Thursday 30 June 2016

संसार के वे प्रथम दंपत्ति_4


“तुम्हारे लिए ढेरों कन्द और फल दो चार दिन में यहाँ एकत्र कर दूँगा और कई मधुछत्र भी।”
पुरुष ने नारी के उल्लास में कोई योग नहीं दिया। पता नहीं क्यों वह आज उदासीन हो रहा था। मैं एकांकी हो जाऊंगा।”
एकाँकी ?
नारी चौंकी।
“मुझे साथ नहीं चलने दोगे ? मैं तुमसे कुछ नहीं माँगूँगी। तुम्हारे लिए फल और कन्द ला दिया करूंगी। तुम्हारे दावाग्नि को पालूँगी।”
उसका गला भर आया था। पुरुष के कण्ठ में उसने दोनों भुजाएं डाल दीं।
“ऐसा कुछ नहीं !”
रक्षतापूर्वक नारी के हाथों को कण्ठ से अलग करता हुआ पुरुष कह रहा था
“में एकाँकी ही जाऊंगा।”
“तब मुझे मार डालो।”
वह सहसा खड़ी हो गयी। पुरुष का भल्ल कोने में से उठा लायी। उसे पुरुष के सम्मुख बढ़ाकर उसके सम्मुख खड़ी गयी। नेत्रों से दो धाराएं चल रही थीं और हिचकी बंध गयी थी। पुरुष ने भल्ल लिया ही नहीं, भल्ल नारी हाथों से छूटकर धड़ाम से गिर पड़ा। वह वहीं बैठकर घुटनों में मुख छिपाकर सिसकने लगी।
“ओह, मैं तुम्हारे प्रेम के सामने पराजित हुआ।”
वह सचमुच स्वयं को नारी की भावनाओं से बंधा महसूस कर रहा था। उसकी हिंस्र वृत्तियाँ भी इतने दिनों में कोमल भावनाओं में बदलने लगी थीं।
“लेकिन तुमने मुझे खूब जान तो लिया है न ? उसे स्वर में आशंका का पुट था।”
“जान लिया है, तुमने खूब अच्छी तरह से शेर को, टीले को।’8 नारी ने अब समझ लिया था कि पुरुष की आशंका झूठी थी। अतएव उसके स्वर में रोष था,
“मुझे तो यह जानना भर पर्याप्त था कि तुम विश्वसनीय हो, मेरे दुःख सुख के साथी हो, बस प्रेम कहो या अपनत्व उसके लिए विश्वास मात्र पर्याप्त है।”
पुरुष उसकी इन भावनाओं के सामने अपनी शारीरिक बलिष्ठता के दर्प को चकनाचूर हुआ महसूस कर रहा था। उसने आज से पूरी तरह अपने को नारी के हवाले कर दिया।
आज वह पूर्ण रूप से गृहस्वामिनी बन चुकी थी। वह उसका सहायक था।
इस धरती पर वे प्रथम दम्पत्ति थे।

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