Wednesday, 22 June 2016

स्वार्थ के रिश्ते.


एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे । गर्मियों के दिन थे । एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे । इतने में एक कसाई वहाँ से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा । उसमें से एक बकरा एक अनाज की दुकान पर चढ़ कर मोठ खाने लपक पड़ा । उस दुकान पर नाम लिखा था ‘ शगालचंद सेठ ।’
दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़ कर दो-चार घूँसे मार दिये । बकर ‘बैंऽऽऽ -बैंऽऽऽ’ करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर पड़े । फिर वह दुकानदार कसाई को बकरा पकड़ाते हुए बोला: ” जब इस बकरे को तुम हलाल करोगे तो इसका मस्तक मुझको देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है ।”
देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर-से हँस पड़े ।
तुम्बरू पूछने लगा: ” गुरुजी ! आप क्यों हँसे ? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े । इसमें क्या रहस्य है ?
नारद जी ने कहा : ” छोड़ो भी, यह तो सब कर्मों का फल है, छोड़ो ।”
“नहीं गुरुजी ! कृपा करके बताइये ।”
” इस दुकान पर जो नाम लिखा है ‘शगालचंद सेठ’, वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरा होकर आया है । यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है । सेठ मर कर बकरा हुआ है और इस दुकान से अपना पुराना सम्बन्ध समझ कर इस पर मोठ खाने गया । उसके बेटे ने ही उसको मार कर भगा दिया । मैंने देखा कि 30 बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह ही क्यों गया ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना सम्बंध था । जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिये हैं तो उसका मस्तक माँग रहा है, पिता का !
इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही हैं कि अपने-अपने कर्मों का फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता ।
वर्तमान में भी मनुष्य स्वार्थ वश
रिश्ते को भी भूल जाता हैं और अपने स्वार्थ पूर्ति के लिये अपने ही पालक माता -पिता को दुःख पहुँचता है, घर से बेघर करता है ।
ये सब पूर्व जन्मों के फल से होता है । कई बार कोई अजनबी हमे अच्छा लगता है तो साथ रहने वालो से नही बनती, जिनसे राग होता है वो उर्वा के सम्बन्धी होते है और जिनसे द्वेष उतपन्न हो वे पूर्व के शत्रु भी हो सकते हैं । यदि आगे भव न चाहो तो जग में रहकर भी जग से निष्पृहि रहो , उनसे एकत्व, ममत्व का त्याग करों ।
हे आत्मन ! इसी का नाम संसार है । इससे दृष्टि हटाकर आत्मा से प्रति बढ़ाओ, इससे मैत्री भव-भव के दुःख नशायेगी । समकित से सुरभित जीवन बनाओ ।

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