Tuesday, 2 February 2016

राधा - भाव


राधा भाव में उपासक और उपास्य में प्रेमाधिक्य के कारण एकरूपता हो जाती है । यही कारण था कि भगवान श्रीकृष्ण राधा जी हो जाते थे और श्रीराधा श्रीकृष्ण बन जाती थीं ।इस प्रकार का परिवर्तन परम स्वाभाविक है । उदाहरणस्वरूप गर्गसंहिता का यह श्लोक है -
श्रीकृष्ण कृष्णेति गिरा वदन्त्य:
श्रीकृष्णपादाम्बूजलग्नमानसा: ।
श्रीकृष्णरूपास्तु बभूवुरंगना -
श्र्चित्रं न पेशस्कृतमेत्य कीटवत् ।।
श्रीभगवान के नाम का स्मरण करती करती और उनके चरण कमलों में चित्त को लगाए हुए गोपियां श्रीकृष्णरूप हो गयीं । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि छोटा कीट भय से बड़े का चिंतन करते करते उसी के समान हो जाता है । कहा है -
राधा बजति श्रीकृष्णं स च तां च परस्परम् ।
श्रीराधा जी श्रीकृष्ण की उपासना करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण राधा की उपासना करते हैं । गोपिकाओं में श्रीराधा जी सर्वश्रेष्ठ थीं, क्योंकि यह स्वयं महाभाव - स्वरूपिणी थीं । एक बार महाराज श्रीकृष्ण के पाद पंकडों में छाले देखकर उनकी अन्य रानियों ने उनसे पूछा कि ये छाले कैसे पड़ा गए ? भगवान ने कहा कि तुम लोगों ने श्रीराधा को गर्म दूध पिला दिया था जिससे मेरे पैरों में छाले पड़ गए, क्योंकि मेरे ये चरण सदा सर्वदा उनके हृदय में रहते हैं । यथा -
श्रीराधिकाया हृदयारविंदे
पादरविंद हि विराजते मे ।
अहर्निशं प्रश्नयपाशबद्धं
लवं लवार्द्धं न चलत्यतीव ।।
अद्योष्णादुग्धप्रतिपानतोंघ्रा -
वुच्छालकास्ते मम प्रोच्छलंति ।
मन्दोष्णमेवं हि न दत्तमस्यै
युसमाभिरुष्णं तु पय: प्रदत्तम् ।।
श्रीभगवान के चरणकमलों को निष्काम सेवा के उद्देश्य से अपने हृदय में सर्वदा धारण करने से भगवान उसके प्रेमपाश से अवश्य ही बंध जाते हैं ।

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