वेदांतमत और वैष्णवमत
सगुण ब्रह्म ईश्वर हैं, वे सर्वशक्तिमान हैं, आत्मा में जो एक अप्रतिहत शक्ति सहज ही रहती है, वह ईश्वर की कला है । वहीं अप्रतिहत शक्ति जब एक से अधिक होती है तब उसे अंश कहते हैं । जिनमें संपूर्ण अप्रतिहत शक्ति होती हैं, उन्हें पूर्ण कहते हैं । जीव में साधारणत: कोई भी शक्ति अप्रतिहत नहीं है । योगबल से अप्रतिहत शक्ति संजय किया जा सकता है परंतु वह सहजता नहीं है । इसलिए श्रीकृष्ण न तो योगयुक्त मनुष्य हैं और न कला या अंश ही हैं ।
वे पूर्ण हैं, क्योंकि उनमें संपूर्ण अप्रतिहत शक्तियां हैं । सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म में वास्तव में कोई भेद नहीं है । इसलिए श्रीकृष्ण में कहीं कल्पित भेद से नाना जीवभाव दिखलाए गये हैं तो कहीं वास्तव भाव से अपने ब्रह्मत्व का प्रतिपादन हुआ है । सर्वशक्तिमान की यह लीला संपूर्णरूप से उपयुक्त ही है ।
श्रीकृष्ण - विग्रह नित्य है, वे पूर्ण ब्रह्म हैं । निराकार पूर्णब्रह्म आकाशकुसुमवत अलीक हैं । श्रीकृष्ण गोलोकविहारी हैं, वृदांवन में इनकी नित्य स्थिति है । मथुरापति और द्वारकापति इनके अंश हैं । जब अक्रूर जी वृंदावन से श्रीकृष्ण को ले जाने लगे तब श्रीकृष्ण ने अपने पूर्णविग्रह को वृंदावन में ही छिपा रखा और वैसी ही दूसरी आकृति बनाकर वे अंशरूप से मथुरा चले गये । यहीं अंश आगे चलकर द्वार का गये । गीता - कथन के समय अपने योगबल से अपने उसी पूर्णभाव का आश्रय करके श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया । इसी से अनुगीता कहते समय अर्जुन से उन्होंने कहा कि इस समय मैं पूर्ण भाव में स्थित न होने के कारण वैसा उपदेश नहीं कर सकता । कैशोरवय और माधुर्य - भाव पूर्णता के प्रधान लक्षण हैं ।
श्रीकृष्ण के यह अंश ही नारायण - ऋषि के अवतार हैं । श्रीकृष्ण - विग्रह अप्राकृत है, उनके अंश भी अप्राकृत की अप्राकृत विभूति हैं । जीव सब उनके दास हैं । वहीं पूर्णब्रह्म हैं, वहीं रसस्वरूप हैं । श्रुति ने इसी से उन्हें ‘रसो वै स:’ कहा है । योग, देवाराधना, युद्ध और क्रोध आदि सबी उनकी लीलाएं हैं - रसमय का रस है । उस रसमय श्रीकृष्ण के चरणों में कोटि - कोटि प्रणाम करके हम अपनी नीरस लेखनी को विश्राम देते हैं ।
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