Tuesday 2 February 2016

श्रीकैकेयी और सुमित्रा माता के चरित्र से शिक्षा




भरत माता श्री कैकेयी जी के चरित्रों से प्रकट और गुप्त - दो प्रकार की शिक्षाएं लौकिक तथा पारलौकिक रूपों में मिलती हैं । प्रथम प्रकटरूप में लोकशिक्षा को स्पष्ट किया गया है - जैसे कोई कैसा भी भला ऎघर क्यों न हो, घरवालों में परस्पर कैसी भी प्रीति क्यों न हो, घर की स्त्रियां कैसी भी सुयोग्य और सुबोध क्यों न हों, परंतु जहां उन्होंने चेरियों (नौकरानियों) की सेवा शुश्रूषा से प्रसन्न होकर उनका अनुचित मान बढ़ाया कि उन मंदबुद्धिवाली स्त्रियों को इधर - उधर भेदभाव पैदा करने और चुगली खाने का अवसर मिल जाता है । बस, रईसों की रमणियां उसी में अपना हित जानकर उनकी बातों में आ जाती हैं तथा अपनी सुशीलता और सुबोधता को खो बैठती हैं - ‘रहइ न नीच मतें चतुराई’ । परिणाम यह होता है कि वे अकारण ही परस्पर विरोध और विग्रह करने पर उतारू हो जाती हैं तथा सब प्रकार से हानि और दु:ख का शिकार बनती हैं ।
शुद्धहृदया और सुबोधा होते हुए भी श्रीकैकेयी जी मंथरा चेरी की बातों में आ गयीं और इतनी कठोरहृदया - इतनी अबोध बन गयीं कि अपनी ही करतूतों से अपने पतिदेव की मृत्यु का कारण बनीं तथा अपने प्राणप्रिय राम जी को वन में भेजकर अनादि काल तक के लिए अपयश का पात्र बनीं । अतएव संपूर्ण जगत की माताओं और बहनों को इस शिक्षा से सचेत रहना चाहिए, ताकि उन्हें भेदबुद्धि उत्पन्न करने वाली बातों के सुनने तक का भी अवसर न मिले ।
महान व्यक्तियों के अयुक्त - अनुचित कार्यों में भी युक्तता अर्थात् औचित्य रहता है । जैसे भगवान वामन ने राजा बलि से छल करके भिक्षा ली तो कुछ अपने स्वार्थ के लिए नहीं । क्योंकि जो भगवान आप्तकाम रक्षा एवं जगत - हित के लिए हुआ था । उसी प्रकार भरत माता श्रीकैकेयी जी ने भी प्रभु श्रीराम जी को संसार के हित के लिए ही वन में भिजवाया था । जो माता भरत सरीखे भगवद्भक्त पुत्र को पैदा करके श्रीभगवान को अर्पण कर दे और जिस भक्त से भगवद् भक्ति का गौरव बढ़े -
रामभगत अब अमिअं अगाहूं । कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूं ।।
वह माता यदि श्रीराम जी को सौ बार भी वन में भेजे तो प्रभु उस पर प्रसन्न ही रहेंगे । कारण यह है कि श्रीराम जी व्यापक ब्रह्म हैं, वे घर में अथवा वन में सब जगह हैं । उनके लिए घर और वन - सब समान हैं । किंतु श्रीभरत जी सरीखा भक्तभूषण तो त्रिभुवन में भी कोई नहीं है । किसी क्यों न हो । वास्तविक सेवक वहीं है, जो किसी प्रकार स्वामी से कपट अथवा स्वार्थ नहीं रखता ।
यश को छोड़कर अपयश का भागी बनना मृत्यु से भी कठिन हैं परंतु ऐसी सेवा करना ही कैकेयी अंबाका काम था । उनके पतिदेव श्रीदशरथ जी महाराज ने प्राण दे दिए, किंतु यश नहीं दे सके । इस कठिन सेवा से बगल ही दबा गये और इधर भगवान राम जी की प्रेमांध भक्ता श्रीकैकेयी माता ने अपने यश का परित्याग करके अपयश भागी बनने की कठिन सेवा को पूरा किया । यदि राम जी को उन्होंने वन में न भेजा होता तो प्रभु का भूभार उतारने का मुख्य कार्य नहीं हो पाता । उनको वन में भेजकर किसी को अपयश का भागी बनना आवश्यक था । बस, इसी सेवा को कैकेयी माता ने अपने जिम्मे ले लिया था । संसार में स्वार्थी भक्तों की कमी नहीं हैं । किसी को ज्यों ही भूख लगती है कि वह क्षुधाग्नि से संतप्त होकर ‘भगवान ! भगवान !’ पुकारने लगता है और कहता है कि ‘हे प्रभु, कहीं से भोजन भिजवाओ !’ अथवा जब किसी का पेट भरा रहता है तो वह अपने श्रवणानंद के लिए राग - रागिनियों द्वारा कोई भजन गाने लगता है या बहुधा रोग - पीड़ित भी ‘हाय राम, हाय राम’ कहने लगते हैं । परंतु श्रीकैकेयी अंबा जी की जैसी कठिन भक्ति थी, उन्होंने अपने प्यारे प्रभु श्रीराम जी के लिए जिस तरह अपयश उठाया और उसको आजीवन निभाया, वह दूसरों के लिए म्याऊं का ठौर ही है ।
भगवान श्रीरामचंद्र जी श्रीकैकेयी अंबा के चरणों में पड़कर उनको निर्दोष सिद्ध करने के लिए काल, कर्म और ब्रह्मा पर दोष लगाया । श्रीचित्रकूट से जब अयोध्या का समाज लौटने लगा, तब भी श्रीराम जी ने शुद्ध स्नेह के साथ सबसे पहले माता कैकेयी जी से ही भेंट की - वन यात्रा को पूरी करके श्रीअयोध्या में पधारने पर भी श्रीराम जी सबसे पहले माता कैकेयी के भवन में गए -
श्रीरामगीतावली को देखने से पता चलता है कि श्रीकैकेयी जब तक जीवित रहीं, तब तक श्रीराम जी उनको माता कौसल्या से भी अधिक सम्मान देते रहे । जिस अंबा मे अपने प्रभु के लिए सुयश को धूल में मिला दिया, नाना प्रकार के सोच, संकोच, लज्जा और कष्ट को बर्दाश्त किया, उस जननी को निर्दोष बनाकर सर्वश्रेष्ठ सम्मान देने के लिए प्रभु क्यों न तत्पर रहें ? माता कैकेयी के द्वारा जीवमात्र को इस कठिन किंतु सर्वोत्कृष्ट भक्ति की शिक्षा दी गयी है कि ‘सांसारिक अपमान और बदनामी की कुछ भी परवाह न करके भगवान की सेवा करनी चाहिए ।’

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