उत्तम भक्त वही है जो प्रशंसा को प्रभु चरणों में समर्पित कर दे और निंदा को अपनी गाँठ में इस प्रण के साथ रखले कि इस निंदा को प्रशंसा में अवश्य बदलूंगा और भगवान को भेंट चढ़ाऊंगा।
भगवान श्रीराम ने भरतजी की प्रशंसा की तो उन्होंने कहा :- "प्रशंसा तो आपकी क्योंकि मुझे आपकी छत्र-छाया मिली।
आप स्वभाव से किसी में दोष देखते ही नहीं, इसलिए मेरे गुण आपको दीखते हैं।"
आप स्वभाव से किसी में दोष देखते ही नहीं, इसलिए मेरे गुण आपको दीखते हैं।"
श्रीरामजी ने कहा :- "चलो मान लिया कि मुझे दोष देखना नहीं आता, पर गुण देखना तो आता है, इसलिए कहता हूँ कि तुम गुणों का अक्षय कोष हो।"
भरतजी बोले :- "प्रभु यदि तोता बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत सुन्दर नाचने लगे तो यह बन्दर या तोते की विशेषता है अथवा पढ़ाने और नचानेवाले की?"
भगवान ने कहा :- "पढ़ाने और नचानेवाले की।"
भरतजी बोले :- "मैं उसी तोते और बन्दर की तरह हूँ।
यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ाने और नचानेवाले तो आप ही हैं, इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।"
भगवान ने कहा :- "भरत, तो प्रशंसा तुमने लौटा दी।"
भरतजी बोले :- "प्रभु, प्रशंसा पचा लेना सबके वश का नहीं।
यह अजीर्ण पैदा कर देता है लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं।
अनादिकाल से भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ ही नहीं, इसलिए यह प्रशंसा आपके चरणकमलों में अर्पित है।
यह अजीर्ण पैदा कर देता है लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं।
अनादिकाल से भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ ही नहीं, इसलिए यह प्रशंसा आपके चरणकमलों में अर्पित है।
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