पंद्रहवीं षताब्दी की बात है। दुनीचंद नामक एक धनाढ्य सेठ था। वह पांच लाख रुपये का मालिक था। उस जमाने की यह प्रथा था कि जिसके पास जितने लाख रुपये होते थे उसकी छत पर उतनी ही ध्वजा लहराती थी। इस प्रकार से दुनीचन्द की छत पांच ध्वजाओं से सुषोभित थी।
एक दिन सेठ दुनीचन्द ने अपने पिता के श्राद्ध के उपलक्ष्य में विषाल भण्डारे का आयोजन किया। सैंकड़ों लोगों ने इसमें भोजन किया। घूमते-फिरते गुरु नानक देव जी भी वहां पहुंच गए। सेठ जी ने बड़े ही विनम्र भाव से उनका आदर सत्कार किया। नानक साहब ने सेठ से पूछा-सेठ जी! भण्डारे का आयोजन किस ख़ुशी में हो रहा है? सेठ ने जवाब दिया कि आज मेरे पिता का श्राद्ध है इसलिए 200 गरीब आदमियों के भोजन हेतु भण्डारे का आयोजन किया गया है। नानक साहब ने उनसे फिर पूछा - क्या आपके पिता जिन्दा है? सेठ जी हंसते हुए कहने लगे- महात्मा जी! आप ये कैसी बात कर रहे हैं? क्या आपको पता नही कि किसी का श्राद्ध उसकी मौत के बाद ही किया जाता है। नानक साहब बोले- परन्तु आपके पिता का इससे क्या सरोकार। यह भोजन जो आपने गरीबों को खिलाया है, यह आपके पिता को तो मिला ही नहीं। वह तो अब भी भूखा बैठा है। सेठ ने आश्चर्य चकित होकर नानक साहब से पूछा- आप यह कैसे कह रहें हैं कि मेरे पिता को भोजन नहीं मिला और वह भूखा हैं। क्या आप जानते हैं कि मेरा पिता कहां हैं? नानक साहब कहने लगे कि आपका पिता यहां से पचास कोस दूर जंगल में एक झाड़ी में लक्कडभ्बग्घा बना बैठा हैं। तुमने 200 आदमियों को भोजन कराया ताकि वह भोजन तुम्हारे पिता को मिले परन्तु वह तो कई दिन से भूखा हैं। अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा तो जंगल में जाकर स्वयं अपनी आंखों से देख ले। सेठ ने नानक साहब से पूछा- मैं यह कैसे जानूंगा कि वह लक्कड़बग्घा मेरा पिता हैं? नानक साहब ने आशीर्वाद दिया और कहा - जब तुम जंगल में उसके सामने जाओगे तो मेरे आशीर्वाद के प्रताप से वह तुमसे इंसान की भाषा में बात करेगा।
अपनी जिज्ञासा को मिटाने के लिए सेठ जंगल में चला गया। वहां जाकर उसने देखा एक लक्कड़बग्घा एक झाड़ी में बैठा था। सेठ ने उससे कहा- पिता जी! आप कैसे है? लक्कड़बग्घा ने जवाब दिया-बेटा! मैं कई दिनों से भूखा हूं। मेरे शरीर में बहुत दर्द और तकलीफ है। दर्द मे मारे मैं चलने फिरने में भी असमर्थ हूं। सेठ ने आष्चर्य से लक्कड़बग्घे से पूछा- पिता जी! आप तो बहुत नेक इंसान थे। आपकी धार्मिक प्रवृति जग जाहिर थी। आपने बहुत दान-पुन्य किया था फिर भी आपको लक्कड़बग्घे की योनि क्यों प्राप्त हुई? लक्कड़बग्घे ने जवाब दिया कि बेटा, यह सत्य हैं कि मैंने अपनी तमाम उम्र नेक और परोपकार कर्मो में बिताई परन्तु मेरे अन्त समय में मुझे मांस खाने की इच्छा थी जिसके फलस्वरुप मुझे लक्कड़बग्घे का जन्म मिला।
इस प्रकार लक्कड़बग्घे से बातचीत करके सेठ जंगल से घर लौट आया और अपने परिवार सहित तुरन्त नानक साहब से मिला। नानक साहब से मिलकर सेठ नत्मस्तक होकर उनसे कहने लगा कि आप पूर्ण पुरुष हैं। आपने मेरा भ्रम दूर करके मुझ पर बहुत भारी अहसान किया है अन्यथा मेरे पिता की ही तरह मेरा जीवन भी अकारथ चला जाता। अब आप कृप्या करके हमें वह रास्ता बतायें जिस पर चलकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकें। नानक साहब ने अपार दया करते हुए उन्हें नाम की बख्षीष कर दी।
गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दान हराम है, देखो वेद पुराण।।
गुरु धारण किए बगैर, अज्ञान वश किया गया दान, हमारे अहंकार को पुष्ट करता है। अहंकार जीव को अधोगति की ओर ले जाता है। वेद शास्त्र इस बात की पुष्टि करते है। राजा नृप एक करोड़ गाय रोजाना दान में देते थे। परन्तु ऋशियों के श्राप से उन्हें अगला जन्म गिरगिट का मिला। संत कहते हैं कि दान हमेशा योग्य या सुपात्र को ही करना चाहिए। मनमर्जी से किये गये दान का पता नहीं लगता कि वह सुपात्र को मिला या नही। भूल से यदि दान कुपात्र को चला जाता है और वह उससे कोई पाप या बुरा कर्म कर देता है तो कुपात्र से ज्यादा पाप दानी को लगता है।
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