कबीर दास की शिक्षा
एक ब्राह्मण हमेशा धर्म-कर्म में मग्न रहता था। उसने जीवनभर पूजा पाठ किए बिना कभी भी अन्न ग्रहण नहीं किया था। जब वृद्धावस्था आई तो वह बीमार पड़ गया और अपना अंत समय निकट जानकर विचार करने लगा, काश! प्राण निकलने से पूर्व मुझे गंगाजल की एक बूंद मिल जाती तो मेरे पापों का नाश हो जाता और मुझे मुक्ति मिल जाती।
तभी कबीरदास घूमते घामते उस ब्राह्मण के घर पहुंचे और उसकी कुशल क्षेम पूछकर कुछ सेवा करने की अभिलाषा व्यक्त की। उस ब्राह्मण ने कहा, बेटा, मैं सेवा करवाने का इच्छुक तो नहीं हूं लेकिन तुम्हारी सेवा भावना है तो मुझे एक लोटा गंगाजल लाकर दे दो। मैं मरने से पूर्व गंगाजल का सेवन कर पापों से मुक्ति चाहता हूं।
कबीरदास गंगा किनारे गए और अपने ही लोटे में गंगाजल ले आए। ब्राह्मण ने जब देखा कि कबीरदास अपने लोटे में ही गंगाजल लाए हैं तो वह बोला, तुम्हें अपने लोटे में गंगाजल लाने के लिए किसने कहा था। जुलाह के लोटे से गंगाजल ग्रहण कर मैं पापों से कैसे मुक्त हो सकूंगा। इससे तो मेरा धर्म ही भ्रष्ट हो जायेगा।
कबीरदास बोले, हे ब्राह्मण देवता! जब गंगाजल में इतनी ही शक्ति नहीं है कि वह जुलाहे के लोटे को पवित्र कर सके, तब आपको उस जल से कैसे मुक्ति मिल पाएगी?
कबीरदास का प्रश्न सुनकर वह ब्राह्मण निरूत्तर हो गया और क्षमा भावना से उनकी ओर ही देखने लगा।
"माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।"
एक ब्राह्मण हमेशा धर्म-कर्म में मग्न रहता था। उसने जीवनभर पूजा पाठ किए बिना कभी भी अन्न ग्रहण नहीं किया था। जब वृद्धावस्था आई तो वह बीमार पड़ गया और अपना अंत समय निकट जानकर विचार करने लगा, काश! प्राण निकलने से पूर्व मुझे गंगाजल की एक बूंद मिल जाती तो मेरे पापों का नाश हो जाता और मुझे मुक्ति मिल जाती।
तभी कबीरदास घूमते घामते उस ब्राह्मण के घर पहुंचे और उसकी कुशल क्षेम पूछकर कुछ सेवा करने की अभिलाषा व्यक्त की। उस ब्राह्मण ने कहा, बेटा, मैं सेवा करवाने का इच्छुक तो नहीं हूं लेकिन तुम्हारी सेवा भावना है तो मुझे एक लोटा गंगाजल लाकर दे दो। मैं मरने से पूर्व गंगाजल का सेवन कर पापों से मुक्ति चाहता हूं।
कबीरदास गंगा किनारे गए और अपने ही लोटे में गंगाजल ले आए। ब्राह्मण ने जब देखा कि कबीरदास अपने लोटे में ही गंगाजल लाए हैं तो वह बोला, तुम्हें अपने लोटे में गंगाजल लाने के लिए किसने कहा था। जुलाह के लोटे से गंगाजल ग्रहण कर मैं पापों से कैसे मुक्त हो सकूंगा। इससे तो मेरा धर्म ही भ्रष्ट हो जायेगा।
कबीरदास बोले, हे ब्राह्मण देवता! जब गंगाजल में इतनी ही शक्ति नहीं है कि वह जुलाहे के लोटे को पवित्र कर सके, तब आपको उस जल से कैसे मुक्ति मिल पाएगी?
कबीरदास का प्रश्न सुनकर वह ब्राह्मण निरूत्तर हो गया और क्षमा भावना से उनकी ओर ही देखने लगा।
"माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।"
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