भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम अहंकार शून्य था । उस प्रेम का प्राणियों के बाह्य शरीर से कोई संबंध नहीं था । वह निस्सीम था और भगवान के हृदयस्त्रोत से प्रवाहित होकर जड़ चेतन सबी भूतों के अन्तस्तलके निगूढ़ शाश्वत प्रणय की तंत्री को अपने सुख - स्पर्श से स्पंदित एवं आंदोलित कर देता था । भगवान श्रीकृष्ण अपने माता, पिता, सखाओं तथा गोपियों के साथ रहकर जिस आनंद का अनुभव एवं वर्षम करते थे, अन्यान्य चराचर भूतों के साहचर्य में भी वे उसी समाधितुल्य आनंद की वर्षा और अनुभव करते थे । वनस्थली, पर्वतश्रेणी तथा कालिंदी के बालुकामय कूल को देखकर उनका हृदय आनंद के प्रवाह में बह जाता था । श्रीयमुना के बालुकामय तीर को देख, सुमन सौरभ युक्त समीर को स्पर्श कर एवं बिहग - समूहों की काकलि को सुनकर वे आश्चर्य एवं आनंद में मग्न हो जाते और कवित्वपूर्ण शब्दों में अपने उद्गारों को इस प्रकार व्यक्त करते थे ।
‘आओ ! हम लोग यहीं पर इन सबके साथ बैठकर कलेवा करें ।’ उनको पर्वत, बालू तथा नदियों के सहवास में उतना ही आनंद आता था जितना किसी चेतन प्रेमी के सहवास में । उनके प्रेम ने भगवान की दृष्टि में उन्हें देवताओं से भी ऊंचा बना दिया था । इससिए उन्होंने नंदबाबा को देवराज इंद्र की पूजा करने के लिए मना किया और कहा कि ‘आप इस हमारे प्रिय गोवर्धन पर्वत की और गौओं की पूजा कीजिए ।’ कृष्णपरायम श्रीनंद जी ने इस बात को स्वीकार किया और गोवर्धन की पूजा की । इसका कारण यहीं था कि जो बात भगवान को जंचती थी वहीं सबके मन भाती थी, क्योंकि वे ही अखिल प्रेम के आधार थे । वे वृक्षों को तो सेवाभाव की साक्षात् मूर्ति समझकर सदा ही उनके प्रति श्रद्धा तथा प्रेम रखते थे । एक स्थल पर आप बलराम जी से कहते हैं ‘भाई ! देखो ये वृक्ष किस प्रकार फूल और फलों के भार से झुककर आपका स्वागत कर रहे हैं । ’ दूसरी जगह वे इन वृक्षों के जीवन को मनुष्यों के लिए बड़ा ही उच्च आदर्श बतलाते हैं ।
श्रीयमुना जी के साथ तो वे अपनी प्रेयसी के समान प्रेम करते थे । वन के पशु पक्षी उनके क्रीड़ा - सहचर थे । वे और उनके साथी इन पशु - पक्षियों के साथ अनेक केल केलते थे । वे बंदरों की दुम पकड़कर वृक्षों पर चढ़ जाते और उनकी तरह मुंह बनाकर खेलते थे । मेंढकों के साथ कूदते, कुंओं के अंदर झांककर उसमें दिखायी देने वाली अपनी परछाइयों की ओर मुंह बनाते थे । प्रतिध्वनि के साथ वार्तालाप करते, मोरों के साथ नाचते, बगुलों के साथ ध्यान लगाकर बैठते और भंवरों के साथ ताल दे - देकर गाते थे । उन्होंने अपनी गायों के अलग - अलग नाम रख छोड़े थे और नाम लेकर पुकारते ही जो जहां भी होती, उनके पास दौड़ी चली आती थीं । उनके लिये वे प्रसन्नतापूर्वक कांटों और कंकड़ों पर दौड़ा करते थे । यद्यपि उनकी प्यारी गोपियों की इसके विचार से ही दु:ख होता था । एक बार जब भगवान ने बछड़ों का (बड़ी उम्र के बछड़ों का) रूप धारण किया तब गौएं उनको देखकर पर्वत के शिकर से बांध तुड़ाकर बागीं । उनके थनों से दूध बहने लगा । समस्त भूत प्राणियों के प्रति उनका जो प्रेम था, उसके प्रभाव से हिंसक पशु भी अपनी नैसर्गिक हिंसावृत्ति को भूल जाते और इसी कारण उनके पास सिंह और हरिण एक साथ खेलते थे । सारे के सारे भाव एक प३ेम में ही परिणत हो गये थे । उस स्थान पर प्रेमभरी सेवा का भाव ही सर्वत्र परिपूर्ण था, वहां उसी का साम्राज्य था । भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार हमें उस सच्चे प्रेम की ऐक्योत्पादक शक्ति का दर्शन कराया जो शरीर और व्यक्तित्व से परे हैं ।
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