Friday, 24 June 2016

नामजप

जैसे किसी को डाकू मिल
जाय और वह लूटने लगे, मारपीट करने लगे तो
अपने में छूटने की शक्ति न देखकर वह रक्षा के
लिये पुकारता है तो यह पुकार क्रिया नहीं है
। पुकार में अपनी क्रिया का, अपने बल का
भरोसा अथवा अभिमान नहीं होता । इसमें
भरोसा उसका होता है, जिसको पुकारा जाता
है । अतः पुकार में अपनी क्रिया मुख्य नहीं है,
प्रत्युत भगवान् से अपनेपन का सम्बन्ध मुख्य है ।
सन्तों ने कहा है‒
हरिया बदीवान ज्यों, करियै कूक पुकार ।
जैसे किसी को जबर्दस्ती बाँध दिया जाय तो
वह पुकारता है, ऐसे ही भगवान् को पुकारा
जाय, उनके नाम का जप किया जाय तो भगवान्
के साथ अपनापन प्रकट हो जाता है । इस
अपनेपन में अर्थात् भगवत्सम्बन्ध में जो शक्ति है,
वह यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाओंमें नहीं है ।
इसलिये नामजप का विलक्षण प्रभाव होता है

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत काल दिसि दसहूँ ॥
(मानस, बाल॰ २८ । १)
किसी भी प्रकार से नामजप करते-करते यह
विलक्षणता प्रकट हो जाती है । परन्तु
भावपूर्वक, समझपूर्वक नामजप किया जाय तो
बहुत जल्दी उद्धार हो जाता है‒
सादर सुमिरन जे नर करहीं ।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
(मानस, बाल॰ ११९ । २)
तात्पर्य है कि भावपूर्वक, लगनपूर्वक नामजप
करनेसे संसार समुद्र गोपद की तरह बीच में ही
रह जाता है । उसको तैरकर पार नहीं करना
पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः पार हो जाता है और
भगवान् के साथ जो नित्ययोग है, वह प्रकट हो
जाता है ।
जैसे प्यास लगनेपर जल की याद आती है तो वह
याद भी जलरूप ही है, ऐसे ही परमात्मा की
याद भी परमात्मा का स्वरूप ही है । जड़ होने
के कारण जल प्यासे को नहीं चाहता, पर
भगवान् स्वाभाविक ही जीव को चाहते हैं;
क्योंकि अंशी का अपने अंश में स्वाभाविक प्रेम
होता है । कुआँ प्यासे के पास नहीं जाता,
प्रत्युत प्यासा कुएँ के पास जाता है । परन्तु
भगवान् स्वयं भक्त के पास आते हैं । वास्तव में तो
भक्त जहाँ परमात्मा को याद करता है, वहाँ
परमात्मा पहले से ही मौजूद हैं ! अतः
परमात्मा को याद करना, उनके नाम का जप
करना क्रिया नहीं है । क्रिया प्रकृतिका
कार्य है, पर नामजप प्रकृति से अतीत है ।
वास्तव में उपासक (जापक) और उपास्य‒दोनों
ही प्रकृति से अतीत हैं । अतः नामजप से स्वयं
परमात्मा के सम्मुख हो जाता है; क्योंकि पुकार
स्वयं की होती है, मन-बुद्धि की नहीं । इसलिये
नामजप गुणातीत है ।

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