Saturday, 18 June 2016

चाणक्यकीसीख


बात 325 ई. पू. की है, जब भारत  में मौर्य वंश का शासन था। सम्राट चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान विजेता ही नहीं थे, बल्कि एक योग्य शासक भी थे और उनकी  सुदृढ़ शासन व्यवस्था का प्रमुख आधार चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री चाणक्य थे। शासन व्यवस्था पर उनका पूरा अंकुश था। कहा जाता है एक दिन एक विदेशी चाणक्य से मिलने पहुंचा थे। शाम का वक्त था। चाणक्य बड़ी तल्लीनता से दीपक की रोशनी में कुछ लिख रहे थे। वह विदेशी उनके पास जाकर खड़ा हो गया। लेकिन चाणक्य कार्य में इतने तल्लीन थे कि उन्हें उसके आने का पता ही नहीं चला। जब कार्य समाप्त हुआ तो उन्होंने ऊपर की ओर देखा और उस सज्जन को देखकर अभिवादन किया और आने का कारण पूछा। तब वह बोला, मैं तो आपकी प्रशंसा सुनकर आपसे मिलने चला आया हूं।
चाणक्य ने जलता दीपक बुझा दिया और एक अन्य दीपक जला दिया। उस सज्जन ने इसका कारण पूछा तो चाणक्य बोले, तब मैं शासन संबंधी कार्य कर रहा था। वह दीपक राजकोश के धन से प्रज्ज्वलित था। लेकिन अब मैं एक मित्र से मिल रहा हूं और यह मेरा निजी मामला है। अतः मैंने अपने तेल वाले दीपक को जला लिया। यदि मैं ही सरकारी धन का अपव्यय करने लग जाऊंगा तो अन्य लोग भी ऐसा ही करेंगे और राज्य में अव्यवस्था फैलते देर नहीं लगेगी।
चाणक्य की सारपूर्ण बात सुनकर वह विदेशी आश्चर्यचकित रह गया।

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