Wednesday, 22 June 2016

महात्मा

एक महात्मा जी भक्ति कथाएं सुनाते थे। उनका अंदाज बड़ा सुंदर था औऱ वाणी में ओज था इसलिए उनका प्रवचन सुनने वालों की बड़ी भीड़ होती। उनकी ख्याति दूर-दूर तक हो गई। एक सेठ जी ने भी ख्याति सुनी। दान-धर्म-प्रवचन में रूचि रखते थे इसलिए वह भी पहुंचे। लेकिन उन्होंने अपना वेष बदल रखा था। मैले-कुचैले कपडे पहने जैसे कोई मेहनतकश मजदूर हो।
प्रतिदिन प्रवचन में आकर वह एक कोने में बैठ जाते और चुपचाप सुनते। प्रवचन में आने वाला एक व्यक्ति कई दिनों बाद आया। महात्मा जी के पूछने पर बताया कि उसका घर जलकर राख हो गया। उसके पास रहने को घर नहीं है।
महात्मा जी ने सबसे कहा- “ईश्वर ने कोप किया। वह आपकी परीक्षा लेना चाहते है कि क्या आप अपने साथी की सहायता करेंगे। वह आपकी परीक्षा ले रहे हैं इसलिए जो बन पड़े, सहायता करें।“
एक चादर घुमाई गई। सबने कुछ न कुछ पैसे डाले। मैले कपड़े में बैठे सेठ ने 10 हजार रूपए दिए। सबकी आंखें फटी रह गईं। वे तो उससे कोई उम्मीद ही नहीं रख रहे थे। सब समझते थे कि वह कंगाल और नीच पुरुष है जो अपनी हैसियत अनुसार पीछे बैठता है। सबने उसके दानशीलता की बड़ी प्रशंसा की। उसके बारे में सब जान चुके थे।
अगले दिन सेठ फिर से उसी तरह मैले कपड़ों में आया और स्वभाव अनुसार पीछे बैठ गया। सब खड़े हो गए और उसे आगे बैठने के लिए स्थान देकर प्रार्थना की पर सेठ ने मना कर दिया।
फिर महात्माजी बोले- “सेठजी आप यहां आएं, मेरे पास बैठिए। आपका स्थान पीछे नहीं।“
सेठ ने उत्तर दिया- “सच में संसार में धन की ही पूजा है। आम लोगों की भावनाएं तो भौतिकता से जुड़ी होंगी लेकिन महात्माजी आप तो संत है। मैले कपड़े वाले को अपने पास बिठाने की आपको तभी सूझी जब मेरे धनी होने का पता चला।
'माया को माया मिले, कर-कर लंबे हाथ। तुलसीदास गरीब की, कोई न पूछे बात।।‘
महात्माजी आप माया के प्रभाव में मुझे अपना रहे हैं। क्या यह सत्य है या कोई और कारण है?
महात्माजी बोले- “आपको समझने में फेर हुआ है। मैं यह सम्मान आपके धन के प्रभाव में नहीं दे रहा। जरूरत मंद के प्रति आपके त्याग के भाव को दे रहा हूं। धन तो लोगों के पास होता ही है, दान का भाव नहीं होता। यह उस भाव को सम्मान है।“

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