Thursday 30 June 2016

संसार के वे प्रथम दंपत्ति 2


“मैं तुम्हारी गुफा देख लूँ।”
पुरुष उठ खड़ा हुआ। उत्तर की उसे कोई अपेक्षा न थी। नारी उसका अनुगमन कर रही थी।
“तुम मृगचर्म पर सोती हो ?”
एक विस्तीर्ण शिला पर वह फैला था।
“यह है तुम्हारा भल्ल ? बहुत छोटा है और हलका भी है।”
पुरुष ने उसे उठाया, उछाला ऊपर को और फिर पकड़कर यथास्थान रख दिया।
“अब मैं सोउंगा।” गुफा को उसने अधिक बारीकी से नहीं देखा। मृगचर्म पर लम्बा लेट रहा। जैसे यह उसी की गुफा हो।”
तुम यदि कहीं जाने लगो तो गुफा द्वार शिलावरुद्ध कर देना।”
अत्यन्त परिचित की भाँति उसने कहा।
“तुमने न तो कन्द देखे, न फल।”
पुरुष के गुफा में प्रवेश करते समय तो नारी डर रही थी कि वह उसका संचय खा जाएगा। किन्तु उसकी निरपेक्षता ने उसके मन में दूसरी भावना जाग्रत कर दी। सम्भवतः यह अतिथि सत्कार का प्रथम प्रयास था इस धरती पर।
“मैंने पूरा मधुछत्र ला रखा है और नारियल पात्र में झरने का शीतल जल भी है।”
“मैं तुम्हें लूटने नहीं आया था। पुरुष उठ बैठा। किंतु अब तो कुछ खिला दो।”
उसने उठकर कोई वस्तु ढूंढ़ने या पाने का प्रयास नहीं किया।
“जो अच्छा लगे खा लो !”
नारी अचानक ही गृहिणी हो गयी थी। उसने सब कन्द और फल पुरुष के सामने रख दिए। एक नारियल के खोपरे में मधुछत्र निचोड़ दिया और जल पात्र भी ला रखा।
“मेरे लिए थोड़ा मधु छोड़ देना।”
“मैं अकेला कहाँ भोजन करने जा रहा हूँ।”
नारी का हाथ पकड़कर पुरुष ने उसे भी समीप बैठा लिया। “तुम भी खाओ ! फल और कन्द बहुत हैं और मधु भी दोनों के लिए पर्याप्त है।”
पहली बार पुरुष ने स्थिर बैठकर भरपेट भोजन किया।
भोजन करके लेट गया वह उसी मृगचर्म पर। लेटते ही खर्राटे लेने लगा। नारी देखती रही, देखती रही उसे और फिर अपना पाषाण भल्ल उठाकर द्वार पर जा बैठी।
“तुम्हारी गुफा छोटी है।”
भली प्रकार निद्रा लेकर पुरुष उठा था। गुफा से निकलकर नारी के समीप बैठते हुए उसने कहा,
“अब दोनों साथ साथ एक ही गुफा में रहें, यही अच्छा होगा। मेरी गुफा पर्याप्त बड़ी है और इससे कहीं अधिक सुरक्षित भी।”
उसी दिन सायंकाल नारी अपना भल्ल और नारियल पात्र एवं मृगचर्म लेकर पुरुष की गुफा में आ गयी। सम्भवतः उसी दिन से नारी ने स्वगृह त्याग कर पतिगृह का निवास अपनाया।
अभी भी धरती पर महाकाय डायनासौर का अभाव नहीं हुआ था। दलदलीय भूमि में वे चालीस से साठ हाथ लम्बे प्राणी जिनका रूप मगर एवं गिरगिट से मिलता जुलता था, भरे पेड़ थे। प्रायः ये झील के पन्द्रह बीस हाथ जल ही में रहते थे। जहाँ सघन लम्बी घासें उगी होतीं।
सूखी धरती पर सबसे बड़ा प्राणी था, मैग्नेशियम। यह भी डायनोसौर प्रजाति का ही था। फल एवं पत्ते इसके आहार थे। कंचे बड़े पेड़ों की तीन चार फुट मोटी डालियों को वह मूली के समान तोड़ डालता था।
शेर व्याघ्र को वह इस प्रकार चीर फेंकता, जैसे हम सब प्रातः काल दातून चीरते हैं। उसके अतिरिक्त शेर, व्याघ्र, उनी भैंसे, त्रिखंगी गैंडा ये सब महाभयंकर प्राणी थे उस घोर वन में।
वृक्षों पर गुरिल्ले भरे पड़े थे और वे सब माँसाहारी जाति के थे। ये दलदल से दूर रहते थे। तीन चार हाथ लम्बे पतंगे भी अपने पैर धसाकर पशुओं का रक्त पी जाने को बहुत थे।
उनकी स्फूर्ति और गति ठीक आज के जुलाहे पतिंगे सी थी। सूखी भूमि एवं खोहों में अजगर तथा दूसरी जाति के सर्पों की कमी नहीं थी।
सबसे भयंकर थी डायनोसौर की एक अन्य प्रजाति। वह पृथ्वी पर, दलदल पर और जल में समान गति करता था। यह माँसाहारी अपने से दूने तिगुने मैग्नेशियम या अन्य प्रकार के ब्राँटोसौर का सरलता से शिकार कर लेता था। उसके पंजे व्याघ्र से भी अधिक सुदृढ़ थे। दूसरे पशु इसके लिए चींटी जैसे तुच्छ थे।
दिनभर भयंकर गर्मी पड़ा करती थी। धरती ढकी थी ऊंचे वृक्षों, लताओं एवं घासों से। दलदल अधिक था। वायु में नमी भरी ही रहती थी। संध्या अल्पकालीन होती थी।
रात्रि में सूची भेद्य अन्धकार को ज्येष्ठ की छाया या धूप की भांति एक से दूसरी पंक्ति को डुबाते आते देखा जा सकता था।

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