Sunday 19 June 2016

वनवासियों के स्वास्थ्य का रहस्य

राजा चंद्रगुप्त तीर्थाटन के लिए काशी जा रहे थे। रात होने पर एक जगह पड़ाव डाला गया। चंद्रगुप्त ने किसी भी नगर के भव्य प्रासाद या भवन में ठहरने की अपेक्षा वन में रुकना उचित समझा। वह आम के एक उपवन में ठहरे। भोजन विश्राम आदि की व्यवस्था की गई। बीच में कुछ नृत्य आदि के कार्यक्रम भी हुए।
संयोगवश उसी रात चंद्रगुप्त अचानक बीमार हो गए। कुशल वैद्यों के उपचार ने उन्हें स्वस्थ तो कर दिया पर वह इसके बाद चिंता में डूब गए। वह विचार करने लगे कि आखिर वन और उसके आस-पास रहने वाले आश्रमवासी और गांव के लोग किस तरह रहते होंगे। उनके उपचार के लिए उन्होंने एक वैद्य को उस क्षेत्र में स्थायी रूप से नियुक्त कर दिया।
लेकिन वैद्य के काफी समय रहने के बाद भी जब कोई वनवासी या गुरुकुल में रहने वाले शिष्य अथवा आचार्य अपनी चिकित्सा कराने नहीं आया तो उकताकर एक दिन वैद्य ने एक आचार्य से कहा,'लगता है, मैं यहां व्यर्थ ही रह रहा हूं। यहां के लोग अस्वस्थ नहीं होते अथवा मेरे पास उपचार कराने में संकोच करते हैं।'
आचार्य ने वैद्य की शंका का निवारण करते हुए कहा,'भविष्य में भी शायद ही कोई आपके पास चिकित्सा के लिए आए क्योंकि यहां का प्रत्येक निवासी श्रम करता है। उसे जब तक भूख परेशान नहीं करती, भोजन नहीं करता। सब यहां अल्पभोजी हैं। जब कुछ भूख शेष रह जाती है, तभी खाना बंद कर देते हैं।'
आचार्य ने अपना आशय स्पष्ट करते हुए आगे कहा,'भूख से कम भोजन हो और नीति-नियमों से अर्जित धन से जुटाया हुआ आहार हो। स्वस्थ रहने के लिए परिश्रम करना और पसीना बहाना ही काफी नहीं, बल्कि पवित्र मन भी आवश्यक है। अपवित्र मन वाला व्यक्ति स्वस्थ नहीं रह सकता।' वैद्यराज को वनवासियों के स्वास्थ्य का रहस्य समझ में आ गया।

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