Wednesday 22 June 2016

मीरा चरित (22)

अश्रुसिक्त मुख और भरे कण्ठ से मीरा ह्रदय की बात , संगीत के सहारे अपने आराध्य से कह रही थी ।ठाकुर को उन्हीं के गुणों का वास्ता दे कर , उन्हें ही एकमात्र आश्रय मान कर ,अत्यन्त दीन भाव से कृपा की गुहार लगा रही थी ।मीरा अपने भाव में इतनी तन्मय थी कि किसी के आने का उसे ज्ञात ही नहीं हुआ ।

एक दृष्टि मूर्ति पर डालकर भोजराज ने उन्हें प्रणाम किया ।गायिका पर दृष्टि पड़ी तो देखा कि उसके नेत्रों से अविराम आँसू बह रहे थे जिससे बरबस ही मीरा का फूल सा मुख कुम्हला सा गया था ।यह देख कर युवक भोजराज ने अपना आपा खो दिया ।भजन पूरा होते ही जयमल ने चलने का संकेत किया ।तब तक मीरा ने इकतारा एक ओर रख आँखें खोली और तनिक दृष्टि फेर पूछा ," कौन है ?"

भोजराज को पीछे ही छोड़ कर आगे बढ़ कर स्नेह युक्त स्वर में जयमल बोले ," मैं हूँ जीजी ।" समीप जाकर और घुटनों के बल पर बैठकर अंजलि में बहन का आँसुओं से भीगा मुख लेते हुए आकुल स्वर में पूछा ,"किसने दुख दिया आपको ? " बस भाई के तो पूछने की देर भर थी कि मीरा के रूदन का तो बाँध टूट पड़ा ।वह भाई के कण्ठ लग फूट फूट कर रोने लगी ।

       " आप मुझसे कहिये तो जीजी, जयमल प्राण देकर भी आपको सुखी कर सके तो स्वयं को धन्य मानेगा ।" दस वर्ष का बालक जयमल जैसे आज बहन का रक्षक हो उठा ।

मीरा क्या कहे ,कैसे कहे ? उसका यह दुलारा छोटा भाई कैसे जानेगा कि प्रेम -पीर क्या होती है ? जयमल जब भी बहन के पास आता याँ कभी महल में रास्ते में मिल जाता तो मीरा कितनी ही आशीष भाई को देती न थकती-- "जीवता रीजो जग में , काँटा नी भाँगे थाँका पग में !" और " हूँ , बलिहारी म्हाँरा वीर थाँरा ई रूप माथे ।"

सदा हँसकर सामने आने वाली बहन को यूँ रोते देख जयमल तड़प उठा ," एक बार , जीजी आप कहकर तो देखो, मैं आपको यूँ रोते नहीं देख सकता ।"

         " भाई ! आप मुझे बचा लीजिए , बचा लीजिए , मीरा भरे कण्ठ से हिल्कियों के मध्य कहने लगी - "सभी लोग मुझे मेवाड़ के महाराज कुँवर से ब्याहना चाहते है ।स्त्री का तो एक ही पति होता है भाई ! अब गिरधर गोपाल को छोड़ ये मुझे दूसरे को सौंपना चाहते है ।मुझे इस पाप से बचा लीजिए भाई ..... आप तो इतने वीर है......मुझे आप तलवार के घाट उतार दीजिए ......मुझसे यह दुख नहीं सहा जाता ........मैं आपसे ..........मेरी राखी का मूल्य ......माँग रही हूँ ........भगवान आपका .......भला करेंगे ।

जयमल बहन की बात सुन कर सन्न रह गये । एक तरफ़ बहन का दुख और दूसरी तरफ़ अपनी असमर्थता  ।जयमल दुख से अवश होकर बहन को बाँहो में भर रोते हुये बोले ," मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया ।........यह हाथ आप पर उठें, इससे पूर्व जयमल के प्राण देह न छोड़ देंगे ? मुझे क्षमा कर दीजिये जीजी । मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया....... ।"

दोनों भाई बहन  को भावनाओं में बहते ,रोते ज्ञात ही नहीं हुआ कि श्याम कुन्ज के द्वार पर एक पराया एवं सम्माननीय अतिथि खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख और सुन रहा है ।
क्रमशः ..............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

No comments:

Post a Comment