प्रेमियों, कौन हैं श्याम बाबा? किस कुल में उत्पन्न हुए? क्यों कलयुग के प्रधान देव कहलाये? उन्हें मोरवीनंदन क्यों कहा जाता है? ऐसे कई जिज्ञाषा भरे प्रश्न श्यामबाबा खाटूवाले के विषय में श्यामभक्तो के मन में उभरते है... श्री मोरवीनंदन खाटूश्याम जी की शास्त्रसम्मत दिव्य कथा का वर्णन स्वयं भगवान श्री वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड “कौमारिका खंड”में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से किया है, आइये हम सब भी उस दिव्य कथा का रसास्वादन करे...
श्रीमद्भागवत गीता के मतानुसार जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब भगवान् साकार रूप धारण कर दीन भक्तजन, साधु एवं सज्जन पुरुषों का उद्धार तथा पाप कर्म में प्रवृत रहने वालो का विनाश कर सधर्म की स्थापन किया करते है... उनके अवतार ग्रहण का न तो कोई निश्चित समय होता है और न ही कोई निश्चित रूप धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि को देखकर जिस समय वे अपना प्रगट होना आवश्यक समझते है, तभी प्रगट हो जाते है...
ऐसे कृपालु भगवान के पास अपने अनन्य भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता... परन्तु सच्चा भक्त कोई विरला ही मिलता है... यद्यपि उस सच्चिदानंद भगवान के भक्तो की विभिन्न कोटिया होती है,परन्तु जो प्राणी संसार, शरीर तथा अपने आपको सर्वथा भूलकर अनन्य भाव से नित्य निरंतर केवल श्री भगवान में स्थिर रहकर हेतुरहित एवं अविरल प्रेम करता है, वही श्री भगवान को सर्वदा प्रिय होता है...श्री भगवान के भक्तो की इसी कोटि में पाण्डव कुलभूषण श्री भीमसेन के पोत्र एवं महाबली घटोत्कच के पुत्र, मोरवीनंदन वीर शिरोमणि श्री बर्बरीक भी आते है...
पाण्डुनंदन महाबली भीम ने हिडिम्बा से गंधर्व विवाह रचाया था... हिडिम्बा के गर्भ से वीर घटोत्कच नामक शूरवीर योद्धा का जन्म हुआ था... कालांतर में घटोत्कच अपनी माता हिडिम्बा की आज्ञा से अपने महाबली पिता भीम, श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि के दर्शनार्थ इन्द्रप्रस्थ आया...
भगवान श्री कृष्ण इस पराक्रमी वीर घटोत्कच को देखकर, प्रसन्न हो पांडवो से बोले - "इस युवा योद्धा के विवाह का शीघ्र प्रबंध किया जाये"
इस पर पांडवो ने कहा- "भगवन! कहाँ और कैसे सम्बन्ध तय हो, यह आप ही सुनिश्चित करे..."
भगवन श्री कृष्ण ने कहा - "इसके समान ही अत्यंत बुद्धिमान एवं वीर श्रेष्ठ मूर दैत्य की अति सुन्दर बाला कामकटंककटा, जो मूर दैत्य की औरस पुत्री है, इस सुभट योद्धा के लिए वही अनुकूल स्त्री है... घटोत्कच ही अपने विवेक द्वारा उसे शास्त्र विद्या में परास्त कर सकता है... मैं घटोत्कच को स्वयं दीक्षित कर उस मृत्यु स्वरूप नारी को वरण करने हेतु भेजूँगा..."
श्री कृष्ण के हाथो दीक्षित होकर घटोत्कच मोरवी को वरण करने के उद्देश्य से चल पड़े... रास्ते में अनेको नदियों, नालो, जंगलो, पहाड़ों, खूंखार राक्षसों, नर भक्षक, हिंसक एवं भयानक जानवरों को परास्त करता हुआ घटोत्कच कामकटंककटा के दिव्या प्रासाद (महल) के समीप पहुंचा...
महल के चारों ओर उपस्थित प्रहरी युवतियों ने सौम्य राजकुमार के पास आकार कहा -"हे भद्रपुरुष! तुम यहाँ क्यों आये हो? क्या तुम अपनी मृत्यु का वरण करने आये हो? क्या तुम्हे महल के द्वार पर लटकती हुई यह मुंड मालाये नहीं दिख रही? क्या तुम इन वंदनवारों में अपना शीश जड़वाना चाहते हो?तुम शीघ्र ही यहाँ से वापस लौट जाओ ओर अपने प्राणों की रक्षा करो..."
प्रहरी दैत्य बालाओं की बात सुनकर घटोत्कच ने कहा - "हे देवियों! मैं कायर पुरुष नहीं हूँ, जो तुम्हारे कहने से लौट जाऊं.. जाओ अपनी महारानी से कहो कि एक वीर पुरुष तुमसे भेंट करने आया है... वह तुमसे विवाह करना चाहता है..."
घटोत्कच की दृढ़ता को देखकर उन दैत्य बालाओं ने घटोत्कच को महल के अन्तः पुर में जाने हेतु मार्ग दे दिया... घटोत्कच महारानी कामकटंककटा (मोरवी) के समक्ष उपस्थित हो गए... मोरवी घटोत्कच के रूप एवं सौंदर्य को देख कर उस पर मुग्ध हो गयी... उसने माता कामाख्या को धन्यवाद दिया, कि क्या उसने इसी सुरवीर से विवाह करने हेतु उसे भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र से बचाया था... मोरवी ने सोचा यह तो कोई दिव्य पुरुष है, फिर भी वह उसकी परीक्षा लेने को उद्धयत हुई...
मोरवी ने घटोत्कच से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछने प्रारंभ कर दिए... उसने कहा - "यहाँ आने के पूर्व क्या अपने मेरी प्रतिज्ञा के बारे में जाना? क्या आप अपने विवेक और बल से मुझे परास्त करने में स्वयं को सक्षम समझते है? क्या आपको अपने प्राणों का मोह नहीं है? क्या महल के प्रवेश द्वार पर अपने मुंडो की माला नहीं देखी? अब भी मैं तुमपर तरस खाती हूँ, तुम व्यर्थ में अपने प्राणों को मत गँवाओ, लौट जाओ..."
मोरवी की इस प्रकार की बाते सुन घटोत्कच ने कहा - "हे मृत्यु स्वरूप नारी! मैंने तुम्हारा सम्पूर्ण संविधान पढ़ लिया है... अब तुम शीघ्र ही अपने शास्त्र व शस्त्र रण कौशल हेतु तैयार हो जाओ..."
मोरवी ने प्रत्युत्तर दिया - "पहले तुम शास्त्र विद्या का कोई ऐसा प्रमाण दो, कि जिससे मुझे निरुत्तर कर सको..."
घटोत्कच ने कहा - "हे सुमति! किसी व्यक्ति के यहाँ उसकी पत्नी से एक कन्या ने जन्म लिया.. कन्या को जन्म देने के बाद वह चल बसी...कन्या के पिता ने उसे पालन पोषण कर बड़ा किया.. जब वह कन्या बड़ी हुई तो पिता की बुद्धि भ्रष्ट हो गई... वह अपनी पुत्री से बोला मैंने अज्ञात स्थान से लाकर तुम्हारा पालन पोषण किया है... अब तुम मुझसे अपना विवाह रचाकर मेरी कामना पूरी करो... सम्पूर्ण वृतांत से अनभिज्ञ वह कन्या उस व्यक्ति (अपने पिता) से विवाह कर लेती है... उनके संसर्ग से उन्हें एक कन्या की प्राप्ति होती है... अब हे सुभद्रे! तुम ही बताओ कि उनके संसर्ग से जन्मी वह कन्या उस नीच, अधम एवं कामी पुरुष की पुत्री हुई या दौहित्री?"
घटोत्कच का यह प्रश्न सुन मोरवी निरुत्तर हो गई...उसने आवेश में आकार स्वयं को निरुत्तर करने वाले को शस्त्र द्वारा परास्त करना चाहा और अपना खेटक उठाने का प्रयास किया... तभी वीर घटोत्कच ने मोरवी को अपनी बाँहों की फाँस में बांध कर पृथ्वी पर पटक दिया... मोरवी घटोत्कच के हाथों शास्त्र और शस्त्र दोनों विद्याओ में परास्त हो चुकी थी... उसने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए पांडवनंदन घटोत्कच पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...
घटोत्कच ने कहा- सुभद्रे! उच्च कुल के लोग चोरी छुपे विवाह नहीं करते है, तुम आकाश गामिनी हो,अपनी पीठ पर बिठाकर मुझे मेरे परिजनों के निकट ले चलो.. हम दोनों का विवाह उनके समक्ष ही होगा..."
मोरवी ने घटोत्कच की आज्ञा का पालन किया... वह उन्हें अपनी पीठ पर बिठाकर उनके परिजनों के समक्ष ले आई...यहाँ श्री कृष्ण एवं पांडवो की उपस्थिति में घटोत्कच का विवाह मोरवी के साथ विधि विधान से संपन्न किया गया...द्रौपदी ने नववधू को आशीर्वाद दिया... घटोत्कच अपनी पत्नी मोरवी के साथ पुनः महल में लौट आये... फिर घटोत्कच कुछ दिन अपनी पत्नी मोरवी के महल में रहने के पश्चात यहाँ से चले आये...
कुछ समय पश्चात मोरवी ने एक शिशु को जन्म दिया... घटोत्कच ने उस बालक के बाल बब्बर शेर के जैसे घुंघराले होने के कारण उसका नाम 'बर्बरीक' रखा... जन्म लेने के तत्काल पश्चात पूर्णत: विकसित उस बालक को लेकर महाबली घटोत्कच, भगवान श्री कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए...
भगवन श्रीकृष्ण ने घटोत्कच एवं वीर बर्बरीक का यथोचित अभिवादन कर यु कहा - "हे पुत्र मोर्वये! पूछो तुम्हे क्या पूछना है, जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो..." तत्पश्चात बालक बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा - "हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है...?"बालक बर्बरीक के इस निश्चल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा - "हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है... जिसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी... अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में सिद्ध अम्बिकाओ व नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो.."
श्री कृष्ण के इस प्रकार कहने पर, बालक वीर बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम किया... एवं श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को "सुहृदय" नाम से अलंकृत किया...
त्पश्चात वीर बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान अर्जित कर महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक सिद्ध अम्बिकाओ की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान की, जिससे तीनो लोको में विजय प्राप्त की जा सकती थी... एवं उन्हें "चण्डील" नाम से अलंकृत किया...
तत्पश्चात सिद्ध अम्बिकाओ ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पुर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयी... कुछ समय पश्चात जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ और वे वीर बर्बरीक के सुरक्षा में सिद्धि प्राप्तियो हेतु यज्ञ करने लगे. वीर बर्बरीक ने उस सिद्ध यज्ञ में विघ्न डालने आये पिंगल-रेपलेंद्र- दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भांति भस्म करके उनके यज्ञ संपूर्ण कराया... विजय नाम के उस ब्राह्मण का यज्ञ संपूर्ण करवाने पर देवता और देवियाँ वीर बर्बरीक से और भी प्रसन्न हुए और प्रकट हो यज्ञ की भस्म स्वरूपी शक्तियां प्रदान की... और विजय विप्र और वीर बर्बरीक को आशीर्वाद देकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गयी... इन्ही वीर बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने एवं सैदव निर्बल एवं असहाय लोगो की सहायता करने का व्रत लिया है...
एक दिन पांडव वनवास काल में भ्रमण करते हुए भूखे प्यासे उस तालाब के पास पहुँचे, जिससे वीर बर्बरीक सिद्ध अम्बिकाओ के पूजन हेतु जल लिया करते थे... महाबली भीम प्यास से उतावले हो, बिना अपने हाथ- पैर धोए ही उस तालाब में प्रवेश कर गए... बर्बरीक ने भीम को ऐसा करते हुए देख लिया और उन्हें अनेक अपशब्द कहे... दोनों में घमासान युद्ध हुआ... वीर बर्बरीक ने महाबली भीम को अपने हाथों से उठा लिया और उन्हें सागर में फेंकना चाहा... तभी वहाँ सिद्ध अम्बिकाए आ गई... उन्होंने बर्बरीक से महाबली भीम का वास्तविक परिचय करवाया...बर्बरीक को अपार पश्चताप हुआ, वह अपने प्राणों का अंत करने को उद्यत हुए... सिद्ध अम्बिकाओ एवं भगवन शंकर ने बर्बरीक का मार्ग दर्शन करते हुए उन्हें महाबली भीम के चरणस्पर्श कर क्षमा याचना करने का सुझाव दिया... महाबली भीम ने अपने सुपोत्र के पराक्रम से प्रसन्न हुए और बर्बरीक को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा हो गए...
धृतराष्ट्र पुत्रों ने पांडवो से छल-कपट कर उनसे उनका सर्वस्व छीन लिया था... पांडव वन-वन भटकने को विवश कर दिए गए... परिणाम स्वरुप महाभारत के महासंग्राम
का समय अ गया...
वीर बर्बरीक को जब इस मह्संग्राम की सुचना मिली तो अपनी माता मोरवी एवं आराध्य शक्तियां की आज्ञा लेकर युद्ध क्षेत्र तक आ गए... नीले अश्व पर आरूढ़ हो वीर बर्बरीक ने पांडवो सेना के निकट ही अपना अश्व रोका और उनके संवाद ध्यान से सुनने लगे...
पास ही कौरव पक्ष में भी चर्चा हो रही थी कि - 'कौन-कौन, कितने समय में, किस-किस के सहयोग से, कितने दिनों में युद्ध जीत सकता है... भीष्म पितामह और कृपाचार्य यह युद्ध एक-एक महीने में,द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा पन्द्रह और दस दिनों में, और कर्ण इसे मात्र छह दिनों में ही जीत सकते है...'
इधर पांडवो के खेमे से चर्चा के स्वर सुने दे रहे थे, कि - 'गर्व युक्त वाणी में अर्जुन कह रहे थे कि वह अकेले मात्र एक दिन में ही यह युद्ध जीत सकते है...' अर्जुन की यह वाणी सुनकर बर्बरीक ने चर्चा के बीच में ही बोल दिया कि - 'आप किसी को भी यह युद्ध लड़ने की आवश्यकता नहीं है, मैं स्वयं अकेला ही अपने अजेय आयुधों के साथ इस युद्ध में एक ही पल में विजय प्राप्त कर लूँगा... आपको विश्वास नहीं हो तो मेरे पराक्रम की परीक्षा ले ले...?"
इसे सुनकर अर्जुन बड़े ही लज्जित हुए और श्री कृष्ण कि और देखने लगे... इस पर श्रीकृष्ण ने कहा -'यह नव आगंतुक ठीक ही तो कह रहा है.. पूर्व काल में इसने पाताल लोक में जाकर नौ करोड़ पलाशी दैत्यों का संहार कर दिया था...'
भगवान श्री कृष्ण ने अब स्वयं उस वीर के पराक्रम को जानना चाहा और उससे पूछे -'वत्स! भीष्म,द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और दुर्योधन आदि महारथियों द्वारा सुरक्षित सेना पर भगवान शंकर द्वारा ही विजय पाना संभव है, तो तेरे इन नन्हे हाथो से यह कैसे संभव होगा...'
इतना सुनते ही वीर बर्बरीक ने अपने तुणीर से एक बाण निकाला... उसमे उसने सिंदूर जैसे भस्म को भर दिया... धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींचकर उसे छोड़ दिया... उस बाण से जो भस्म उड़ा,जिसने समस्त वीरो के मर्म स्थल को छु लिया... केवल पांच पांडव, अश्वत्थामा और कृपाचार्य पर उस बाण का प्रभाव नहीं पड़ पाया..
वीर बर्बरीक ने कहा - 'देखो, मैंने इस बाण के प्रभाव से युद्ध स्थल में विराजमान समस्त योद्धाओं के मर्म को जान लिया है... अब इस दूसरे बाण से इन सभी को यमलोक पहुँचा दूँगा... सावधान! आप में से किसी ने भी कोई अस्त्र उठाया तो आपको आपके धर्म की सौगंध..."
वीर बर्बरीक ने जैसे ही उपर्युक्त बात कही, वैसे ही श्री कृष्ण ने कुपित होकर सुदर्शन चक्र द्वारा वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर दिया... वहाँ पर उपस्थित सभी लोगो को इस घटना से बड़ा ही विस्मय हुआ.. घटोत्कच इस दृश्य को देखकर मूर्छित हो गए... पांडवो में हाहाकार छा गया... तभी वह १४देवियाँ और सिद्ध अम्बिकायें प्रकट हो गयी... वह पुत्र शोक से संतप्त घटोत्कच को सांत्वना देने लगी...
सिद्ध अम्बिकायें उच्च स्वर में शिरोच्छेदन के रहस्य को उजागर करते हुए बोली - "देवसभा में यह वीर शिरोमणि अभिशप्त सुर्यवर्चा नामक यक्षराज था... अपने पूर्व अभिमान वश देवसभा से निष्काषित होकर इसने बर्बरीक के रूप में जन्म लिया था... ब्रह्मा जी के अभिशाप वश इसका शिरोच्छेदन भगवान श्री कृष्ण ने किया है... अतः आप लोग किसी बात की चिंता न करे और इसकथा को विस्तार से सुनिए"'
“मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो बोली- “ हेदेवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहनकरने में सक्षम हूँ.... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालनभली भांति करती रहती हूँ,पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ...”
गौस्वरुपा धरा की करूँ पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छागया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...”
देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ ...”
इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...
ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -“ भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...”
यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...“
तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -
तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !
शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.६५)
भावार्थ : "उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...
अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो
गए...
कालान्तर में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण के रूप में पृथ्वी में अवतार लिया और उन्होंने मूर दैत्य का वध कर डाला... तत्पश्चात उनका नाम मुरारी पुकारा जाने लगा... जैसे ही अपने पिता के वध का समाचार मूर दैत्य की पुत्री कामकटंककटा(मोरवी) को प्राप्त हुआ वह अजय अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होश्री कृष्ण से युद्ध करने लगी... वह दैत्या अपने अजेय खेटक( चंद्राकार तलवार) से भगवान के सारंग धनुष से निकलने वाले हर तीर के टुकड़े टुकड़े करने लगी... दोनो के बीच घोर संग्राम छिड़ा हुआ था... अब भगवान कृष्ण के पर सुदर्शन चक्र के अतिरिक्त स्वयं को सुरक्षित रखने के कोई विकल्प नहीं था... अतः ज्योंही श्री कृष्ण ने अपना अमोघ अस्त्र अपने हाथ में लिया , त्योंही माता कामाख्या ने अपनी भक्त्या मोरवी की रक्षार्थ वहाँ उपस्थित हो कर, उसे भगवान श्री कृष्ण के बारे में बताया... “ हे मोरवी ! जिस महारथी से तू घोर संग्राम कर रही है, यही भगवान श्री कृष्ण तेरे भावी ससुर होंगे...तुम शांत हो जाओ...इनके आशीर्वाद से तुम्हे इच्छित वरदान मिलेगा...”
माता कामाख्या से अपने कल्याणकारी वचन को सुनकर मोरवी शांत होकर श्री कृष्ण
भगवान के चरणों में गिर पड़ी और युद्ध स्थल से देवियों से आशीर्वाद लेती हुई अपने स्थान में आ गई...
वहाँ उपस्थित सभी लोगो को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा - "अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया... इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए, और इसमें श्रीकृष्ण का कोई दोष नहीं है...”
"इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!
यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !
उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! ( स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)
भावार्थ : "ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त ( श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया... और इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया... और कहा कि, "मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए...
"ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !
यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !
तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)
भावार्थ : ततपश्चात मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा : " हे वत्स ! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है, और जब तक सूर्य चन्द्रमा है,तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे...
देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !
स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)
भावार्थ : "तुम सैदव देवीयों के स्थानों में देवीयों के समान विचरते रहोगे...और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवीयो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे...
बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !
पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७७ )
भावार्थ : "तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात पित्त कफ से पिटक रोग होंगे, उनको पूजा पाकर बड़ी सरलता से मिटाओगे...
"इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !
इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७८ )
भावार्थ : "और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो... इस भांति वासुदेव श्रीकृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अन्तर्धान कर गई...
"बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !
देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !
ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)
भावार्थ : "बर्बरीक जी का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं बर्बरीक जी के धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया ( क्योकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था)...
उसके वाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ..."योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों ( सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा,भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चंडी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवा कर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर अमर कर दिया... एवं भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओ को पूर्ण करने का वरदान दिया... वीर बर्बरीक ने भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया जिसे श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊंचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की... एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...
महाभारत क युद्ध समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को यह अभिमान हो गया कि, यह महाभारत का युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है, तब श्री अर्जुन ने कहा कि, वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है.... तब वीर बर्बरीक के शीश ने महाबली श्रीभीमसेन का मान मर्दन करते हुए उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया.... और इस युद्ध में केवल भगवान श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था... वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा... एवं उस देवस्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी... देवताओं की दुदुम्भिया बज उठी...
तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा - "हे वीर बर्बरीक आप कलिकाल में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे... अतएव आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये, हम लोगो से जो भी अपराध हो गए हो, उन्हें कृपा कर क्षमाकीजिये"
इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड गयी... सैनिको ने पवित्र तीर्थो के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजाएँ शीश के समीप फहराई... इस दिन सभी ने महाभारत का विजय पर्व धूमधाम से मनाया...
कालान्तर में वीर बर्बरीक का शालिग्राम शिला रूप में परिणित वह देवत्व प्राप्त शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू ग्राम में बहुत ही चमत्कारिक
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