Thursday 23 June 2016

आचार्य महीधर का यह सिद्धांत है कि आत्म विकास ईश्वर के निकट पहुंचने की पहली सीढ़ी है।


एक बार आचार्य महीधर अस्वस्थ हो गए। उनके आश्रम के शिष्य अनुष्ठान करने प्रयाग गए थे, कोई औषधि लाने वाला नहीं था।
आचार्य रोग की निर्बलता और आलस्य के कारण आश्रम से बाहर जाना नहीं चाहते थे।
उन्होंने सोचा कि भगवान कृष्ण से प्रार्थना की
जाए, वे अवश्य ही ठीक कर देंगे।
आचार्य ने भगवान कृष्ण की मूर्ति का मनोहारी श्रृंगार किया और विधिवत उपासना करने के बाद प्रार्थना की किः- "हे कृष्ण, आप मुझे स्वस्थ कर दें।"
भगवान ने "तथास्तु" कहा और आचार्य ठीक हो गए।
कुछ समय बीता आचार्य फिर से बीमार पड़ गए।
इस बार भी उन्होंने पहले की ही तरह भगवान की मूर्ति का श्रृंगार किया और पूजा करने के बाद प्रार्थना की किः- "हे कृष्ण, आप मुझे स्वस्थ कर दें।"
इस बार प्रार्थना सुन कर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही प्रकट हो गए और नाराज हो कर कहा किः- "जितना समय और श्रम मूर्ति को सजाने और पूजा- अर्चना करने में लगाया, उससे कम परिश्रम में वैद्य के पास जाया जा सकता था।"
भगवान श्रीकृष्ण ने आगे कहाः- "जो काम तुमको स्वयं करना है, उसके लिए मुझे याद करने की आवश्यकता क्या है?
पहले स्वयं कर्मशील बनो अपने कर्त्तव्य को त्यागने वाला मुझे कभी प्रिय नहीं होता।
चिकित्सक के पास जाना तुम्हारा कर्त्तव्य था, उसके लिए प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है।"
गीता में भी यही कहा गया है- ईश्वर की कृपा तभी मिलती है, जब हम यथाशक्ति अपने निर्धारित कर्त्तव्य का पालन करते हैं।
अभाव, असहाय स्थिति या घोर संकट के समय जहां कर्त्तव्य का पालन भी कठिन हो, वहीं ईश्वर की सहायता मांगनी चाहिए।
लोक सेवा के साथ-साथ 'स्व सेवा' की भी आवश्यक होती है।
आचार्य महीधर की आंखें खुल गईं और वे तुरंत वैद्य के पास पहुंचे। कुछ दिनों के बाद स्वस्थ भी हो गए।
लेकिन स्वस्थ होने के बाद उन्होंने उन कारणों को खोजना आरंभ किया, जिस कारण वे बार-बार बीमार पड़ते थे।
उन्हें लगा कि उनका आलस्य और काम न करने की प्रवृत्ति ही उनके रोग का कारण है।
इसके बाद उन्होंने एक पुस्तक लिखी स्वःसेवा चिंतन।
इस पुस्तक में उन्होंने बताया कि मानव को स्वयं को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
आत्म विकास व्यक्ति को समाज के अनुकूल बनाता है, और उसमें सात्विक प्रवृत्तियां विकसित करता है।
हमारे शास्त्रों में आत्म अनुशीलन पर बल दिया गया है।
कोई भी व्यक्ति अपनी सेवा तभी कर सकता है, जब उसे अपने दोषों का ज्ञान हो।
यहां सेवा का अर्थ विचार और आचरण की शुद्धि है।
स्वयं को स्वच्छ करे मन और तन से स्वस्थ रहने का उपाय करें।
आचार्य महीधर का यह सिद्धांत है कि आत्म विकास ईश्वर के निकट पहुंचने की पहली सीढ़ी है।
इस सेवा भाव का एक और पक्ष है- किसी मुनि ने अध्यात्म का गहरा अध्ययन किया।
विद्या का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रहा, जिसका अनुशीलन न किया हो।
लेकिन यह भूल गए कि जो ज्ञान प्राप्त किया उसका अर्थ क्या है?
तपस्वी होने का प्रयोजन क्या है?
धर्म का मूल सेवा है, ज्ञान का आधार सेवा है, ईश्वर को सेवा ही प्रिय है, पर अपनी नहीं।
यह सृष्टि ईश्वर की है, उसकी किसी भी रचना की सेवा करना, ईश्वर की सेवा है।
सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, किसी भी ज्ञान का वास्तविक लक्ष्य यही है।
इसलिए अपने भीतर ज्ञान के साथ-साथ सेवा भाव भी विकसित करें।
ईश्वर आपकी सेवा-सामर्थ्य और धैर्य को देखना चाहता है।
यदि आप सेवा पथ पर चलोगे, तो अनंत आकाश से कृपा की अनंत वर्षा होगी।
रोज किसी न किसी असहाय की सेवा करो आपको अपने अंत:करण में शांति की प्राप्ति होगी, यही ईश्वर की प्राप्ति है।

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