Friday, 24 June 2016

प्रेम समाधान पैदा करता है विवाद नहीं"


मानस जी में एक प्रसंग आता है जब श्री रघुनाथजी वन में समय व्यतीत कर रहे होते हैं तब भरत लाल जी बहुत विह्वल हो जाते हैं।
भरतजी कहते हैं, भईया आप ना जाईये मुझ दास से क्या अपराध हुआ जो आपके चरणो से दुर कर रहे हैं?
यह संपूर्ण राज्य आपका है आप ही इसके राजा है।
तब श्री रघुनाथजी ने जो कहा वह बहुत अद्भुत था...वे बोले..." भरत मैं करता हूं ना राज..मै वन का राज करूंगा और तुम अवध का, तुम यहाँ सबको सुखी करना और मैं वहां सबको सुख दुंगा।
ये हैं प्रेम......
इतना बङा राज्य चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ का, हकदार बङा भाई किन्तु दोनो में कोई लालसा नहीं उसकी..।
कहां है हम में इतनी समझ?
इंच इंच भुमि के लिए मरे जा रहे हैं और प्रेम का नाम लेते हैं।
प्रेम की सुगंध ही दिव्य होती है भाई।
प्रेम पवित्रता का प्रतीक है वासना का नही।
हम स्वयं के उल-जुलुल विचारो का अनुकरण करते हैं और उसे प्रेम का नाम देते है।
नहीं भाई, ये गलत है यदि हम अपने ठाकुरजी को वास्तव में प्रसन्नता देना चाहते हैं तो भीतर से कामना रहित होना होगा और यदि मन में कोई कामना रखनी ही है तो केवल ठाकुरजी के सुख की उनको कैसे सुख देवे हम बस और कुछ नही, क्योकि यही एक ऐसा कार्य है जो हम सब को भीतर से आंनद से भर देगा ....!!
इसलिये सदैव जपते रहिये...

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