ऋषि आश्रम में शिष्यों के बीच चर्चा छिड़ गयी कि 'अर्जुन के बल से कर्ण में बल ज्यादा था। बुद्धि भी कम नहीं थी। दानवीर भी बड़ा भारी था फिर भी कर्ण हार गया और अर्जुन जीत गये, इसमें क्या कारण था ?' कोई निर्णय पर नहीं पहुँच रहे थे, आखिर गुरुदेव के पास गयेः "गुरु जी ! कर्ण की जीत होनी चाहिए थी, लेकिन अर्जुन की जीत हुई। इसका तात्त्विक रहस्य क्या होगा ?"
गुरुदेव बड़ी ऊँची कमाई के धनी थे। आत्मा-परमात्मा के साथ उनका सीधा संबंध था। वे बोलेः "व्यवस्था तो यह बताती है कि एक तरफ नन्हा प्रह्लाद है, और दूसरी तरफ युद्ध में, राजनीति में, कुशल हिरण्यकशिपु है, हिरण्यकशिपु की विजय होनी चाहिए और प्रह्लाद मरना चाहिए परंतु हिरण्यकशिपु मारा गया।
प्रह्लाद की बुआ होलिका को वरदान था कि अग्नि नहीं जलायेगी। उसने षड्यंत्र किया और हिरण्यकशिपु से कहा कि "तुम्हारे बेटे को लेकर मैं चिता पर बैठ जाऊँगी तो वह जल जायेगा और मैं ज्यों की त्यों रहूँगी।" व्यवस्था तो यह बताती है कि प्रह्लाद को जल जाना चाहिए परंतु इतिहास साक्षी है, होली का त्यौहार खबर देता है, कि परमात्मा के भक्त के पक्ष में अग्नि देवता ने अपना निर्णय बदल दिया, प्रह्लाद जीवित निकला और होलिका जल गयी।
रावण के पास धनबल, सत्ताबल, कपटबल, रूप बदलने का बल, न जाने कितने-कितने बल थे, और लात मारकर निकाल दिया विभीषण को। लेकिन इतिहास साक्षी है कि सब बलों की ऐसी-तैसी हो गयी और विभीषण की विजय हुई।
इसका रहस्य है कि कर्ण के पास बल तो बहुत था लेकिन नारायण का बल नहीं था, नर का बल था। हिरण्यकशिपु व रावण के पास नरत्व का बल था, लेकिन प्रह्लाद और विभीषण के पास भगवद्बल था, नर और नारायण का बल था। ऐसे ही अर्जुन नर हैं, अपने नर-बल को भूलकर संन्यास लेना चाहते थे, लेकिन भगवान ने कहाः "तू अभी युद्ध के लिए आया है, क्षत्रियत्व तेरा स्वभाव है। तू अपने स्वाभाविक कर्म को छोड़कर संन्यास नहीं ले, बल्कि अब नारायण के बल का उपयोग करके, नर! तू सात्त्विक बल से विजयी हो जा !"
तो बेटा! अर्जुन की विजय में नर के साथ नारायण के बल का सहयोग है, इसलिए अर्जुन जीत गया।"
Click here to Reply or Forward
No comments:
Post a Comment