१-श्री भगवान् के नाम की महिमा अनन्त है और वह बड़ी ही रहस्यमयी है ।
२-नाम की महिमा वही पुरूष जान सकता है, जिसका मन निरन्तर श्री भगवन्नाम में संलग्न रहता है, नाम की प्रिय और मधुर स्मृति से जिसके क्षण-क्षण में रोमांच और अश्रुपात होते हैं, जो जल के वियोग में मछली की व्याकुलता के समान क्षणभर के नाम-वियोग से भी विकल हो उठता है, जो महापुरुष निमेषमात्र के लिये भी भगवान् के नाम को नहीं छोड़ सकता और जो निष्कामभाव से निरन्तर प्रेमपूर्वक जप करते-करते उसमें तल्लीन हो चुका है, ऐसा ही महात्मा पुरुष इस विषय के पूर्णतया वर्णन करने का अधिकारी है ।
३-शेष, महेश, गणेश की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान् भी अपने नाम की महिमा नहीं गा सकते-"रामु न सकहिं नाम गुन गाई"
४-संसार के समस्त दुःखों से मुक्त होकर ईश्वर-साक्षात्कार के लिये नाम-जप ही सर्वोपरि युक्तियुक्त साधन है ।
५-गीता में ज्ञानयोग को सबसे श्रेष्ठ बतलाया, परन्तु उसे अपना स्वरूप नहीं बतलाया । लेकिन जपयज्ञ को तो "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" ( गीता १० । २५ ) कहकर यही कह दिया कि सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ तो मैं ही हूँ ।
६-भगवन्नाम बड़ा ही सुगम साधन है, इसके सभी अधिकारी हैं, सभी इसको समझ सकते हैं, यह सबको सुलभ है, मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्य भी नाम का जप-कीर्तन कर सकते हैं । इसमें न कोई खर्च है, न परिश्रम ही । किसी प्रकार की बाधा भी अभीतक नहीं है । इतनी सुगमता होने के साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कोई भी शर्त नहीं है ।
७-भगवान् के समान तो भगवान् ही हैं और भगवान् का नाम भगवान् से अभिन्न है । इसलिये नाम-जप के साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती ।
८-कलियुग में तो नाम की महिमा सर्वोपरि है ।
९-'कलियुग में केवल श्री हरि का नाम ही कल्याण का परम साधन है, इसको छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ।'
१०-भगवान् के किसी भी नाम का जप किसी भी काल में किसी भी निमित्त से किसी के भी द्वारा कैसे भी किया जाय, वह परम कल्याण करनेवाला ही है ।
जय श्री कृष्णा
२-नाम की महिमा वही पुरूष जान सकता है, जिसका मन निरन्तर श्री भगवन्नाम में संलग्न रहता है, नाम की प्रिय और मधुर स्मृति से जिसके क्षण-क्षण में रोमांच और अश्रुपात होते हैं, जो जल के वियोग में मछली की व्याकुलता के समान क्षणभर के नाम-वियोग से भी विकल हो उठता है, जो महापुरुष निमेषमात्र के लिये भी भगवान् के नाम को नहीं छोड़ सकता और जो निष्कामभाव से निरन्तर प्रेमपूर्वक जप करते-करते उसमें तल्लीन हो चुका है, ऐसा ही महात्मा पुरुष इस विषय के पूर्णतया वर्णन करने का अधिकारी है ।
३-शेष, महेश, गणेश की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान् भी अपने नाम की महिमा नहीं गा सकते-"रामु न सकहिं नाम गुन गाई"
४-संसार के समस्त दुःखों से मुक्त होकर ईश्वर-साक्षात्कार के लिये नाम-जप ही सर्वोपरि युक्तियुक्त साधन है ।
५-गीता में ज्ञानयोग को सबसे श्रेष्ठ बतलाया, परन्तु उसे अपना स्वरूप नहीं बतलाया । लेकिन जपयज्ञ को तो "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" ( गीता १० । २५ ) कहकर यही कह दिया कि सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ तो मैं ही हूँ ।
६-भगवन्नाम बड़ा ही सुगम साधन है, इसके सभी अधिकारी हैं, सभी इसको समझ सकते हैं, यह सबको सुलभ है, मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्य भी नाम का जप-कीर्तन कर सकते हैं । इसमें न कोई खर्च है, न परिश्रम ही । किसी प्रकार की बाधा भी अभीतक नहीं है । इतनी सुगमता होने के साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कोई भी शर्त नहीं है ।
७-भगवान् के समान तो भगवान् ही हैं और भगवान् का नाम भगवान् से अभिन्न है । इसलिये नाम-जप के साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती ।
८-कलियुग में तो नाम की महिमा सर्वोपरि है ।
९-'कलियुग में केवल श्री हरि का नाम ही कल्याण का परम साधन है, इसको छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ।'
१०-भगवान् के किसी भी नाम का जप किसी भी काल में किसी भी निमित्त से किसी के भी द्वारा कैसे भी किया जाय, वह परम कल्याण करनेवाला ही है ।
जय श्री कृष्णा
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