्रिय ! हे केशव ! क्यातुम नहीं जान रहे हो कि कौरव मेरा तिरस्कार कर रहे हैं ? हे नाथ ! कौरव - समुद्र में डूबती हुई इस द्रौपदी को बचाओ ! हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! कौरवों के हाथों में पड़ी हुई इस दु:खिनी की रक्षा करो । द्रौपदी की पुकार सुनते ही जगदीश्वर भगवान का हृदय द्रवित हो गया और वे -
‘त्यक्त्वा शय्यासनं पद्भ्यां कृपालु: कृपयाभ्यगात्’
कृपालु शय्या छोड़कर पैदल ही दौड़ पड़े । कौरवों की दानवी सभा में भगवान का वस्त्रावतार हो गया । द्रौपदी के एक वस्त्र से दूसरा और दूसरे से तीसरा इस प्रकार भिन्न - भिन्न रंगों के वस्त्र निकलने लगे, वस्त्रों का वहां ढेर लगा गया । ठीक समय पर प्रिय बंधु ने पहुंच कर अपनी द्रौपदी की लाज बचा ली , दु:शासन थककर जमीन पर बैठ गया, वह धरती कुचरने लगा -
‘दस हजार गज - बल थक्यो घट्यो न दस गज चीर ।’

No comments:

Post a Comment