गोपियों के अद्भुत प्रेम - प्रवाह में ज्ञानशिरोमणि उद्धव का संपूर्ण ज्ञानभिमान बह गया । विवेक, वैराग्य, विचार, धर्म, नीति, योग, जप और ध्यान आदि संपूर्ण संबल के सहित उसकी ज्ञान नौका गोपियों के प्रेम समुद्र में डूब गयी । उद्धव गोपियों का मोह दूर करने आया था किंतु वह स्वयं ही उनके (दिव्य) मोह में मग्न हो गया । वह उन्हें सांत्वना देने के लिए आया था किंतु उसे उन्हीं की शरण लेनी पड़ी । वह आया था उन्हें उपदेश देने के लिए किंतु हो गया उनका शिष्य ।
आज गोपियों के सुमधुर प्रेम पीयूश का रसास्वादन कर उद्धव श्रीमाधव के पास मधुपुरी जाने की तैयारी कर रहा है । प्यारे कृष्ण के स्नेहपूर्ण सहवास की स्मृति उसे अवश्य उस ओर खींच रही थी किंतु इधर परिकरसहित श्रीरासेश्वरी जी की सहृदयता ने भी उसके हृदय को बांध लिया था । इस दुविधा में उसे कई दिन हो गये । अंत में उसे घर लौटना ही था, अत: आज उसने मथुरा चलने की तैयारी कर ही दी । उद्धव को मथुरा जाने के लिए उद्यत देखकर हरि प्रिया श्रीराधिका जी खिन्न चित्त होकर आसन से उठीं और गोपियों के सहित उन्होंने उद्धव के सिर पर हाथ रखकर उसे शुभ आशीर्वाद दिया, तथा हरी हरी दूब, अक्षत, श्वेत धान्य और मंगलमय पुष्प उसके मस्तक पर छोड़े । तदनंतर उन्होंने खील, फल, पत्र, दधि, दूर्वा तथा पत्तों की डाल, फल, गंध, सिंदूर, कस्तूरी और चंदन के सहित जल का कलश मंगाया एवं पुष्प, माला, दीपक, रक्तचंदन, पतिपुत्रवती साध्वी स्त्री, सुवर्ण और रजत आदि मंगाकर उसे उनका दर्शन कराया । इस प्रकार मंगलोपचार के अनंतर महासाध्वी श्रीराधिका जी अपने वक्ष:स्थल पर गिरते हुए शोकाश्रुओं को छिपाकर हित और मंगलमय सत्य वचन बोलीं ।
वे कहने लगीं - ‘उद्धव ! तुम्हारी यात्रा सुखमय हो, तुम्हारा सदा कल्याण हो, तुम प्यारे कृष्ण के प्रिय सका हो, उनसे तुम्हें ज्ञान प्राप्त हो । संसार के संपूर्ण वरदानों में श्रीकृष्णचंद्र की दास्यरति ही सर्वश्रेष्ठ वर है । स्नायुज्य, सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और कैवल्य इन पांचों प्रकार की मुक्तियों से भी हरि भक्ति ही श्रेष्ठ है । ब्रह्मत्व, देवत्व, इन्द्रत्व, अमरत्व, अमृत - लाभ तथा सिद्धि - लाभ से भी हरि भक्ति अति दुर्लभ है । यदि कोई पुरुष अपने पूर्व जन्मों के अनन्त पुण्यपुंज से भारतवर्ष में जन्म पाकर हरि भक्ति करता है तो फिर उसका जन्म होना अत्यंत कठिन है अर्थात् वह अवश्य मुक्त हो जाता है । उसका जन्म सफल है । वह अवश्य ही अपने माता पिता, उनके पूर्वजों, अपने बंधु बांधवों तथा स्त्री, गुरु, शिष्य और सेवकों के भी सहस्त्रों कर्म कलापों का क्षय कर देता है । हे वत्स ! जो कर्म कृष्णार्पण कर दिया जाता है अथवा जिससे श्रीकृष्णचंद्र की प्रसन्नता बढ़ती है वहीं सर्वोत्तम है । प्रीति और विधिपूर्वक संकल्प करके जो कर्म किया जाता है वह परम मंगलमय और धन्य है । उससे परिमाम में अत्यंत सुख मिलता है । श्रीकृष्ण के लिए व्रत और तपस्या करना, भक्तिपूर्वक उनका पूजन करना तथा उनके उद्देश्य से उपवास करना - ये सब उनकी दास्यरति के बढ़ाने वाले हैं । इस दास्यरति की महिमा कहां तक कहीं जाएं ?’
संपूर्ण पृथ्वी का दान, त्रिभुवन की परिक्रमा, समस्त तीर्थों का स्नान, समस्त व्रत और तप, संपूर्ण यज्ञ - यागादि, सर्वस्व दानका फल, समस्त वेद - वेदांगों का पढ़ना और पढ़ाना, भयभीत की रक्षा करना, अत्यंत दुर्लभ तत्त्वज्ञान का उपदेश करना, अतिथियों का सत्कार करना, शरणागत की रक्षा करना, समस्त देवताओं का पूजन और बंदन करना, मंत्र - जाप करना, पुरश्चरण आदि के सहित ब्राह्मणों को भोजन कराना, गुरु की सेवा शुश्रूषा करना तथा भक्तिपूर्वक माता - पिता का पोषण करना - ये समस्त शुभकर्म श्रीकृष्णचंद्र की दास्यरति की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं ।
इसलिए हे उद्धव ! तुम प्रयत्नपूर्वक श्रीकृष्ण का भजन करना । वे श्रीकृष्णचंद्र प्रकृति से परे निरीह, परमात्मा, ईस्वर, नित्य, सत्य, परब्रह्म और प्रकृति से अतीत प्रकृति के स्वामी हैं । वे सर्वत्र परिपूर्ण शुद्धस्वरूप, भक्तों के लिए मूर्तिमान अनुग्रहरूप कर्मियों की कर्म कलाप के साक्षी होकर भी उनसे अलिप्त, ज्योतिरूप तथा संपूर्ण कारणों के परम कारण है ।
यह परम दिव्य उपदेश सुनकर उद्धव को विस्मय हुआ और वह तत्त्वज्ञान पाकर तृप्त हो गले में अञ्चल डालकर उसने अपने केशपाश श्रीराधिका जी के चरमों को पुन: पुन: स्पर्श करते हुए प्रणाम किया । भक्ति वश उसके नेत्रों में जल भर और संपूर्ण शरीर में रोमांच हो गया तथा श्रीराधिका के बिछुड़ने की व्यथा से वह फूट - फूटकर रोने लगा । श्रीराधा तथा अन्यान्य गोपियां भी प्रेमवश उद्धव के गले लगा रोने लगीं । इस प्रकार वहां प्रेम का अपूर्व प्रवाह जिसमें कि वह संपूर्ण समाज डूब गया
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