Saturday, 18 June 2016

भावुकता—एक अभिशाप भी...!!


साहित्य क्षेत्र में भावुकता एक अनमोल गुण है। कवि हृदय इतना संवेदनशील होता है कि संसार की समस्त वेदना, वह अपने हृदय-पटल पर अनुभव करता है। पीड़ा, कातरता, वेदना से परिपूर्ण हो वह संसार के लिए अपनी अनुभूतियाँ उड़ेलता है, जिसे पढ़ने पर हम हँसते-रोते हैं। उपन्यासकार, नाट्यकार, कहानीकार, कवि सभी भावुकता की जीती जागती प्रतिमाएँ हैं।
संसार के अन्य क्षेत्र में भी जो व्यक्ति भावुक नहीं है, वह शुष्क, वस्तुवादी कहा जाता है। भावुक व्यक्ति अतुल मेधा-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति हुए हैं।
दैनिक जीवन तथा संसार की कठोरताओं में यही भावुकता गुण के स्थान पर दुर्गुण भी बन जाती है। ऐसा व्यक्ति साधारण कठिनता को देखकर व्यग्र हो उठता है, उसके मन में तूफान आ जाता है, उसके संकल्प एवं पौरुष शिथिल हो उठते हैं। संसार एक कर्म क्षेत्र है।
यहाँ पग-पग पर मानव को संघर्ष करना पड़ता है। भावुकता छोटे-मोटे कष्टों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती है। मामूली बातों से ही हम अधिक पीड़ित हो जाते हैं, जबकि संकल्प की दृढ़ता से हम उन पर शासन कर सकते हैं।
मान लीजिए, आप किसी ऊँचे पद पर अफसर हैं। आपके नीचे कार्य करने वाले मातहत अपने कर्त्तव्यों के पालन में तत्परता तथा नियमबद्धता का व्यवहार नहीं करते। उनके ऊपर कार्य अधिक है, यह सोचकर आप उन पर दया का व्यवहार कर देते हैं। वे आपकी मृदुता का अनुचित लाभ उठाते हैं, अधिकाधिक लापरवाह बनते जाते है। आपकी प्रतिष्ठा या मान में भी शैथिल्य प्रदर्शित करते हैं। आप अपनी भावुकतावश उन्हें सजा नहीं दे पाते।
आप किसी साधारण सी बीमारी से पीड़ित हैं, लेकिन अपनी अति भावुकता के कारण वही आपको पर्वत सदृश प्रतीत होती है। अनेक रोगी इतने संवेदनशील होते हैं कि मामूली घाव देखकर बेहोश हो जाते हैं, कटे हुए माँस, मरे हुए जानवर, मुर्दे की अर्थी, कसाई की दुकान और गन्दे स्थान देखकर उनका बुरा हाल होता है। मानसिक सन्तुलन जाता रहता है। बहुत देर तक वे अपने दैनिक कार्य नहीं कर पाते। यह बड़ी कमजोरी है।
एक मित्र को मुर्दे के साथ श्मशान जाना पड़ा था। वहाँ उन्होंने प्रथम बार मरे हुए व्यक्ति की लाश देखी। उनके लिए चिता के निर्माण कराने में सहायता प्रदान की। जब श्मशान से लौटे, तो मन में भय ले आये। उन्हें भूत के अस्तित्व का भ्रम हो गया वही मुर्दा दिन-रात उन्हें अपने इर्द-गिर्द चलता-फिरता दिखाई देने लगा, रात्रि में सोते समय भय प्रतीत होने लगा। सोते-सोते चिल्ला उठते। भय उनकी अन्तः चेतना में प्रविष्ट हो गया था।उनकी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की गई।
संसार में जन्म के साथ मृत्यु का सुनिश्चित क्रम, कठिनाइयाँ, जीवन संघर्ष की दुर्गमता स्पष्टता से समझाई गई, तब उनका मिथ्या भय दूर हो सका। इसी प्रकार के अनेक व्यक्ति मृत्यु को भयदायिनी समझ कर इसी गुप्त भय से संत्रस्त हुए रहते हैं।
एक महानुभाव ने कवि ‘शैली’ की नौका के जल में डूबने की कहानी सुनी थी। कवि अपने कुटुम्ब के साथ झील में अपनी नौका “ऐरियल” में बैठा हुआ विहार कर रहा था कि नौका यकायक डूब गई। इसे सुनने का आघात इतना गहरा बैठा कि वे नाव में ही न बैठते थे और दूसरों को भी मना करते थे।
एक बार मंसूरी से ऊँचे पर्वत पर चढ़ते हुए चलाने वाले की असावधानी से एक मोटर फिसल कर नीचे खड्ड में गिर पड़ी। गाड़ी चूर-चूर हो गई। सब यात्री मर गये। उनकी लाशें ही मिल सकीं। इस दुर्घटना का प्रभाव एक व्यक्ति पर ऐसा पड़ा था कि वे देहरादून से मंसूरी पैदल ही जाते थे। उन्हें नीचे गिर पड़ने का मृत्यु-भय सदैव लगा रहता था। जब कभी वे किसी जगह मोटर में बैठकर जाते तो अंतर्मन में छिपे हुए मृत्यु-भय से बुरी तरह आक्रान्त हो जाते। यह भी एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें भावुकता अभिशाप बनी हुई है।
हमारे घर के समीप कुछ ऐसे नागरिक भी रहते हैं, जो प्रायः प्याज, लहसुन इत्यादि से युक्त भोजन किया करते हैं। प्याज-लहसुन की गन्ध जब हमारे घर में आती है, तो हमारे घर के कुछ सदस्य नाक में कपड़ा ठूँस लेते हैं, कै करने लगते हैं। बहुत देर तक अस्त-व्यस्त रहते हैं। उन्हें अनेक बार समझाया गया है कि जहाँ इत्र फुलेल, चम्पा चमेली और गुलाब की सुगन्ध का आनन्द लेने, मिठाइयों की महक का आनन्द लेने का अभ्यास है, वहाँ इसको सहन करने की आदत भी डालनी चाहिए।
इसी प्रकार कुछ लोग किसी भिखारी पर दया करके अपनी जेब की परवाह न कर कुछ दान दे डालते हैं, कुछ को करुणाजनक कहानियाँ सुनाकर लूट लिया जाता है। स्त्रियों में यह कमजोरी अधिक होती है। वे स्वभावतः भावुक हैं। उनकी दया, करुणा, सहानुभूति, प्रशंसा, भय या जादू टोने की भावनाओं को उत्तेजित कर, खूब मूर्ख बनाया जाता है। पढ़ी-लिखी लड़कियों में सहशिक्षा के कारण यह सस्ते रोमाँस की भावना भयंकर दुष्परिणाम दिखा रही है।
भावुक व्यक्ति का मनोविश्लेषण
अति भावुक व्यक्ति बड़ा दुर्बल चित्त बन जाता है। वह कष्टों को बढ़ा कर देखता है, मिथ्या भय से परेशान रहता है, काम-भाव उसे क्षण भर में उद्विग्न कर देता है, साधारण सी करुणा दिखाने से इतना दयार्द्र हो उठता है, कि अपना सब कुछ दे डालने को उन्मुख हो उठता है, क्रोध में इतना उन्मत्त हो उठता है कि मार-पीट, गाली यहाँ तक कि कत्ल तक कर बैठता है।
साधारण मनोविकारों पर अनुशासन वह नहीं कर पाता, वे उस पर हुक्म चलाते हैं। उसके निश्चय बनते अवश्य है, पर उसके संकल्पों में दृढ़ता नहीं होती। हलके वायु के झकोरों से जिस प्रकार पत्ते आन्दोलित होते हैं, उसी प्रकार उसका हृदय डोलता रहता है। वह विकृत मनोविकारों की उग्रता से ग्रसित रहता है।
अति-भावुकता का अर्थ है, संकल्प की क्षीणता, साधारण भाव को बढ़ा चढ़ाकर देखना, विचार-बुद्धि से संचालित न हो सकना, हवाई किले बनाना और एक काल्पनिक संसार में मस्त रहना, जीवन की कठोर वास्तविकता से पलायन करे स्वार्थगत आनन्द-सृष्टि में विहार करना, दिल के फफोले फोड़ना, सहनशीलता, कष्टों से संघर्ष करने की शक्ति का अभाव, अति सुकुमारता में आने वाली शैशव कालीन चिंताओं, भय या आनन्दों में विहार करना आदि।
ये सभी कमजोरियाँ चट्टान से भी कठोर मानवीय जीवन के लिए हानिकारक हैं। थोपी भावुकता मनुष्य को चञ्चल, अस्थिर, आत्मगत, स्वार्थी, आलसी और निकम्मा बना देती है। बुद्धि के साथ इसका सामंजस्य हो सके, तो यह लाभकारी अवश्य हो सकती है, पर बहुधा भावुक व्यक्ति बुद्धि और तर्क से दूर रहते हैं।
जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण
जीवन के शूलमय क्षणों, शुष्क संघर्षमय वातावरण, विद्वेषी स्वभाव के व्यक्तियों के दुर्व्यवहार को सहन करने की शक्ति जाग्रत कीजिए। आपकी अनेक समस्याएँ अति-भावुकता के कारण पर्वत सदृश प्रतीत होती हैं, जबकि राई सदृश उनका अस्तित्व है। छोटे-मोटे कष्टों को तो योंही हँस-हँस कर टाल दिया कीजिए। एक-एक कष्ट को सहन करने की आदत डालिए।
जब कभी भावनाओं का तूफान आपके मन में आए, तो विशेष रूप से सावधान हो जाइए। कहीं आप आवेश (तैश) में कुछ ऐसा न कर बैठें कि बाद में पछताना पड़े। आवेश को यथासम्भव रोके रहिये। जब तक शान्त न हो लें, तब तक कोई भी महत्वपूर्ण कार्य हाथ में न लीजिए।
जीवन शुष्क संघर्षों से युक्त है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को साँसारिक चट्टानों से जूझना होता है। आपको कदापि इनसे डर कर भयभीत नहीं होना चाहिये। आपके अन्दर पौरुष नामक एक महाप्रतापी ईश्वरीय गुण है। उसे बाहर निकालिए। दूसरे के दुःख, शोक, हास्य को आप अनुभव कीजिए, पर उसमें बह न जाइये।
अति-भावुकता का एक कारण शारीरिक कमजोरी है। शरीर को जितना स्वस्थ बनाया जाय, उतना अच्छा है। स्वस्थ शरीर आपको जीवन की कठोर वास्तविकता से संघर्ष करने में सहायता प्रदान करेगा। आन्तरिक संस्थान में चंचलता, काम शक्ति का आवेग, क्रोध, आवेश, आत्मग्लानि का असन्तोष, ईर्ष्या की अन्तराग्नि, घृणा की वितृष्णा, दमन का उद्वेग भूल कर भी न पलने दीजिए।
अप्राकृतिक उपायों द्वारा मानसिक दमन से यथासम्भव बचे रहिए। हम जीवन की कठोरता से जितना ही अधिक परिचित हों और वास्तविकता के साथ जितना ही अपनी मनोभावनाओं का सामंजस्य स्थापित कर सकें, उतना ही हमारे लिए हितकर होगा।

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