Tuesday 23 February 2016

माता, पिता एवं गुरु की महिमा


श्रीसूत जी बोले - द्विजश्रेष्ठ ! चारों वर्णों के लिए पिता ही सबसे बड़ा अपना सहायक है । पिता के समान अन्य कोई अपना बंधु नहीं है, ऐसा वेदों का कथन है । माता - पिता और गुरु - ये तीनों पथप्रदर्शक हैं, पर इनमें माता ही सर्वोपरि है । भाइयों में जो क्रमश: बड़े हैं, वे क्रम - क्रम से ही विशेष आदर के पात्र हैं । इन्हें द्वादशी, अमावस्या तथा संक्रांति के दिन यथारुचि मणियुक्त वस्त्र दक्षिणा के रूप में देना चाहिए, दक्षिणायन और उत्तरायण में, विषुव संक्रांति में तथा चंद्र सूर्य ग्रहण के समय यथाशक्ति इन्हें भोजन कराना चाहिए, अनंतर इनकी चरण वंदना करनी चाहिए, क्योंकि विधिपूर्वक वंदन करने से ही सभी तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है । स्वर्ग और अपवर्ग - रूपी फल को प्रदान करने वाले एक आद्य ब्रह्मस्वरूप पिता को मैं नमस्कार करता हूं । जिनकी प्रसन्नता से संसार सुंदर रूप में दिखायी देता है, उन पिता का मैं तिलयुक्त जल से तर्पण करता हूं । पिता ही जन्म देता है, पिता ही पालन करता है, पितृगण ब्रह्मस्वरूप हैं, उन्हें नित्य पुन: पुन: नमस्कार है । हे पित: ! आपके अनुग्रह से लोकधर्म प्रवर्तित होता है, आप साक्षात् ब्रह्मरूप हैं, आपको नमस्कार है ।
जो अपने उदररूपी विवर में रखकर स्वयं उसकी सभी प्रकार से रक्षा करती है, उस परा प्रकृतिस्वरूपा जननी देवी को नमस्कार है । मात: ! आपने बड़े कष्ट से मुझे अपने उदर प्रदेश में धारण किया, आपके अनुग्रह से मुझे अपने उदर प्रदेस में धारण किया, आपको अनुग्रह से मुझे यह संसार देखने को मिला, आपको बार बार नमस्कार है । पृथ्वी पर जितने तीर्थ और सागर आदि हैं उन सबकी स्वरूपभूता आपको अपनी कल्याण प्राप्ति के लिए मैं नमस्कार करता हूं । जिन गुरुदेव के प्रसाद से मैंने यशस्करी विद्या प्राप्त की है, उन भवसागर के सेतुस्वरूप शिवरूप गुरुदेव को मेरा नमस्कार है । वेद और वेदांग शास्त्रों के तत्त्व आप में प्रतिष्ठित हैं । आप सभी प्राणियों के आधार हैं, आपको मेरा नमस्कार है । ब्राह्मण संपूर्ण संसार के चलते फिरते परम पावन तीर्थस्वरूप हैं । अत: हे विष्णुरूपी भूदेव ! आप मेरा पाप नष्ट करें, आपको मेरा नमस्कार है ।
द्विजो ! जैसे पिता श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पिता के बड़े - छोटे भाई और अपने बड़े भाई भी पिता के समान ही मान्य एवं पूज्य हैं । आचार्य ब्रह्मा की पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की और भाई अपनी ही मूर्ति हैं । पिता मेरुस्वरूप एवं वसिष्ठस्वरूप सनातन धर्ममूर्ति हैं । ये ही प्रत्यक्ष देवता हैं, अत: इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए । इसी प्रकार पितामह एवं पितामही (दादा - दादी) के भी पूजन वंदन, रक्षण, पालन और सेवन की अत्यंत महिमा है । इनकी सेवा के पुण्यों की तुलना में कोई नहीं है, क्योंकि ये माता पिता के भी परम पूज्य हैं 

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