एक गांव में एक गरीब आदमी रहता था। वह बहुत मेहनत करता, किंतु फिर भी वह धन न कमा पाता। इस प्रकार उसके दिन बड़ी मुश्किल से बीत रहे थे। कई बार तो ऐसा हो जाता कि उसे कई कई दिनों तक सिर्फ एक वक्त का खाना खाकर ही गुजारा करना पड़ता। इस मुसीबत से छुटकारा पाने का कोई उपाय उसे न सूझता। एक दिन उसे एक महात्मा मिल गए। उसने उन महात्मा की खूब सेवा की। महात्मा उसकी सेवा से प्रसन्न हो गए और उसे भगवान की आराधना का एक मंत्र दिया। मंत्र से कैसे प्रभु का स्मरण किया जाए, उसकी पूरी विधि भी महात्मा ने उसे बता दी। वह व्यक्ति उस मंत्र से भगवान का स्मरण करने लगा। कुछ दिन मंत्राराधना करने पर देवी उसके सामने प्रकट हुई। देवी ने उससे कहा, "मैं तुम्हारी आराधना से प्रसन्न हूं। बोलो क्या चाहते हो? निर्भय होकर मांगो।"
देवी को इस प्रकार सामने प्रकट हुआ देख वह व्यक्ति घबरा गया। क्या मांगा जाए, यह वह तुरंत तय ही न कर सका, इसलिए हड़बड़ाहट में बोला, "देवी जी, इस समय तो नहीं, हां मैं कल आपसे मांग लूंगा।" देवी कल प्रातः आने का कहकर अंतर्धान हो गई।
घर जाकर वह व्यक्ति सोच में पड़ गया कि देवी से क्या मांगा जाए? उसके मन में आया कि रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए वही मांगा जाए। घर भी कैसा मांगा जाए, वह उस पर विचार करने लगा। ये जमींदार लोग गांव के सब लोगों पर रोब गांठते हैं, इसलिए देवी से वर मांगकर मैं जमींदार हो जाऊं, तो अच्छा रहे। यह विचार कर उसने जमींदारी मांगने का निर्णय कर लिया।
इस विचार के आने के बाद वह सोचने लगा कि जब लगान भरने का समय आता है, तब ये जमींदार भी तो तहसीलदार साहब की आरजू मिन्नतें करते हैं। इस प्रकार इन जमींदारों से बड़ा तो तहसीलदार ही है, इसलिए जब बनना ही है तो बड़ा तहसीलदार क्यों न बन जाऊं?
इस प्रकार विचार कर वह तहसीलदार बनने की इच्छा करने लगा। अब वह इस निर्णय से खुश था। लेकिन, उसके मन में विचार समाप्त नहीं हुए और कुछ देर बाद उसे जिलाधीश बनने का ध्यान आया। वह जानता था कि जिलाधीश साहब के सामने तहसीलदार भी कुछ नहीं है। इस तरह उसे अब तहसीलदार का पद भी फीका लगने लगा था। अतः इच्छाएं बढ़ती चली गईं। वह सोचने विचारने में ही इतना फंस गया कि कुछ तय नहीं कर पाया कि क्या मांगा जाए। इस तरह दिन- रात बीत गए।
दूसरे दिन सवेरा हुआ। वह अभी भी कुछ निर्णय नहीं कर पाया था। ज्यों ही सूरज की पहली किरण पृथ्वी पर पड़ी त्यों ही देवी उसके सामने प्रकट हो गईं। उन्होंने पूछा, "बोलो, अब क्या चाहते हो? अब तो तुमने सोच विचार कर निश्चय कर लिया होगा कि क्या मांगना है?"
उसने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "देवी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ भगवान की भक्ति और आत्म संतोष का गुण दीजिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।" देवी ने पूछा, "क्यों भई, तुमने धन दौलत क्यों नहीं मांगी?"
वह विनम्रता से बोला, "देवी, मेरे पास दौलत नहीं आई। बस आने की आशा मात्र हुई तो मुझे उसकी चिंता से रात भर नींद नहीं आई। यदि वास्तव में मुझे दौलत मिल जाएगी, तो फिर नींद तो एकदम विदा ही हो जाएगी। इसलिए मैं जैसा हूं, वैसा ही रहना चाहता हूं।
"आत्म संतोष का गुण ही सबसे बड़ी दौलत होती है। आप मुझे यही दीजिए।" देवी ने उसे आशीर्वाद दें दिया। वह व्यक्ति पहले की तरह प्रसन्नता से अपना जीवन बिताने लगा।
एक गांव में एक गरीब आदमी रहता था। वह बहुत मेहनत करता, किंतु फिर भी वह धन न कमा पाता। इस प्रकार उसके दिन बड़ी मुश्किल से बीत रहे थे। कई बार तो ऐसा हो जाता कि उसे कई कई दिनों तक सिर्फ एक वक्त का खाना खाकर ही गुजारा करना पड़ता। इस मुसीबत से छुटकारा पाने का कोई उपाय उसे न सूझता। एक दिन उसे एक महात्मा मिल गए। उसने उन महात्मा की खूब सेवा की। महात्मा उसकी सेवा से प्रसन्न हो गए और उसे भगवान की आराधना का एक मंत्र दिया। मंत्र से कैसे प्रभु का स्मरण किया जाए, उसकी पूरी विधि भी महात्मा ने उसे बता दी। वह व्यक्ति उस मंत्र से भगवान का स्मरण करने लगा। कुछ दिन मंत्राराधना करने पर देवी उसके सामने प्रकट हुई। देवी ने उससे कहा, "मैं तुम्हारी आराधना से प्रसन्न हूं। बोलो क्या चाहते हो? निर्भय होकर मांगो।"
देवी को इस प्रकार सामने प्रकट हुआ देख वह व्यक्ति घबरा गया। क्या मांगा जाए, यह वह तुरंत तय ही न कर सका, इसलिए हड़बड़ाहट में बोला, "देवी जी, इस समय तो नहीं, हां मैं कल आपसे मांग लूंगा।" देवी कल प्रातः आने का कहकर अंतर्धान हो गई।
घर जाकर वह व्यक्ति सोच में पड़ गया कि देवी से क्या मांगा जाए? उसके मन में आया कि रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए वही मांगा जाए। घर भी कैसा मांगा जाए, वह उस पर विचार करने लगा। ये जमींदार लोग गांव के सब लोगों पर रोब गांठते हैं, इसलिए देवी से वर मांगकर मैं जमींदार हो जाऊं, तो अच्छा रहे। यह विचार कर उसने जमींदारी मांगने का निर्णय कर लिया।
इस विचार के आने के बाद वह सोचने लगा कि जब लगान भरने का समय आता है, तब ये जमींदार भी तो तहसीलदार साहब की आरजू मिन्नतें करते हैं। इस प्रकार इन जमींदारों से बड़ा तो तहसीलदार ही है, इसलिए जब बनना ही है तो बड़ा तहसीलदार क्यों न बन जाऊं?
इस प्रकार विचार कर वह तहसीलदार बनने की इच्छा करने लगा। अब वह इस निर्णय से खुश था। लेकिन, उसके मन में विचार समाप्त नहीं हुए और कुछ देर बाद उसे जिलाधीश बनने का ध्यान आया। वह जानता था कि जिलाधीश साहब के सामने तहसीलदार भी कुछ नहीं है। इस तरह उसे अब तहसीलदार का पद भी फीका लगने लगा था। अतः इच्छाएं बढ़ती चली गईं। वह सोचने विचारने में ही इतना फंस गया कि कुछ तय नहीं कर पाया कि क्या मांगा जाए। इस तरह दिन- रात बीत गए।
दूसरे दिन सवेरा हुआ। वह अभी भी कुछ निर्णय नहीं कर पाया था। ज्यों ही सूरज की पहली किरण पृथ्वी पर पड़ी त्यों ही देवी उसके सामने प्रकट हो गईं। उन्होंने पूछा, "बोलो, अब क्या चाहते हो? अब तो तुमने सोच विचार कर निश्चय कर लिया होगा कि क्या मांगना है?"
उसने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "देवी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ भगवान की भक्ति और आत्म संतोष का गुण दीजिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।" देवी ने पूछा, "क्यों भई, तुमने धन दौलत क्यों नहीं मांगी?"
वह विनम्रता से बोला, "देवी, मेरे पास दौलत नहीं आई। बस आने की आशा मात्र हुई तो मुझे उसकी चिंता से रात भर नींद नहीं आई। यदि वास्तव में मुझे दौलत मिल जाएगी, तो फिर नींद तो एकदम विदा ही हो जाएगी। इसलिए मैं जैसा हूं, वैसा ही रहना चाहता हूं।
"आत्म संतोष का गुण ही सबसे बड़ी दौलत होती है। आप मुझे यही दीजिए।" देवी ने उसे आशीर्वाद दें दिया। वह व्यक्ति पहले की तरह प्रसन्नता से अपना जीवन बिताने लगा।
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